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शहरनामा: खंडवा, जहां बसी हैं किशोर कुमार की यादें

“खंडवा, जहां बसी हैं किशोर कुमार की यादें” किशोर दा का बॉम्बे बाजार समृद्ध प्राचीन परंपरा,...
शहरनामा: खंडवा, जहां बसी हैं किशोर कुमार की यादें

“खंडवा, जहां बसी हैं किशोर कुमार की यादें”

किशोर दा का बॉम्बे बाजार

समृद्ध प्राचीन परंपरा, संस्कृति और स्मृतियों को समेटे मध्य प्रदेश का खंडवा शहर आधुनिक दौर की कई खूबसूरत स्मृतियों से जुड़ा है। बड़ा जंक्शन होने से अनेक रेलयात्रियों की स्मृतियों में बसा यह शहर संगीत और फिल्म रसिकों के लिए कुछ अविस्मरणीय यादें संजोये हुए है। स्टेशन से सड़क पार करते ही आप बॉम्बे बाजार से जैसे ही जुड़ते हैं, उस ऐतिहासिक घर की ओर आपकी निगाह ठिठककर रह जाती है, जिसके दरवाजे पर गौरी कुंज लिखा हुआ है। यह प्रख्यात गायक-अभिनेता स्वर्गीय किशोर कुमार का पैतृक घर है। वक्त के साथ इसे अतिक्रमण ने कुछ इस तरह घेर लिया कि इसके दोनों मुख्य द्वार के दोनों कंधों को घने बाजार की दुकानें छूती हैं। गौरी कुंज उनके माता-पिता के नाम की अमर निशानी है, लेकिन पारिवारिक बंटवारे के बाद यह घर मंझले भाई अनूप कुमार के नाम हुआ। खंडवा शहर 13 अक्टूबर 1987 को शोक में डूब गया था, जब मुंबई में किशोर कुमार नहीं रहे थे।

ठहरी हुई घड़ी

आज गौरी कुंज रूपी धरोहर को धीरे-धीरे झरते, छरते और मिटते हुए देखने का अवसादभरा अनुभव होता है। इसमें वह पलंग है, जिस पर किशोर कुमार जन्मे, वह बड़ी-सी हत्थेदार कुर्सी जिस पर फौजदारी के प्रख्यात वकील, उनके पिता कुंजीलाल गांगुली आराम फरमाया करते थे। पलंग वाले कमरे में बड़ी-सी गौरा देवी और कुंजीलाल की फोटो है, लेकिन फ्रेम के भीतर पानी और सीलन जाने से चेहरा दिखना मुश्किल हो गया है। पूजा घर, अलमारी में क्लिक थर्ड कैमरे के छोटे-छोटे दुर्लभ फोटो, एल.पी. और ई.पी. रेकॉर्ड, ठहरी हुई घड़ी, ठहरा हुआ कैलेंडर और भी बहुत कुछ हैं।

दूध-जलेबी

शहर के मुख्य बॉम्बे बाजार की भव्यता में नत्थू पंसारी की चालीस साल पुरानी दुकान और हींग की खूब प्रसिद्धि है। इसी घनेपन में लाला की पोहे-जलेबी की दुकान खूब चलती है। किशोर कुमार का बचपन यहीं बीता। छुटपन में मां से पैसे लेकर घर के पीछे लाला की दुकान से दूध-जलेबी लेकर उसका स्वाद चखना उनका प्रिय शौक था। वह लाला की दुकान आज भी है, जिसमें किशोर का तो फोटो लगा ही है, मधुबाला का भी फोटो दिखाई देता है। लोग आज भी वहां पोहा-जलेबी खाकर तृप्त होते हैं। लाला तो अब नहीं रहे, लेकिन उनके बेटों ने ये दोनों फोटो आज भी लगा रखे हैं। हाफ टिकट फिल्म में लाला की दुकान से जलेबी खाने की बात कहते हुए किशोर मां से पैसे मांगते है। वहीं, इंदौर कॉलेज की कैंटीन का पांच रुपया बारह आना किशोर पर हमेशा उधार रहा, जो आगे चलकर चलती का नाम गाड़ी का लोकप्रिय गाना बना।

...है ये कैसा सफर?

किशोर कुमार जीवन के आखिरी समय में मुंबई की चकाचौंध से भागकर अपनी जन्मभूमि आ जाना चाहते थे, यारों और अपनों के बीच। कहते भी थे, दूध जलेबी खाएंगे, खंडवा में बस जाएंगे। उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी। न जाने किस व्यथित क्षण में वसीयत लिख दी थी, मुझे कुछ हो जाए तो शरीर खंडवा ले जाया जाए, बैलगाड़ी में शवयात्रा निकाली जाए और वहीं अंतिम संस्कार हो, जहां मां-पिताजी का हुआ था। उनकी अंतिम इच्छानुसार सड़क मार्ग से उनका पार्थिव शरीर मुंबई से खंडवा लाया गया और सब कुछ उनकी इच्छानुसार ही किया गया। वह दिन खंडवा के लिए असाधारण दुख का दिन था। खंडवा शहर का सबसे भावुक पक्ष स्वर्गीय किशोर कुमार की स्मृतियों को अक्षुण्ण बनाए रखने के प्रयत्न में सफल न हो पाना है।

चार बावड़ियों का शहर

पश्चिम निमाड़ अंचल का यह शहर बहुत सारी विलक्षणताएं अपने में समेटे हुए है। इसे चार कुंड और चार बावड़ियों का शहर भी कहा जाता है। इनमें एक, रामेश्वर कुंड के बारे में कहा जाता है कि जब राम, सीता और लक्ष्मण के साथ वनवास के दौरान यहां आए थे, तब इसे खांडववन कहा जाता था। सीताजी को प्यास लगी तो राम जी ने तीर से रामेश्वर कुंड बना दिया था। संस्कृति और परंपराओं से समृद्ध इस क्षेत्र में प्राय: निमाड़ी बोली चलती है। निर्गुण संत परंपरा और उसकी ज्ञान धारा के परम संत सिंगाजी का बड़ा प्रभाव इस अंचल में है। यहां का पारंपरिक नृत्य गणगौर है, जो शिव-पार्वती के प्रतीक धणिहर राजा और रनू बाई के शिल्प को शीश पर धारण करके किया जाता है।

धूनी वाले दादा जी

इस महान संत के बारे में किंवदंती है कि मां नर्मदा ने उनको शिव का अवतार कहा था। अठारहवीं शताब्दी में अपने भक्तों के साथ नर्मदा नदी की पैदल परिक्रमा करने वाले बाबा गौरीशंकर महाराज के शिष्यों में बालक केशव आगे चलकर धूनी वाले दादा जी कहलाए। उन्होंने खंडवा को अपनी साधना स्थली बनाया और पवित्र धूनी प्रज्ज्वलित की। इसी से उनकी पहचान देश-विदेश तक में धूनी वाले दादा जी के रूप में हो गई। यह धूनी आज भी अहर्निश जल रही है। 1930 में उन्होंने समाधि ली। उनकी स्मृति में हर साल गुरु पूर्णिमा पर यहां बड़ा मेला भरता है। यह शहर रामनारायण उपाध्याय जैसे मूर्धन्य साहित्यकार की भी कर्मभूमि है। ‘खूब लड़ी मर्दानी’ लिखने वालीं सुभद्रा कुमारी चौहान खंडवा की बहू थीं। उनके पति लक्ष्मण सिंह चौहान क्रांतिकारी थे।

लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म आलोचक हैं

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