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शहरनामा/मनाली: महर्षि मनु की नगरी

देवताओं की घाटी मनाली का इतिहास दो हजार वर्ष का है। प्रथम सदी के शासकों के सिक्कों के अनुसार...
शहरनामा/मनाली: महर्षि मनु की नगरी

देवताओं की घाटी

मनाली का इतिहास दो हजार वर्ष का है। प्रथम सदी के शासकों के सिक्कों के अनुसार कुल्लू-मनाली कुलूत कहलाती थी। ये कुलांत पीठ भी कहलाई जिसका अर्थ है आबादी का अंत या अंतिम सीमा। हिमाचल के पंजाब से अलग होने पर नवंबर, 1966 को कुल्लू जिला अस्तित्व में आया। इतिहास के अनुसार, पहली सदी के प्रारंभ में प्रयाग के विहंगमणि ने कुल्लू में राज्य की नींव रखी। पाल शासकों के पतन और पचास वर्षों तक शासनविहीन रहने के बाद सिद्धसिंह ने सत्ता संभाली। लोककथाओं के अनुसार, हिडिंबा के आदेश से सिद्धसिंह और परवर्ती शासक राज कर सके, तबसे राजघराने हिडिंबा को दादी मानते हैं। कुल्लू की मूल राजधानी जगतसुख में रही, बाद में विधुपाल ने नग्गर में और जगतसिंह ने सुल्तानपुर में स्थानांतरित की। मुगलकाल में राजा मुगल शासकों को कर चुकाते थे। राजा जगतसिंह के किसी पाप पर एक ब्राह्मण ने श्राप दिया और प्रायश्चित स्वरूप अयोध्या से रघुनाथ का प्रतीक कुल्लू लाने को कहा। रघुनाथ कुल्लू के प्रमुख देवता बने और दशहरे की परंपरा शुरू हुई।

‘मन्वालय’ या मनु का घर

मनाली के मूल निवासियों का मानना है कि महर्षि मनु ने पुरानी मनाली में वर्ण व्यवस्था की आधारशिला रखी थी। वे मनाली को मन्वालय अर्थात् मनु का घर से बना बताते हैं। प्राचीन मनाली गांव, मनालसू नदी के तट पर बसा है। पहले मनालसू क्षेत्र, मनाल और मोनाल कहे जाने वाले कलगीधारी मृणाल पक्षियों से भरा रहता था। मादा मनाल को मनाली या मोनाली कहते थे। शिकारियों द्वारा लुप्तप्राय कर दिए पंछी के नाम पर मनाली के भूले-बिसरे नामकरण की कल्पना, महर्षि मनु की शान में बेअदबी मानी जाती है। प्राचीन मनाली के ऊपरी छोर पर मनु मंदिर और आधुनिक मनाली के निचले छोर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर की सांस्कृतिक गतिविधियों वाला मनु मंच है। मनु मंदिर पौराणिकता, जाति-पांति की जिद तो मनु मंच आधुनिकता, स्वछंदता का मुक्त प्रांगण है।

ऋषि-मुनियों की स्थली

महर्षि वशिष्ठ का मंदिर व्यास नदी के पार वशिष्ठ गांव में है। महाभारत के रचनाकार वेद व्यास ने स्वयं और राजकुल के महारथियों ने, अज्ञातकुल की कन्याओं से प्रेम और तन-मन के रिश्ते बनाने के मार्ग खोले और जटिल बंधनों के बीच श्रीमद्भगवदगीता के रूप में चरम स्वातंत्र्य का विराट रूप, श्रीकृष्ण रचा! महर्षि व्यास का मंदिर मनाली के ऊंचे शिखर रोहतांग दर्रे, व्यास कुंड पर है जहां से व्यास नदी निकलती है। महर्षि पाराशर का मंदिर पर्वत चोटी पर अद्भुत पाराशर झील किनारे स्थित है। मनालसू नदी के पार, ढूंगरी के घने जंगल में हिडिंबा देवी का मंदिर सैलानियों के लिए बड़ा आकर्षण है। स्थानीय मान्यतानुसार, भीम और राक्षसी हिडिंबा के बीच यहीं प्रणय होने के फलस्वरूप हिडिंबा मंदिर बना। बगल में देवदार वृक्ष के नीचे, हिडिंबा-भीम के पुत्र घटोत्कच का बिना दीवारों और बिना छत का मंदिर स्थापित है। हिडिंबा प्रेम में राक्षसी से मानवी हो गई थी लेकिन स्थानीय लोग बकरों या भैंसों की बलि चढ़ाते हैं।

तन-मन में रचा-बसा स्वर्ग

मनाली मेरे तन-मन में रची-बसी है। पहली बार 1964 में मनाली पहुंचा, छोटे-मोटे काम करते हुए स्वाध्याय करना, सैलानियों और फिल्मी यूनिटों के साथ फुर्सतों में घूमना-फिरना दिनचर्या थी। जहां मनाली का मॉल रोड बना, वहां घना जंगल था। 1964 में मॉल रोड पर थोड़े होटल और दुकानें थीं। विदेशी सैलानियों की तादाद बढ़ रही थी। विदेशी जॉनसन और बैनन परिवारों के होटल महंगे थे, इसलिए सैलानी पुरानी मनाली के परिवारों में पेइंग गेस्ट की तरह रहने लगे। विदेशियों का अड्डा बने ओल्ड मनाली में लोग उनके लिए गेस्टहाउस बनाने लगे। मैं मॉल रोड पर पत्र-पत्रिकाओं के स्टाल वाले रेस्तरां में दोपहर तक काम करके, फिल्मी सितारों और सैलानियों में गुम हो जाता। उन दिनों यहां हिमालय की गोद में,ं मर्यादा और शर्मीली फिल्मों की शूटिंग चल रही थी।

यायावरों-लेखकों-कलाकारों की धरती

मनाली के सैलानियों की पहली पसंद होने का मुख्य कारण मध्यम ऊंचाई वाली हिमालयी नदी, घाटी में फैली हरी-भरी प्रकृति, सदाबहार देवदारों से सजे वन, दूधिया नदी-नाले, सेब के सीढ़ीदार बागान और वर्ष भर खूबसूरत रहने वाला मौसम है। यह यायावरों, लेखकों, छायाकारों, कलाकारों-फिल्मकारों की मनपसंद जगह है। रोहतांग पर्वत और उसकी तलहटी के अनेक स्थलों पर फिल्मों की शूटिंग होती रहती है। स्पिति क्षेत्र की अनूठी खूबसूरती के कारण मनाली-स्पिति मार्ग पर चंद्रताल, काजा और ताबो जैसे अनोखे स्थानों की तरफ लोग आकर्षित होते हैं।

नेहरू, अज्ञेय, रजनीश की पसंद

अज्ञेय, रजनीश की पसंद व्यास-मनालसू नदियों के आरपार बिछे अछूते निसर्ग, मनाली को पहली बार देख नेहरू दंग रह गए थे। वे अक्सर मनाली आते थे। परिचितों से दूर, हिमालय के एकांत में रहना शौक के साथ उनकी मजबूरी थी। उन्हें वनों, नदी-तटों पर विचरते देखा जा सकता था। नेहरू को कश्मीर जैसी सुंदर जगह चाहिए थी, मगर ऐसी नहीं जहां लोग उन्हें पहचानते हों। वे इलाहाबाद से दिल्ली-शिमला-मंडी और कभी पठानकोट-डलहौजी-धर्मशाला-मंडी के रास्ते मनाली आते थे। 1942 में नेहरू, इंदिरा के साथ मनाली के नग्गर में बसे महान चित्रकार निकोलाई रोरिक से मिले थे। कवि-लेखक-चिंतक-यायावर अज्ञेय, अज्ञातवासी क्रांतिकारी के रूप में मनाली आते रहे थे। बाद में उन्होंने मनाली में अपने प्रवास पर लिखा। आचार्य रजनीश सत्तर और अस्सी के दशक में मनाली आकर रहे, उन्होंने मनाली के सौंदर्य की ख्याति बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई। वे वहां कम्यून बनाना चाहते थे लेकिन मनाली के राजनेता उनके विचारों के सख्त खिलाफ थे।

सैन्नी अशेष

(साहित्यकार, हिमालयी यायावर)

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