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नई खेती-किसानी के सूत्र
नई खेती-किसानी के सूत्र

नई खेती-किसानी के सूत्र

कृषि अर्थव्यवस्‍था में सुधार के लिए लगातार तीसरे साल आउटलुक एग्रीकल्चर कॉनक्लेव एंड स्वराज अवार्ड्स का आयोजन किया गया। इस बार 24 फरवरी 2020 को आयोजित इस अवार्ड की सात श्रेणियां श्रेष्ठ राज्य, श्रेष्ठ राष्ट्रीय, राज्य और प्राथमिक सहकारी समितियां, श्रेष्ठ कृषि वैज्ञानिक, श्रेष्ठ प्रगतिशील किसान (महिला और पुरुष), श्रेष्ठ कृषि विज्ञान केंद्र, श्रेष्ठ एफपीओ और श्रेष्ठ एग्री टेक्नोलॉजी स्टार्टअप थीं। इन श्रेणियों में 14 श्रेष्ठ व्यक्तियों और संस्थाओं को चुनने के लिए छह सदस्यों वाली ज्युरी में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के सचिव संजय अग्रवाल, कृषि विशेषज्ञ डॉ.टी. हक, राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम के एमडी संदीप नायक, अमूल के एमडी आर.एस. सोढ़ी, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के डिप्टी डायरेक्टर जनरल डॉ. ए.के. सिंह और आउटलुक के संपादक हरवीर सिंह शामिल थे।

श्रेष्ठ राज्य / उत्तराखंड

क्षेत्र घटने पर भी रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन

उत्तराखंड में कृषि क्षेत्रफल में लगातार कमी आने के बावजूद उत्पादन बढ़ रहा है। वर्ष 2017-18 में राज्य का कुल खाद्यान्न उत्पादन 19.20 लाख टन हो गया जो अब तक का रिकॉर्ड है। खाद्यान्न उत्पादन में बेहतरीन प्रदर्शन के लिए उत्तराखंड को कई पुरस्कार मिले हैं। राज्य के मैदानी क्षेत्रों में उन्नत नवीनतम प्रजातियों और तकनीकों का प्रयोग हो रहा है, जबकि पर्वतीय क्षेत्रों में स्थानीय परम्परागत फसलों के उत्पादन पर जोर है। पर्वतीय क्षेत्र की परम्परागत फसलें पौष्टिक के साथ ही औषधीय महत्व की हैं। कृषि विकास योजना के अन्तर्गत 2017-18 में 585 कलस्टरों में जैविक खेती कार्यक्रम संचालित किया गया, जिससे 29,250 किसानों को फायदा मिला। 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने को रणनीति तैयार कर न्याय पंचायत एवं जिला स्तरीय माइक्रो प्लान तैयार किया गया है।

दूसरों के लिए मॉडल बन रहा उत्तराखंड

उत्तराखंड के कृषि मंत्री सुबोध उनियाल का कहना है कि कृषि क्षेत्र में यह राज्य देश के अन्य राज्यों के लिए एक मॉडल बन रहा है। राज्य सरकार किसानों के हित में ऐसे कदम उठा रही है, जिनसे उनकी आय में बढ़ोतरी होगी। ऐसे ही कई मुद्दों पर कृषि मंत्री से बात की अतुल बरतरिया ने। प्रमुख अंश-

किसानों की आय बढ़ाने के क्या कदम उठाए गए हैं?

फसलों की खरीद में बिचौलियों का वर्चस्व खत्म किया जा रहा है। पहले पूरे राज्य में महज चार कोल्ड स्टोरेज थे, इनकी संख्या अब 36 हो गई है। इससे फसल नष्ट होने से बच रही है। सेब उत्पादक किसानों के लिए सरकार ने इस साल 1.83 लाख पेटियां आधी कीमत पर उपलब्ध कराई हैं। चारों धामों के आसपास फूलों की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है।

खराब बीज की समस्या से कैसे निपटेंगे?

निजी क्षेत्र के बीज उत्पादक मिलावटी बीज बेचते हैं। हमने कानून बनाया कि किसानों को खराब बीज देने वालों को जेल जाना पड़ सकता है और जुर्माना भी लगाया जाएगा। किसानों के लिए बीज की खरीद तराई एवं बीज विकास निगम, पंतनगर विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय बीज निगम से ही की जाएगी।

कृषि क्षेत्र कम हो रहा है, इसे कैसे रोकेंगे?

यह सच है कि शहरीकरण के बाद कृषि क्षेत्र कम हुआ, पर सरकार के प्रयासों से इसमें वृद्धि हो रही है। वर्ष 2017-18 में रिकॉर्ड 19.20 लाख टन खाद्यान्न उत्पादन हुआ। 2016-17 के लिए केंद्र सरकार ने एक करोड़ और 2017-18 के लिए पांच करोड़ रुपये का पुरस्कार दिया है। इस राशि का उपयोग किसानों के साथ ही विभागीय अधिकारियों और कर्मचारियों के कल्याण में किया जाएगा। हर जिले से हर साल पांच-पांच छात्र और पांच-पांच छात्राओं का चयन करके उन्हें कृषि विभाग सम्मानित करेगा। 

 श्रेष्ठ राज्य / मेघालय

 मिशन मोड में खेती ने पहुंचाया लाभ

कृषि सहित हर क्षेत्र में नई ऊर्जा लाने के लिए मेघालय ने कृषि, जल संरक्षण, दूध, रोजगार-विपणन जैसी गतिविधियों पर फोकस किया है। मेघालय के अतिरिक्त विकास आयुक्त राजीव अरोड़ा बताते हैं कि समग्र विकास के लिए 11 गतिविधियों की पहचान की गई और  मेघालय बेसिन डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाकर मिशन शुरू किया गया। इस मिशन में किसानों के अलावा सभी कारोबारियों को भी जोड़ा है। ब्लॉक स्तर तक इसकी इकाई होने से किसान और दूसरे लोग किसी भी तरह की जानकारी और सहायता प्राप्त कर सकते हैं। इससे किसानों को उपज की मार्केटिंग में सहूलियत मिली। फिशरीज को मिशन मोड में लेने से वार्षिक उत्पादन 4,000 टन से बढ़कर 12,000 टन हो गया है। मेघालय की हल्दी प्रजाति लकाडोंग हल्दी मिशन भी शुरू किया गया। खूबियों से भरपूर इस किस्म की हल्दी की किसानों को अच्छी कीमत मिलती है। आज करीब 115 किसान समूह मेघालय के मिशन लकाडोंग से जुड़े हैं। लकाडोंग हल्दी में कैंसर से लड़ने वाले तत्व (करक्यूमिन) पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा 7.5 फीसदी होता है।

2012 में एमबीडीए की शुरुआत से अब तक इसका व्यापक ढांचा खड़ा हो चुका है। कृषि क्षेत्र में एमबीडीए और कृषि विभाग समानांतर रूप से काम करते हैं। मेघालय के कृषि आयुक्त पी. संपत कुमार ने कहा कि सरकार के इन प्रयासों से हजारों किसानों की आय बढ़ाने में मदद मिली। आने वाले वर्षों में मेघालय में कृषि क्षेत्र का विकास और तेज होने की संभावना है। उनका कहना है कि राज्य में मिल्क मिशन भी शुरू किया गया है।

मेघालय की 81 फीसदी आबादी व्यवसाय, रोजगार और आय के लिए खेती पर ही निर्भर है। मेघालय ने स्ट्रॉबेरी, हल्दी, कटहल और दूध के क्षेत्र में कई सफल प्रयोग किए हैं। यहां पहले किसान स्ट्रॉबेरी की सिर्फ एक फसल ले पाते थे, लेकिन तकनीक की मदद से अब तीन फसलें ले रहे हैं। यह किसानों की आय का मुख्य जरिया बना है। प्रदेश में हर साल 450 करोड़ रुपये का कटहल बर्बाद हो जाता था। उसे बचाने के लिए प्रोसेसिंग को बढ़ावा दिया गया।

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श्रेष्ठ राष्ट्रीय सहकारी समिति

 

डेयरी क्षेत्र से खत्म किया बिचौलियों को भूमिका

नेशनल कोऑपरेटिव डेयरी फेडरेशन ऑफ इंडिया, आणंद की खासियत है कि उसने डेयरी सेक्टर के लिए ऐसा ई-पोर्टल विकसित किया है जिसने दुग्ध उत्पादकों, सहकारी समितियों, कैटल फीड निर्माताओं और दूसरे सप्लायरों और खरीदारों को सीधे जोड़ दिया है। इससे थोक मात्रा में खरीद-बिक्री के लिए लंबी टेंडर प्रक्रिया की जरूरत ही नहीं रह गई। एनसीडीएफआइ के चेयरमैन मंगल जीत राय कहते हैं कि ई-पोर्टल से बिचौलियों की भूमिका खत्म हो गई। टेंडर प्रक्रिया में भी सीमित लोग ही जुड़ पाते थे। लेकिन देशव्यापी ई-पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन के बाद कोई भी खरीद-फरोख्त कर सकता है। प्लेटफार्म पर 1,200 सदस्य सीधे खरीद-फरोख्त करते हैं।

एनसीडीएफआइ के मैनेजिंग डायरेक्टर के. सी. सुपेकर कहते हैं कि एनसीडीएफआइ का कारोबार 1,103 करोड़ रुपये से ज्यादा हो गया है। वह आइटीबीपी सहित सेना की अधिकांश इकाइयों और आइआरसीटीसी जैसे संस्थागत ग्राहकों के अलावा देश के असंख्य उपभोक्ताओं को भी दुग्ध उत्पाद सुलभ कराता है। उन्होंने बताया कि फेडरेशन दुधारू पशुओं की प्रजाति सुधार के लिए भी काम कर रहा है। वह दुग्ध उत्पादन बढ़ाने को गाय और भैंस के उच्च गुणवत्ता वाले सीमन की सप्लाई करता है। फेडरेशन तिलहन, खाद्य तेल के प्रोत्साहन के लिए भी काम करता है। करोड़ों किसानों को सहकारिता के जरिए जोड़कर उनकी खुशहाली और आर्थिक बेहतरी के लिए वह दशकों से काम कर रहा है। श्वेत क्रांति के जनक डॉ. वर्गीज कुरियन 2006 तक एनसीडीएफआइ के चेयरमैन रहे थे।

श्रेष्ठ राज्य सहकारी समिति

 

पारदर्शी खरीद से किसानों को दिलाया पूरा मूल्य

छत्तीसगढ़ स्टेट कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड की मैनेजिंग डायरेक्टर शम्मी आबिदी कहती हैं कि छत्तीसगढ़ धान का कटोरा कहा जाता है। इस कटोरे को भरने वाले किसानों से उनकी फसल की खरीद और समय पर भुगतान छत्तीसगढ़ मार्कफेड की पहली प्राथमिकता है। राज्य की 1,200 प्राथमिक सहकारी समितियां जुड़ी हैं। मार्कफेड ने कंप्यूटरीकरण करके समितियों के कामकाज में पारदर्शिता लाने की पहल की है। इससे धान की खरीद काफी सुगम होने से किसानों को फायदा मिला है। इस सिस्टम में किसानों को तीन दिन के भीतर भुगतान भी सुनिश्चित किया गया है। पिछले साल मार्कफेड में धान बेचने के लिए 19.5 लाख किसानों के पंजीकरण कराया और 18 लाख किसानों ने अपनी उपज सहकारी समितियों में बेची। मार्कफेड ने कुल 82 लाख टन धान की खरीद की। आबिदी कहती है कि मार्कफेड किसानों से सीधे खरीद करती है। इससे बिचौलिए खत्म हो गए और किसानों को एमएसपी का पूरा लाभ मिलने लगा। खुले बाजार में उन्हें मुश्किल से 1,200 रुपये प्रति क्विंटल का भाव मिल पाता था। जबकि समितियों में बेचने पर उन्हें 1815-1835 रुपये प्रति क्विंटल का भाव मिला। मार्कफेड हर साल 16.96 लाख किसानों को 8.94 लाख टन उर्वरक सुलभ कराती है। किसानों की उपज का पैसा उनके कर्ज में समायोजित करने की ऐसी व्यवस्था है जिससे उन्हें कर्ज मिलने में आसानी होती है।

मार्कफेड ने खरीद, प्रबंधन और भुगतान में ऑटोमेशन करके सहकारिता क्षेत्र को नया आयाम दिया है। धान की खरीद, लोडिंग-अनलोडिंग और परिवहन की गतिविधियों की भी मोबाइल एप्लीकेशन के जरिए निगरानी होती है। मार्कफेड ने 5.16 लाख टन क्षमता के 204 गोदाम बनाए हैं

श्रेष्ठ प्राथमिक सहकारी समिति

 

एमएसपी पर फसल खरीदने के साथ किसान को कर्ज भी

मल्कानूर कोऑपरेटिव रूरल बैंक एंड मार्केटिंग सोसायटी लिमिटेड, तेलंगाना के ए. प्रवीन रेड्डी का कहना है कि उनकी कोऑपरेटिव सोसायटी 7,600 सदस्य किसानों के जीवन में खुशहाली लाने का प्रयास कर रही है। सोसायटी का कारोबार 320 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है। उसने किसानों को उर्वरक और कीटनाशक सुलभ कराने के लिए हर गांव में गोदाम बनाया है। सोसायटी 18 गांवों में अपने सदस्यों से धान, कपास आदि उपजों की खरीद करती है और तय एमएसपी पर भुगतान करती है। इतना ही नहीं, वह अपने सदस्यों को वर्ष के अंत में होने वाले लाभ में हिस्सा भी देती है। सोसायटी किसानों को कपास पर 275 रुपये प्रति क्विंटल और धान पर 120 रुपये प्रति क्विंटल अतिरिक्त लाभ देने में सफल रही। दरअसल, सोसायटी राइस मिल और जिनिंग मिल चलाती है जिससे उसे लाभ होता है। सोसायटी मल्कानूर राइस के ब्रांड से चावल की बिक्री भी करती है। रेड्डी का कहना है कि सोसायटी ने किसानों के लिए बीमा पॉलिसी ली है, जिससे अगर किसी किसान की मौत हो जाती है तो उस पर बाकी कर्ज माफ हो जाता है। इस तरह उसके परिवार पर कोई आर्थिक भार नहीं आता है। सोसायटी ने कृषि, क्रेडिट, एग्री स्टोरेज, प्रोसेसिंग, मार्केटिंग, डेयरी और फिशिंग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया है। 1956 में स्थापित इस सहकारी समिति अपने सदस्य किसानों को फसल कर्ज और दूसरे तरह के कृषि कर्ज सुलभ कराती है। इससे किसानों को उत्पादकता बढ़ाने और संपन्नता हासिल करने में मदद मिली। समिति अपने सदस्यों को बच्चों की पढ़ाई, चिकित्सा और बेटियों की शादी के लिए व्यक्तिगत कर्ज भी देती है।

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श्रेष्ठ कृषि वैज्ञानिक

 

गेहूं और जौ की 48 किस्में विकसित कीं

हरियाणा के करनाल स्थित भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉ. ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह ने गेहूं और जौ की 48 किस्मों के विकास के लिए अनुसंधान में योगदान किया। इससे हजारों किसानों, उपभोक्ताओं और उद्योगों को फायदा मिला। डॉ. सिंह का कहना है कि उन्होंने गेहूं की किस्म करण वंदना (डीबीडब्ल्यू 187) विकसित की थी। दो-तीन साल में यह बेहद लोकप्रिय हुई है। इस किस्म की बुआई करने वाले किसानों की पैदावार में भारी इजाफा हुआ है। इसकी पैदावार करीब 80 क्विंटल प्रति हैक्टेयर रहती है। इस प्रजाति की खेती जम्मू से लेकर पश्चिम बंगाल तक समूचे गंगा क्षेत्र में की जा रही है। इस किस्म में बीमारियों से लड़ने के लिए ज्यादा प्रतिरोधक क्षमता है। इस फसल में  फूल 77 दिनों में आते हैं जबकि 120 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। उन्होंने गेहूं की जो किस्में विकसित कीं, उनमें एचडी 3086, एचडी 2967 और एचडी 2932 भी शामिल हैं।

व्हीटमैन ऑफ इंडिया के तौर पर चर्चित डॉ. सिंह के मुताबिक, गेहूं की यह किस्में देश के 60 फीसदी क्षेत्रफल में उगाई जा रही हैं। राष्ट्रीय गेहूं और जौ सुधार कार्यक्रम के लिए अनुसंधान का प्रभारी होने के नाते उनके कंधों पर सभी वर्गों के लिए भोजन और पोषण सुनिश्चित करने की महती जिम्मेदारी है। इस कार्यक्रम को सफलतापूर्वक लागू करने से ही देश ने गेहूं की रिकॉर्ड पैदावार हासिल की। उन्होंने ट्रेनिंग प्रोग्राम लागू करने और अनुसंधान क्षमता बढ़ाने के लिए नए रिसर्च प्रोग्राम विकसित किए।

डॉ. सिंह का कहना है कि देश में अनाज की बढ़ती मांग पूरा करने के लिए गेहूं की प्रजातियों पर और ज्यादा शोध की आवश्यकता है। गेहूं की फसल पर मौसम की मार आज गंभीर समस्या है। अनायास गर्मी बढ़ने से गेहूं की फसल प्रभावित होती है और पैदावार घट जाती है। आवश्यकता है कि मौसम की मार झेल पाने में सक्षम किस्मों के शोध पर विशेष ध्यान दिया जाए। देश की बढ़ती आबादी की भोजन की मांग पूरी करने के लिए अधिकाधिक अन्न उगाने के लिए शोध एकमात्र विकल्प है।

श्रेष्ठ कृषि वैज्ञानिक

 

56 फीसदी क्षेत्र में होती है इनके द्वारा विकसित गन्ने की किस्मों की खेती

गन्ने की नई किस्म सीओ-0238 विकसित करके डॉ. बख्शी राम ने उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, बिहार और आसपास के राज्यों में पैदावार और गुणवत्ता सुधार में योगदान किया है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्रीडिंग साइंटिस्ट डॉ. बख्शी राम कोयंबटूर स्थित आइसीएआर शुगरकेन ब्रीडिंग इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर हैं। उनकी विकसित गन्ने की किस्म 56 फीसदी क्षेत्र में उगाई जाती है। उन्होंने जल्दी तैयार होने वाली ऐसी किस्मों पर जोर दिया, जिसकी पैदावार और चीनी रिकवरी ज्यादा हो। उनके प्रयासों से 14.01 फीसदी चीनी रिकवरी का रिकॉर्ड बना। इसकी औसत रिकवरी 12 फीसदी है। उनके अनुसंधान से मधुर क्रांति ने जन्म लिया। ज्यादा रिकवरी होने पर चीनी का उत्पादन ज्यादा होता है। मिलों को बेहतर मूल्य देने में दिक्कत नहीं आती है।

डॉ. बख्शी राम कहते हैं कि शोध में अगर पैदावार बढ़ाने पर जोर दिया जाए तो रिकवरी घट जाती है और अगर रिकवरी पर ध्यान दिया जाए तो पैदावार सीमित होती है। उनके द्वारा विकसित सीओ 0238 किस्म ने इन सभी समस्याओं का समाधान किया है। इस अगैती किस्म की उत्पादकता 79 टन प्रति हैक्टेयर तक बढ़ गई जबकि 60 टन पैदावार मिल पाती है। भारतीय गन्ने की मोटाई कम रहने के कारण भी रिकवरी कम आती है। इन नई किस्म के गन्ने की मोटाई आधे से पौन इंच के बीच होती है। रिकवरी में बढ़ोतरी गन्ने की मोटाई सुधरने के कारण हुई है।

डॉ. बख्शी राम का कहना है कि उत्तर भारत की इस किस्म से गन्ने की पैदावार और रिकवरी में भारी बढ़ोतरी हुई है। अब वे तमिलनाडु और दूसरे दक्षिण राज्यों के लिए ज्यादा पैदावार और बेहतर रिकवरी वाली किस्म पर ध्यान दे रहे हैं। दक्षिणी राज्यों के किसान भी नई किस्म अपनाने को तैयार होंगे। उनके अनुसंधान से न सिर्फ चीनी का उत्पादन बढ़ा है, बल्कि किसानों की अच्छी आमदनी का रास्ता खुला है।

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श्रेष्ठ प्रगतिशील किसान

 

मधुमक्खी पालन से किसानों का कायाकल्प 

हरियाणा के झज्जर स्थित गांव बिरहोर की मुकेश देवी लाखों भूमिहीन किसानों जैसी ही हैं। लेकिन 2001 में उन्हें अपने रिश्तेदार से जो प्रेरणा मिली, उसने न सिर्फ उन्हें नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया, बल्कि दूसरी सैकड़ों महिलाओं के लिए आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। 44 वर्षीय मुकेश देवी कहती हैं कि मधुमक्खी पालन का कारोबार शुरू करने में उन्हें कई कठिनाइयां आईं। वे अपने गांव की पहली मधुमक्खी पालक बनीं। उत्तर भारत में सबसे सफल मधुमक्खी पालक बनीं मुकेश ने गांव, जिले और राज्य में दूसरे किसानों खासकर महिला किसानों को भी सहायदी दी।

आज उनके स्वयं सहायता समूह के पास 7000 बॉक्स हैं। इनमें से करीब 2000 बॉक्स उनके खुद के हैं। मुकेश देवी का शहद कारोबार 2.65 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। वे 192 ग्रामीण युवाओं को रोजगार भी दे रही हैं। रिश्तेदार से उधार लेकर उन्होंने 30 बॉक्स से कारोबार शुरू किया था।

मुकेश देवी कहती हैं कि मधुमक्खी पालन कम खर्च में शुरू हो सकता है। मधुमक्खी पालन मौसम और क्षेत्र की फसलों पर काफी निर्भर है। गर्मियों में फसलें न होने पर उन्हें फल-फूल वाले दूसरे क्षेत्रों में ले जाना पड़ता है। राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में भी मधुमक्खी पालक में सहायता और प्रशिक्षण देने पर उनका कहना है कि प्रशिक्षण देना उनका शौक बन चुका है। उनका कहना है कि उन्हें सरकार से कोई मदद नहीं मिली। अब वे सरसों, नीम आदि पेड़-पौधो का अलग-अलग शहद बनाने पर जोर दे रही हैं। वे कहती हैं कि बेहतर कीमत चाहिए तो शहद की प्रोसेसिंग, मूल्यवर्धन करना आवश्यक है। उन्होंने झज्जर में प्रोसेसिंग प्लांट लगाया है।

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श्रेष्ठ प्रगतिशील किसान

 

अनूठे प्रयोगों से गन्ना, मसूर की लागत आधी कर दी

उत्तर प्रदेश के सीतापुर में बखरिया निवासी अब्दुल हादी खान अल्प शिक्षित हैं, लेकिन कठिन परिश्रम और सीखने की लालसा के कारण उन्होंने खेती में कई खोजें कीं, जिससे सीतापुर और दूसरे जिलों के किसान भी लाभान्वित हो रहे हैं। उन्होंने आम, अनानास, वर्मी कंपोस्ट और नैपियर की मिश्रित खेती का नया मॉडल अपनाया। उन्होंने खेत में आड़ी-टेढ़ी मेड़ बनाकर सिंचाई की नई पद्धति विकसित की, जिससे सिंचाई का खर्च 50 फीसदी कम हो गया। खेती के लिए उनकी नई खोजों से गन्ना, मसूर और अरहर दाल की पैदावार बढ़ाने में सफलता मिली। इंटरक्रॉपिंग और गन्ने की रोपाई के उनके प्रयोगों को 100 दूसरे किसान भी अपना चुके हैं। खान के प्रयोगों से खेती की लागत में कमी आई और कीटों का प्रकोप भी कम हुआ।

हादी खान कहते हैं कि उनके क्षेत्र में गन्ने की पैदावार होती है। उन्हें गन्ने के खेतों में नए प्रयोग करने के लिए कृषि विज्ञान केंद्र से प्रेरणा मिली। इसके अलावा लखनऊ और शाहजहांपुर के गन्ना अनुसंधान संस्थानों से भी उन्हें काफी मदद मिली। उन्होंने गेहूं की आड़ी-टेढ़ी मेड़ बनाकर दोहरा फायदा पाने का सफल प्रयोग किया। गन्ने की अधिकतम 2,941 क्विंटल प्रति हैक्टेयर पैदावार प्राप्त करके राज्य में पहला स्थान प्राप्त किया। इस तरह से गन्ने के खेतों में बागवानी फसलें भी उगाई जा सकती हैं। खान कहते हैं कि उनके इस प्रयोग से सैकड़ों किसानों को प्रेरणा मिली है। उनके खेतों में इस प्रयोग को देखने के लिए पूरे जिले और आसपास के क्षेत्रों से आने वाले किसानों का तांता लगा रहता है। वे चाहते हैं कि किसान उनके इस अनूठे प्रयोग को अपनाएं। वे किसानों को इसके लिए सलाह भी देते हैं। उनका अनुमान है कि अब तक वे करीब दो हजार किसानों को इसकी जानकारी दे चुके हैं।

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श्रेष्ठ कृषि विज्ञान केंद्र

 

जैविक खेती से पौ बारह

झारखंड में रांची के रामकृष्‍ण मिशन आश्रम के कृषि विज्ञान केंद्र ने जैविक खेती और देसी पशुओं की वृद्घि में अनोखा प्रयोग किया है जिससे, बकौल मिशन के चेयरमैन डॉ. भवेशानंद, अंगड़ा ब्लॉक के धुरलेटा गांव में जैविक खेती का जो प्रयोग हुआ, उसकी विस्तृत कथा अब समूचे रांची जिले और पूरे राज्य में लिखी जा रही है। उनके मुताबिक, मिशन का लक्ष्य है कि 2028 तक समूचे झारखंड में पूरी तरह जैविक खेती ही हो। इसके लिए मिश्‍ान किसानों के बीच जागरूकता अभियान भी चलाता है और उन्हें प्रशिक्षण भी देता है। वे कहते हैं, “प्रशिक्षण के बाद जिन किसानों ने जैविक खेती को अपनाया, उनकी लागत 25 फीसदी कम हो गई।”

विज्ञान केंद्र स्थानीय उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल के खिलाफ भी जागरूकता अभियान चलाता है। भवेशानंद के मुताबिक, जागरूकता बढ़ने के साथ जैविक अनाज की मांग भी बढ़ रही है। किसानों को उनकी जैविक उपज का 10 से 20 फीसदी ज्यादा मूल्य मिलने लगा है। यह प्रयोग जिले के सभी 1,300 गांवों के लिए बेहद उपयोगी साबित हो रहा है। विज्ञान केंद्र से हर साल करीब 5,000 से 7,000 किसानों को ट्रेनिंग मिलती है।

वरिष्ठ वैज्ञानिक और विज्ञान केंद्र के प्रमुख डॉ. अजीत कुमार सिंह कहते हैं कि केवीके ने झारखंड की मुरकू और तुलसी मुकुल सुगंधित धान की मूल किस्म को डेढ़ साल पहले फिर से पैदा किया। आज 8,000 किसान खेती कर रहे हैं। सामान्य धान 1,200 रुपये बिकता है, जबकि केवीके इन किस्मों का धान 2,500 रुपये प्रति क्विंटल के भाव पर खरीद रही है। दावा यह भी है कि गरीब किसानों के लिए एटीएम मानी जाने वाली ब्लैक बंगाल किस्म की बकरी का प्रसार बढ़ाकर किसानों का आर्थिक उत्थान किया है। 20-22 किलो की बकरी बाजार में 10,000 रुपये में आसानी से बिक जाती है।

श्रेष्ठ कृषि विज्ञान केंद्र

 

किसानों को बताए कॉमर्शियल खेती के फायदे

मध्य प्रदेश का मुरैना पिछड़े जिलों में गिना जाता है। लेकिन वहां के केवीके ने इस जिले की कृषि क्षेत्र की ताकत पहचानी और नए प्रयोग से किसानों के जीवन में बदलाव लाने में सफलता पाई। केवीके के प्रिंसिपल साइंटिस्ट और प्रमुख डॉ. सत्येंद्र पाल सिंह कहते हैं कि मधुमक्खियां प्राकृतिक रूप से परागण करती हैं। इस क्षेत्र में बाहर से मधुमक्खी पालक सरसों की फसल के समय मधुमक्खियों की कॉलोनियां यानी बॉक्स लेकर आते थे और परागण करते थे और शहद का उत्पादन करते थे। किसानों को भ्रम था कि इससे मधुमक्खियां सरसों खेत की ताकत खींच ले जाती हैं। लेकिन केवीके ने किसानों को जागरूक किया और समझाया कि इससे फसल को फायदा होता है। वे खुद भी मधुमक्खी पालन करके फसल की उत्पादकता बढ़ा सकते हैं और शहद और मोम का उत्पादन कर सकते हैं।

इससे सरसों और दूसरी फसलों में परागण की प्राकृतिक प्रक्रिया तेज हुई और फसलों को फायदा हुआ। मधुमक्खी पालन से केवीके ने जैविक तरीके से पैदावार बढ़ाने की पहल की। फसलों की पैदावार बढ़ी और शहद, मोम के उत्पादन से किसानों को आय का एक और साधन मिल गया। चंबल क्षेत्र में सरसों के अलावा तिल, चना, अरहर में महंगे उर्वरकों की खपत घट गई।

केवीके ने 2007-08 में काम शुरू करके हजारों किसानों को जागरूक बनाया। मधुमक्खी के एक बॉक्स से साल भर में छह से आठ हजार रुपये की आय होती है। जिले में हर साल शहद उत्पादन से किसानों को 26 करोड़ रुपये की आय होती है। अरहर की पैदावार 15.62 फीसदी और सरसों की 26.66 फीसदी बढ़ गई। ढाई लाख किसानों को प्रशिक्षण दे चुका केवीके मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के जिलों में भी प्रशिक्षण दे रहा है।

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श्रेष्ठ फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशन

 

देवास में 4,500 किसानों के जीवन में खुशहाली

रामरहीम प्रगति प्रोड्यूसर कंपनी लि. की प्रमुख चिंता बाई तिरनाम कहती हैं कि उनके एफपीओ से 4,500 किसानों का आर्थिक सशक्तिकरण हो रहा है। यह किसान 304 स्वयं सहायता समूहों से जुड़े हैं। उनका कहना है कि मध्य प्रदेश के देवास में उनका एफपीओ बेहद सफल रहा है। एफपीओ ने पिछले साल पांच करोड़ रुपये का कारोबार किया था। इस साल कारोबार बढ़कर 6 करोड़ रुपये होने की संभावना है। एफपीओ के सीईओ रजत तोमर कहते हैं कि उत्पादक किसानों से गेहूं, तुअर, मक्का और चना सहित कई फसलों की खरीद की जाती है। किसानों को समझाया जाता है कि वे अपनी उपज की सफाई और छंटाई करके दें, तो उन्हें अच्छी कीमत मिलेगी। एफपीओ की कोशिश होती है कि जहां तक संभव हो, उपज की सफाई, छंटाई और प्रोसेसिंग करके दी जाए। हैदराबाद की कंपनी सेफ हार्वेस्ट प्रा. लि. उनकी अधिकांश उपज खरीद लेती है। एफपीओ जल्दी ही मध्य प्रदेश के मशहूर गेहूं का आटा अपने ब्रांड के तहत लाने की तैयारी में है। एफपीओ में 304 स्वयं सहायता समूह के सदस्य शेयरधारक हैं। यह संगठन किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने के अलावा बोनस भी देता है। इस साल उसने स्वयं सहायता समूहों के 2,500 सदस्यों से 13,000 क्विंटल उपज की खरीद करके आपूर्ति की। रामरहीम पहली प्रोड्यूसर कंपनी है जिसे स्मॉल फार्मर एग्रीकल्चर कंसोर्टियम के तहत कृषि मंत्रालय से इक्विटी ग्रांट मिली। वह एनसीडीईएक्स में सूचीबद्ध होने वाली पहली फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी भी है। इससे उसके सदस्यों को ऑनलाइन कमोडिटी एक्सचेंज पर अपनी उपज बेचने की सुविधा मिली है।

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संयुक्त प्रयास नारियल उत्पादकों के लिए वरदान

वेलियनगिरि उझावन प्रोड्यूसर कंपनी के चेयरमैन टी. कुमार कहते हैं कि नारियल उत्पादकों के लिए यह संयुक्त प्रयास वरदान साबित हुआ है। पहले उत्पादकों को नारियल की तुड़ाई के लिए मजदूर जुटाने की मशक्कत करनी पड़ती थी। लेकिन अब एफपीओ के पास खुद के मजदूर रहते हैं। एफपीओ खुद ही सदस्य उत्पादकों के पेड़ों से नारियल तुड़ाई का कैलेंडर तैयार रखती है। एफपीओ उत्पादक के पास अपनी ओर से ही नारियल तोड़ने के लिए मजदूर निर्धारित तारीख पर भेज देती है। पहले किसानों को एक रुपया प्रति नारियल तुड़ाई देनी पड़ती थी, लेकिन अब सिर्फ दस पैसे लगते हैं।

एफपीओ के को-ऑर्डिनेटर आर. वेंकट रासा का कहना है कि पहले नारियल संख्या में बिकते थे। इससे गिनती में गड़बड़ी करके व्यापारी किसानों को धोखा देते थे। नारियल छोटा बताकर भी कीमत घटा देते थे। एफपीओ ने तौल से नारियल बेचना शुरू किया है। इससे भी किसानों को फायदा हुआ। नारियल के ऊपर की जटा का खोल निकालकर भी कोपरा बेचा जाता है। इससे भी किसानों की आमदनी बढ़ी, क्योंकि वे जटा का खोल अलग से बेच सकते हैं। एफपीओ से कोयंबत्तूर के टोंडा मुत्थुर ब्लॉक के 53 गांवों के 1,063 किसान जुड़े हैं जिन्हें फायदा मिल रहा है। किसानों को पांच दिन में भुगतान मिल जाता है। उनकी आमदनी में 20-30 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। एफपीओ सुपारी, सब्जियां, हल्दी और केला उत्पादकों के लिए भी काम करती है। उपज की बिक्री से संगठन की आय बढ़ रही है। उसका कारोबार वर्ष 2016-17 में 2.37 करोड़ रुपये था जो 2017-18 में बढ़कर 7.86 करोड़ रुपये हो गया। वर्ष 2018-19 में कारोबार बढ़कर 11.88 करोड़ रुपये हो गया। इस साल कारोबार 15 करोड़ रुपये तक पहुंचने की संभावना है।

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श्रेष्ठ एग्रीकल्चर टेक्नोलॉजी स्टार्टअप

उपज की पुष्ट गुणवत्ता पर ही मिलेगी वाजिब कीमत

एग्रीकल्चर नेक्स्ट के सीईओ तरनजीत सिंह भामरा कहते हैं कि हरियाणा रोडवेज की बसों में भ्रमण करने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि पांच-छह महीनों की कड़ी मेहनत के बाद किसानों की उपज की कीमत का निर्धारण अवैज्ञानिक और मनमाने गुणवत्ता आकलन के आधार पर होता है। खरीदार व्यापारी एक-दो मिनट में उपज की गुणवत्ता खराब बताकर कीमत घटा देते हैं। इस बिंदु पर उन्हें आइआइटी और आइआइएम की उच्च शिक्षा और यूरोप में अपना शानदार करिअर छोड़कर स्टार्टअप शुरू करने का आइडिया मिल गया। चुनौती थी कि किसान जब फसल बेचने के लिए बाजार में जाएं, उस समय गुणवत्ता के बारे में तुरंत भरोसेमंद रिपोर्ट मिल जाए। यहां पर उन्होंने तकनीक और आइटी का सहारा लिया। उनकी कंपनी ने कई उपकरण और डिवाइस तैयार किए हैं जो एआइ और एल्गोरिदिम का इस्तेमाल करके उपज की क्वालिटी के बारे में भरोसेमंद रिपोर्ट तुरंत दे सकती हैं। कृषि उपज के अलावा दूध के तत्वों की जांच करके तुरंत पता लगाया जा सकता है कि दूध में फैट और सीएनएफ कितनी मात्रा में हैं। यह भी तुरंत पता चल जाता है कि दूध में पाम ऑयल, यूरिया और डिटर्जेंट जैसे मिलावटी तत्व तो नहीं मिले हैं। भामरा कहते हैं कि उनके उपकरण खरीदारों के लिए उपज की गुणवत्ता सुनिश्चित करते हैं। इसके साथ ही किसानों को अपनी उपज की भरोसेमंद जानकारी भी मिलती है। सिर्फ अनुमान के आधार पर उपज को कोई खराब नहीं बता सकता है। अभी उनके उपकरण कृषि उपज खरीदने वाली कंपनियां खरीद रही हैं। वे चाहते हैं कि क्वालिटी जांच में पारदर्शिता और विश्वसनीयता लाने के लिए इन उपकरणों का ज्यादा इस्तेमाल किया जाए। उन्होंने 2016 में एग्रीकल्चर नेक्स्ट की स्थापना की थी। किसान विश्वसनीय रिपोर्ट के आधार पर प्रमाणित गुणवत्ता के अनुसार अपनी उपज की उचित कीमत मांग सकते हैं। कंपनी अपने क्लाउड बेस्ड एप्लीकेशन के लिए कई तरह के उपकरण और टूल्स का इस्तेमाल करती है, जिनसे क्वालिटी का तुरंत पता लग सकता है।