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नफरत विहीन समाज का खोजी

हिंदी के यशस्वी लेखक कृष्ण बलदेव वैद 92 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा हो चुके हैं। उन्होंने अंतिम...
नफरत विहीन समाज का खोजी

हिंदी के यशस्वी लेखक कृष्ण बलदेव वैद 92 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा हो चुके हैं। उन्होंने अंतिम सांस अमेरिका के न्यूयॉर्क में ली, जहां वे अपनी बेटियों के साथ वर्षों से रह रहे थे। भारत और अमेरिका के बीच उनकी आवाजाही बराबर रही, लेकिन उनकी लेखनी की धारदार निब भारत की मिटटी में ही सनी-डूबी थी। वे हिंदी भाषा के रचनाकार थे, लेकिन अमेरिकी विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाया। दिल्ली में कभी कभी दिखाई देते और फिर गायब हो जाते। बाद में पता चला उनके अंग्रेजी साहित्य के विद्वान होने और उनके अमेरिकी प्रवासों का। तभी शायद यह भी समझ में आया कि क्यों उन पर बाहरी प्रभावों के आरोप लगते रहे।

जो आदमी एक नौकरानी की डायरी सरीखी रचना हमें दे सकता है, वह भला बाहरी प्रभावों में एक मौलिक रचनाकार कैसे बना रह सकता है। यह कृति नागर जीवन के उन जरूरी लोगों के जीवन की कहानी है, जो हमारी सोच और व्यवहार में उपेक्षित रहते हैं, लेकिन उनके बिना नागर जीवन विकलांग हो जाता है। इसमें एक युवा होती नौकरानी की मानसिक स्थिति और उसके भीतर उथल-पुथल को बड़े मार्मिक ढंग से चित्रित किया गया है। डायरी शैली में लिखे इस उपन्यास में उपेक्षित-वंचित वर्ग और कुलीन समाज के अंतर्विरोधों और विडंबनाओं को चित्रित किया गया है। वैद की कहानियों और उपन्यासों के विषय और पात्र उन पर हिंदी आलोचकों के प्रहारकारी आरोपों को सिरे से गलत साबित करते हैं। वैद ने कभी इन आरोपों का जोरदार खंडन किया हो, ऐसा दिखाई नहीं देता। हिंदी के एक मासूम लेखक की तरह वे प्रहार सहते रहे और एक से बढ़ कर एक रचनाएं देते रहे|

एक बड़े रचनाकार का इस दुनिया से प्रस्थान, समाज की एक बड़ी क्षति तो होती ही है, हमें भावनात्मक स्तर पर खालीपन से भर देता है। उनसे मेरी पहली मुलाकात शायद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हुई थी। बहुत बातें नहीं हुई थीं, लेकिन करीब से और गौर से उनको देखने का अवसर मिला। शरीर से अपनी उम्र से अधिक वृद्ध, सफेद बाल, मोटे लेंस वाले चश्मे के पीछे से चमकती हुई चैतन्य आंखें। सब कुछ अपनी निगाह में कैद कर लेने को आतुर वे आंखें दिव्य थीं, और पैनी भी। शायद वैद को मार्क्सवादी लेखकों में शुमार नहीं किया जाता और इसलिए भूख और आग की बात करने वाले वैद को मार्क्सवाद की दुनिया में संदेह से देखा गया और उनकी उपेक्षा की गई। तभी तो उन्होंने एक बार अपने एक इंटरव्यू में कहा था, “साहित्य में (हिंदी साहित्य में) डलनेस को बहुत महत्व दिया जाता है, भारी-भरकम और गंभीरता को महत्व दिया जाता है। आलम यह है कि भीगी-भीगी तान और भिंची-भिंची सी मुस्कान पसंद की जाती है और यह भी कि हिंदी में शिल्प को अब भी शक की निगाह से देखा जाता है। बिमल उर्फ जाएं तो जाएं कहां को अश्लील कहकर खारिज किया गया। मुझ पर विदेशी लेखकों की नकल का आरोप लगाया गया, लेकिन मैं अपनी अवहेलना या किसी बहसबाजी में नहीं पड़ा। बतौर लेखक मैं मानता हूं कि मेरा कोई नुकसान नहीं कर सका। जैसा लिखना चाहा, वैसा लिखा। जैसे प्रयोग करना चाहा, किया।”

 इसी जज्बे से वैद ने काम किया, आजीवन बिना किसी विवाद में पड़े। वे ऐसे किसी व्यवहार से कभी विचलित नहीं हुए, बल्कि उनकी विनम्रता की डिग्री बढ़ती ही गई। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त अभाव को देखा और समझा और उस अभाव के भीतर की भूख और आग को देखा। उनसे मेरा पहला करीबी साक्षात्कार उनसे मिलकर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल में उनके नाटक भूख आग है के मंचन से हुआ था। प्रसिद्ध रंगनिर्देशक भानु भारती की सलाह पर दूसरे प्रसिद्ध रंग-निर्देशक रामगोपाल बजाज के रंग-निर्देशन में यह नाटक खेला गया। शायद वैद जी का आग्रह रहा होगा कि यह नाटक रंग निर्देशक का नहीं, अभिनेताओं का होना चाहिए। नाटक में विन्यस्त संरचना और विसंगतियां अभिनेताओं के माध्यम से दिखाई जाएं। मंच-निरूपण में चित्रकार की दृष्टि रहे और वर्णित वस्तुओं और दृश्यों को अधिक से अधिक यथार्थ के करीब रखा जाए। मंच-निर्माण शायद इसीलिए प्रसिद्ध चित्रकार मंजीत बाबा करने वाले थे, लेकिन किसी वजह से वे इससे जुड़ नहीं पाए थे।

 जिन लोगों ने भूख आग है की रंग-प्रस्तुति देखी होगी, उन्होंने मंच-सामग्रियों की प्रासंगिकता को जरूर समझा और सराहा होगा। भूख आग है का कथासार यह है कि एक अमीर परिवार की लड़की ‘भूख की तलाश’ विषय पर निबंध लिखना चाहती है। उस दरम्यान उसे भूख के बारे में बहुत कुछ पता चलता है, संवेदना के अलग-अलग स्तर पर। जिंदगी की सच्चाइयों के प्रति हमारी असंवेदनशीलता और उदासीनता उजागर होती हुई। नाटक कई स्तरों पर चलता है। इस नाटक में विनोदशीलता भी है, जो इसे एक गहरा अर्थबोध देती है।

 कृष्ण बलदेव वैद ने खुद इस नाटक पर टिप्पणी की है, “युवा दिनों में मैं सुनहरे वर्गहीन समाज का स्वप्न देखा करता था, जिसमें गरीबी नहीं होगी, शोषण नहीं होगा, ऊंच-नीच नहीं होगी, नफरत नहीं होगी, भूख नहीं होगी। उन्हीं स्वप्नों की राख में फूंक मारने की कोशिश है यह नाटक, उसमें बची-दबी किसी चिंगारी की  तलाश है।” वैद जी का रचना-संसार विपुल और विविध अनुभवों से भरा है। भाषा और शैली के स्तर पर मौलिक और ताजगी से भरा हुआ प्रयोग।

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