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भारतीय संस्कृति का यह विचलन !

“देश की एकता और अखंडता के लिए अनिवार्य है कि सभी धर्म, समुदाय, संस्कृतियों के बीच साझा संवाद हो” जिस...
भारतीय संस्कृति का यह विचलन !

“देश की एकता और अखंडता के लिए अनिवार्य है कि सभी धर्म, समुदाय, संस्कृतियों के बीच साझा संवाद हो”

जिस भारत में मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ लिखी, मुल्ला दाऊद ने ‘चंदायन’ की रचना की, सैयद इब्राहीम ‘रसखान’ ने कृष्ण और राधा के गीत गाए, मिर्जा असदुल्लाह खां ‘गालिब’ ने काशी यानी बनारस की शान में कसीदे पढ़े, मौलाना हसरत मोहानी ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा दिया, अशफाकउल्ला खां अंग्रेजी हुकूमत के ‌‌खिलाफ लड़ते हुए फांसी पर लटक गए, अब्दुल हमीद ने पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ाते हुए अपनी जान की कुरबानी दी, बिस्मिल्लाह खां ने विश्वनाथ मंदिर पर शहनाई बजाई, बेगम अख्तर ने होरी गायी और मुहम्मद रफी के गले के जादू ने लोगों को प्रेम का पाठ पढ़ाया, आज उसी भारत में फि‌रोज खान संस्कृत नहीं पढ़ा सकते क्योंकि वे मुसलमान हैं। यह क्षण भारतीय अस्मिता को परिभाषित करने वाला क्षण है, और इस क्षण की व्याप्ति और उसके निहितार्थों को ठीक ढंग से नहीं समझा गया तो इसे एक युग बनते देर न लगेगी।

भारतीय अस्मिता आज नहीं बनी है। इसका निर्माण भारतीय समाज और उसके इतिहास के विकास की प्रक्रिया के दौरान हुआ है और इसे रचने वाले तत्वों में अनेक सभ्यताओं और संस्कृतियों का योगदान रहा है। इन दिनों जिस प्रकार के इतिहास का प्रचार किया जा रहा है, उससे ऐसा लगता है मानो भारत को केवल मुस्लिम आक्रमणकारियों ने ही पराधीनता की गर्त में धकेला और उनके आने के पहले भारत और भारतीय स्वतंत्र ही थे। लेकिन वास्तविकता इसके बिलकुल उलट है।

सिकंदर तक्षशिला आदि पर विजय प्राप्त करते हुए रावी नदी को पार करके स्यालकोट तक पहुंच गया था लेकिन उसके सैनिकों ने व्यास नदी को पार करने से इनकार कर दिया और उसे वहीं से लौटना पड़ा। लौटते हुए 323 ईसापूर्व केवल 32 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो गई। उसने सिंध में और झेलम पर नए नगरों को बसाया और अपने सूबेदारों को इस क्षेत्र में छोड़ गया। उसके सेनापति सेल्यूकस ने उत्तर भारत पर अधिकार करने की कोशिश की लेकिन चंद्रगुप्त मौर्य ने उसे परास्त कर दिया। लेकिन पश्चिमोत्तर में यूनानी शासन जारी रहा और अफगानिस्तान के बाखट्रिया के शासक दिमित्रियस ने 200 ईसापूर्व में भारत के भीतर प्रवेश करना शुरू किया और उसने तथा अन्य यूनानी शासकों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश तक अपना राज्य फैला लिया। उन्हें भारतीय-ग्रीक या यवन कहा जाता है। इस काल के दौरान ही भारतीय दार्शनिक, वैज्ञानिक चिंतन और यूनानी ज्ञानधारा के बीच गहरे संपर्क विकसित हुए। 

इसके बाद मध्य एशिया के शकों ने उत्तर भारत और मध्य तथा पश्चिम भारत के बड़े भूभाग पर प्रथम शताब्दी ईसापूर्व से लेकर चौथी शताब्दी तक राज किया। मथुरा को अपना शक्तिपीठ बनाने वाले कुषाण सम्राट भी मध्य एशिया के शक ही थे, जिनमें कनिष्क और रुद्रदामन प्रथम सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए। 712 में मुहम्मद-बिन-कासिम के नेतृत्व में अरबों ने सिंध के राजा दाहिर को हराया और फिर मुलतान पर कब्जा किया। लेकिन वे अपने राज्य का और अधिक विस्तार नहीं कर पाए। इसी दौरान अनेक संस्कृत ग्रंथों का अरबी में अनुवाद हुआ और भारतीय अंक अरबी के माध्यम से यूरोप भर में प्रचलित हो गए। ग्यारहवीं शताब्दी तक अफगानिस्तान के गजनी के शासक ऊपरी सिंध पर विजय हासिल कर चुके थे। तेरहवीं शताब्दी आते-आते मुहम्मद गौरी दिल्ली में अपनी सल्तनत स्थापित कर चुका था। इसके बाद मुगलों का साम्राज्य स्थापित हुआ, जिसका औपचारिक अंत 1857 में हुआ। लेकिन अपने सबसे खराब समय में भी नाममात्र के मुगल बादशाह का इकबाल इतना बुलंद था कि अंग्रेजी हुकूमत के ‌खिलाफ विद्रोह करने वाले हिंदू-मुस्लिम सिपाहियों ने सर्वसम्मति से बहादुरशाह जफर को सर्वोच्च नेता चुना।

यानी इस देश पर केवल मुस्लिम विदेशियों ने ही राज नहीं किया, बल्कि यूनानियों और शकों ने भी किया है। मुगल साम्राज्य के पतन और अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के उदय की प्रक्रियाएं एक-दूसरे के समांतर चलीं और पहली बार देश ने ऐसी राजसत्ता का सामना किया जिसका उद्देश्य भारत का धन दूसरे देश में भेज कर उसे कंगाल बनाना था। जिन मुगलों को लोग आज गाली देते नहीं थकते, उनके शासनकाल में भारत दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में गिना जाता था और ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता था। अंतरराष्ट्रीय संस्था आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1600 में विश्व के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में ब्रिटेन का हिस्सा 1.80 प्रतिशत, समूचे पश्चिमी यूरोप का 20.02 प्रतिशत, चीन का 29.14 प्रतिशत और भारत का 22.54 प्रतिशत था। एक शताब्दी बाद वर्ष 1700 में यही आंकड़े थे ब्रिटेन 2.88, पश्चिमी यूरोप 22.46, चीन 22.30 और भारत 24.44 प्रतिशत, यानी भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया था। यहां यह याद रखें कि अकबर का राज्यकाल 1556-1605, जहांगीर का 1605-1627, शाहजहां का 1628-1658 और औरंगजेब का 1658-1707 था। जिस काल में भारत विश्व की पहले नंबर की अर्थव्यवस्था बना, वह जहांगीर से लेकर औरंगजेब तक का काल था।

अब जरा अंग्रेजों के जाने के बाद 1952 का आंकड़ा देखें। जहां 1700 में वह 24.44 प्रतिशत था, वहीं अंग्रेजों के दो सौ साल के शासन के बाद वह केवल 3.8 प्रतिशत रह गया था। लेकिन आज राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति का झंडा फहराने वाले लोग जिस भावनात्मक तीव्रता और आक्रामकता के साथ ‘बाबर की औलादों’ के बारे में जहर उगलते हैं, कभी उन्हें अंग्रेजी शासन के ‌खिलाफ भी इसी शिद्दत के साथ बोलते सुना गया? इस किस्म की देशभक्ति का नाता जिस विचारधारा और संगठन से है, उससे जुड़े लोगों ने कभी अंग्रेजी शासन के ‌‌खिलाफ आंदोलनों में हिस्सा नहीं लिया क्योंकि उनका लक्ष्य हिंदू समाज को संगठित करना था। यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यदि हिंदू समाज को अंग्रेजों के विदेशी शासन के ‌‌खिलाफ संगठित नहीं किया जा रहा था तो फिर किसके ‌‌खिलाफ किया जा रहा था? इसका सीधा-सपाट उत्तर है: मुस्लिम समुदाय के ‌‌खिलाफ।

भारत सदा से विविध धर्मों, समुदायों, संस्कृतियों और विचारों वाला देश रहा है और आज भी है। इसकी एकता और अखंडता के लिए अनिवार्य है कि ये सभी एक-दूसरे से भिन्न धर्म, समुदाय, संस्कृतियां और विचार एक-दूसरे के साथ अंतर्क्रिया और संवाद करते हुए शांतिपूर्वक साथ-साथ रहें और कोई किसी अन्य पर अपनी राय थोपने की कोशिश न करे। 1947 में देश एक विभाजन की विभीषिका को झेल चुका और देशवासियों को मालूम है कि अंतर्कलह की परिणति कहां जाकर होती है। इसलिए भारत नामक इस उद्यान में हर रंग का फूल खिले और अपनी खूशबू बिखेरे, तभी इसका सौंदर्य बरकरार रह सकता है। धर्म के नाम पर बने मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान का हश्र हम देख चुके हैं। वह अस्तित्व में आने के 24 साल बाद ही विघटित हो गया और आज भी उसकी हालत सबके सामने है। क्या हम पाकिस्तान का अनुकरण करना चाहते हैं? क्या हमें नहीं पता कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का परिणाम इससे भिन्न कुछ भी नहीं हो सकता?

मुगल सम्राटों और उनके सूबेदारों तथा अन्य मुस्लिम शासकों ने भी संस्कृत को अपने दरबारों में स्थान दिया और अनेक संस्कृत ग्रंथों का फारसी में अनुवाद कराया। दारा शुकोह का नाम इस संदर्भ में सबसे अधिक लिया जाता है लेकिन यह प्रक्रिया अकबर ने शुरू की और उनके इबादतखाने में ब्राह्मण विद्वानों और जैन दार्शनिकों के बीच अक्सर संवाद हुआ करता था। संस्कृत काव्यशास्‍त्र के अंतिम बड़े आचार्य और सिद्धांतकार पंडितराज जगन्नाथ तथा उनके समकालीन प्रख्यात विद्वान कवींद्राचार्य सरस्वती शाहजहां के दरबार में ही थे। औरंगजेब को अपनी नीतियां दारा शुकोह से अलग दिखानी थीं, इसलिए उसने इस प्रक्रिया पर रोक लगाई। इस प्रक्रिया में केवल यांत्रिक रूप से अनुवाद नहीं किए गए, बल्कि संस्कृत और फारसी के साहित्यिक-वैचारिक विश्व के बीच संवाद और संपर्क की प्रक्रिया शुरू हुई। क्योंकि अकबर और उसके उत्तराधिकारी अपने-आपको भारतीय शासक समझते थे और इसी रूप में स्थापित होना चाहते थे, क्योंकि जहांगीर और उसके बाद के बादशाह राजपूत माताओं की संतान थे।

अकबर के दरबार के नवरत्नों में शुमार होने वाले अब्दुर्रहीम खानेखाना ब्रज और अवधी जैसी अनेक भाषाओं के विद्वान होने के साथ-साथ संस्कृत पर भी अधिकार रखते थे। औरगंजेब के मामा शाइस्ता खां ने एक ब्राह्मण मुंशी को अकबर द्वारा कराए गए ‘महाभारत’ के फारसी अनुवाद की विषयसूची तैयार करने का काम सौंपा था। उनके आश्रय में रहने वाले संस्कृत विद्वान चतुर्भुज ने ‘रसकल्पद्रुम’ नामक संस्कृत कविता का संकलन तैयार किया था जिसमें कुछ रचनाएं स्वयं शाइस्ता खां द्वारा रचित बताई गई थीं।

स्पष्ट है कि संस्कृत किसी एक धर्म या समुदाय तक सीमित नहीं है और न उसे सीमित किया जा सकता है। आज यदि राजधानी नई दिल्ली में मैक्सम्यूलर मार्ग है तो वह इसीलिए है, क्योंकि जर्मन और ईसाई धर्मावलंबी मैक्सम्यूलर ने संस्कृत विद्वान के रूप में अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित की और संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन को एक नई दिशा दी।

आज हमारे सामने दो विकल्प हैं। एक तो यह कि हम भारत के सर्वसमावेशी और बहुलतावादी चरित्र को बनाए रखें और ‘सबका साथ-सबका विकास’ के नारे को वास्तविक रूप में जीवन के हर क्षेत्र में लागू करें, और दूसरा यह कि एक धर्म-विशेष को मानने वाले समुदाय के स्वयंभू प्रतिनिधियों द्वारा जारी निर्देशों को समूचे देश पर थोप दें। दूसरा विकल्प सांस्कृतिक विचलन की उस प्रक्रिया को एक अंधी गली में ले जाकर छोड़ देगा, जो अनेक दशकों से भारतीय समाज के स्वरूप और चरित्र में परिवर्तन लाने का काम कर रही है। पहला विकल्प भारत के उस विचार को संपुष्ट करेगा जिसके लिए भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और अशफाकउल्ला खां ने अपनी जान कुरबान की थी और जिसके लिए लाखों भारतीय स्‍त्री-पुरुषों ने अनेक कष्ट उठाते हुए अंग्रेजी शासन से लोहा लिया था।

(वरिष्‍ठ पत्रकार, कवि, राजनीति और कला-संस्कृति के स्तंभकार) 

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