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नए कृषि कानूनों में सुधार की जरूरत, तभी होगा किसानों का हित
नए कृषि कानूनों में सुधार की जरूरत, तभी होगा किसानों का हित

नए कृषि कानूनों में सुधार की जरूरत, तभी होगा किसानों का हित

दिनेश कुलकर्णी

वैश्विक महामारी कोरोना के समय में केन्द्र सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में सुधार करने के नजरिये से 3 अध्यादेश 5 जून 2020 को लाए गये। और सभी विधेयकों को सितंबर में संसद के मानसून सत्र में पारित करवा कर उसे कानून का रूप भी दे दिया गया। लेकिन नए कानूनों पर देश भर में, खास तौर से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में किसान संगठनों का विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया है। विरोध करने वालों में कृषि उपज मंडी में काम करने वाले आढ़ती, मजदूर भी शामिल हैं। इसके अलावा विपक्षी दल भी कृषि संगठनों के विरोध में शामिल हो गए हैं। विरोध करने वालों के के कारण भी अलग-अलग हैं।

वैसे देखा जाय तो कृषि में सुधार करने की बात भारत में उदारीकरण व्यवस्था लागू करने के समय से ही चल रही है । कृषि पर विश्व व्यापार संगठन में इन्ही मुद्दों को लेकर चर्चा हो रही थी। और उस समय भारत ने सुधारों के विरोध में अपनी दृढ़ता दिखाई थी। देश में किसान की हमेशा से उपेक्षा होती रही है। वैसे तो पूरे देश की खेती से बहुत अपेक्षाएं हैं, किन्तु किसान के प्रति सरकारों का रवैया भेदभावपूर्ण ही रहा है। जब देश में अनाज की कमी थी तब लेवी और आवश्यक वस्तु अधिनियम जैसे अनेक प्रतिबंध किसान पर लगाएं जाते रहे हैं। हम यह मान सकते है कि जब देश में अनाज की कमी थी तब इस तरह की सख्ती ठीक थी। आज देश में अनाज रखने की जगह नही है तो ऐसे समय में 1955 में बनाए गए आवश्यक वस्तु अधिनियम को 2020 में बनाए रखने की क्या आवश्यकता है, यह सोचने वाली बात है ?

कृषि संबंधित विषय राज्यों के अधीन आते हैं। इस कारण राज्य सरकारों ने कृषि उपज मंडी कानून जैसे उपायों के जरिए किसान को राहत देने का प्रयास किया। किन्तु धीरे-धीरे यह कानून ही किसानों के शोषण का कारण बनने लगे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इन कानूनों से एकाधिकार की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। इस वजह से किसान पर पाबंदी आनी शुरू हो गईं। ऐसा करने में राज्य सरकारें भी पीछे नहीं रहीं। किसान को अपनी उपज अपने ही तहसील में बेचने के लिए बाध्य कर दिया गया । हालांकि इस बीच 1987 में राजस्थान में किसान संघ ने जीरा व्यापार को लेकर लगे प्रतिबंध के विरोध में आंदोलन कर दूसरे राज्य में बेचने के अधिकार भी प्राप्त किया था। किसान का भला केवल सरकार ही कर सकती है इस सोच से महाराष्ट्र में कपास एकाधिकार जैसी योजना लाई गई। जिसका किसान संघ ने विरोध किया था और कपास खुले बाजार में बेचने की मांग की थी।

देश भर के किसानों की एक ही प्रमुख मांग रही है की उनको लागत के आधार पर उपज का लाभकारी मूल्य मिले। इसी समस्या को देखते हुए स्वामीनाथन आयोग ने भी दुखती रग पर मलहम लगाते हुए समर्थन मूल्य डेढ़ गुना करने की अनुशंषा की। इस बीच अनेक सरकारें आई और गई किन्तु सरकारों ने आयोग की सिफारिशों को घोषणापत्र तक ही सीमित रखा।

जब 2003 में कृषि उपज मंडी में सुधार की बात आई तो अनेक राज्यों ने हाथ खड़े कर दिए। और बिहार सरकार ने तो मंडियों को खत्म करके किसानों को निजी व्यापारियों के दया पर छोड़ दिया। आज बिहार का किसान अपनी मक्का की फसल को समर्थन मूल्य के आधे दामों पर बेचने पर मजबूर है। महाराष्ट्र में निजी मंडियों की अनुमति मिली किन्तु उसका कोई खास असर अभी तक देखने को नहीं मिला है।

इन कवायदों के बीच अचानक महमारी के दौर में केंद्र सरकार, कृषि से संबंधित तीन कानूनों को बिना किसी से चर्चा किए लेकर आ गई। इस कठिन दौर में ऐसी कौन सी जरूरत आन पड़ी थी, कि सरकार ने यह कदम उठा लिया, यह समझ से परे है। इसे लाना ही था तो सभी संबधित पक्षों से चर्चा कर लेनी चाहिए थी। सरकार का यह रवैया ठीक नहीं था। उसी का परिणाम है कि उसे अब विरोध झेलना पड़ रहा है। सरकार के लिए नए कृषि कानून “आ बैल मुझे मार” जैसे हो गए हैं।

जहां तक किसान संघ की बात है ,वह शुरू से प्रतिस्पर्धात्मक स्वस्थ बाजार के पक्ष में रहा है। किसान संघ का मानना है की यदि सुचारू रूप से सरकारी, निजी मंडी चलती रहें और सरकारी खरीद होती रहे तो किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य मिल जाएगा। किन्तु इसके लिए समर्थन मूल्य से नीचे किसी भी जगह खरीद न होने का कानून लाया जाना जरूरी है। क्योंकि  हकीकत यह है कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य तभी मिलता है, जब सरकार उसकी खरीद करती है। बाकी समय किसानों का बाजार में शोषण ही होता है। मौजूदा समय में सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का लाभ देश भर के केवल 6 % किसानों को ही मिल रहा है। ऐसे में नए कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य का आश्वासन नहीं होना ही, किसान के लिए चिंता का विषय है। इसी वजह से किसान सड़क पर है। क्योंकि उसके मन में आशंका है की सरकार समर्थन मूल्य पर आगे चल कर खरीद नहीं करगी। इसलिए उसका डर दूर करने के लिए सरकार को सफाई देनी पड़ रही है।

निश्चित तौर पर “एक देश एक बाजार” अच्छी संकल्पना है किन्तु इसमें व्यापारियों पर कुछ भी अंकुश नही है। नए कानून में जिस व्यक्ति के पास पैन कार्ड होगा, वह किसान से फसल खरीद सकेगा। यह प्रावधान तो किसान को ले डूबेगा।

आज ऐसी अनुमति नहीं होने के बावजूद बहुत से ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जब व्यापारियों ने किसानों से खरीद कर के उनके पैसे नहीं दिए। हिमाचल प्रदेश में सेब के किसान, महाराष्ट्र में अंगूर और प्याज के किसान और मध्य प्रदेश में संतरे के ऐसे बहुत से छोटे किसान हैं, जिनके साथ यह धोखा हर वर्ष होता रहता है । और किसान अपनी किस्मत को कोसते हुए हाथ मलते हुए रह जाता है । इस लिये पैन कार्ड की नई व्यवस्था में भले ही लाइसेंस राज नहीं है, लेकिन बैंक गारंटी के साथ-साथ पंजीकरण की व्यवस्था जरूर होनी चाहिए। अगर ऐसा होता है तो किसान का डर कम होगा और उसे भरोसा होगा कि उसके फसल की खरीद करने वाला व्यक्ति धोखेबाज नही है।

इन दोनों नए कानूनों में विवाद समाधान के लिये वही पुरानी ,घिसे-पिटे तरीके का प्रावधान  है। जिसे राजस्व विभाग के अधीन ही रखा गया है ,जो किसान को समय से न्याय नहीं दे सकता। इस व्यवस्था को बदल कर, विवादों के लिये एक स्वतंत्र कृषि न्यायालय की व्यवस्था बनाए जाने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो किसान को समय पर न्याय नहीं मिल पाएगा। जो उसके साथ अन्याय ही होगा।

आवश्यक वस्तु अधीनियम-1955 में सुधार की आवश्कता किसान भी समझ रहा था। ऐसा इसलिए है कि साल 1955 में होने वाले कृषि उत्पादन और 2020 में होने वाले उत्पादन में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है। राजनीतिक हितों के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम का किसानों की बलि चढ़ाकर कई दुरूपयोग हो चुका है। कानून के दुरूपयोग का एक और उदाहरण हाल में प्याज के निर्यात पर लगाए गए प्रतिबंध के रूप में दिखता है। नए कानून उस वक्त अध्यादेश के रूप में लागू थे। उसके बावजूद बिहार के चुनाव को देखते हुए यह फैसला लिया गया। इसके लिए कृषि मंत्रालय से बात तक नहीं की गई। केवल उपभोक्ता मंत्रालय की सिफारिश पर प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का फैसला कर लिया गया। जबकि कीमत नियंत्रित करने के लिए न्यूनतम निर्यात मूल्य बढ़ाया जा सकता था। नए कानून में तो निर्यातको पूरी तरह से छूट मिल गई है। ऐसे में यह तो उपभोक्ताओं के लिए शोषणकारी हो सकता है। इसमें सुधार की आवश्यकता है।

हमारे देश में हर बात पर राजनीति होती है। किसी भी मुद्दे पर दो ही मत हो सकते हैं, तीसरा कोई रास्ता भी हो सकता है। इसका विचार न तो सत्ता पक्ष करता है और न ही विपक्ष करता है। सरकार का दावा है कि नए कानून किसान की मुक्ति का मार्ग हैं। जबकि विपक्ष का कहना है, नए कानून किसान को पूरी तरह से बर्बाद कर सकता है। मगर इन दोनों दावों में आधा सच और आधा झूठ है। सुझावों को मानकर सरकार कानून में सुधार कर किसानों का हित कर सकती है। लेकिन ऐसा करने के लिए उसे लचीला रूख अपनाना पड़ेगा। लेकिन अगर वह अपने हठ पर अड़ी रहेगी तो उसे आए दिन सफाई देनी पड़ेगी कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद करती रहेगी। लेकिन न्यूनतम समर्थम मूल्य पर खरीद केवल सरकार ही क्यों करे, अगर सरकार, वाकई किसानों का भला चाहती हैं तो उसे कानून बनाना चाहिए कि पूरे देश में कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य के नीचे खरीद नही होगी। तभी किसानों के हित सधेंगे। किसानों की इसी आशंका को दूर करने के लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें बार-बार न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म नहीं होने का आश्वासन दे रहे हैं। लेकिन यह बोझ अकेले सरकार क्यों उठाएं ? क्योंकि सरकार द्वारा खरीद के बावजूद भी न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा केवल 6 फीसदी किसानों को ही मिल पा रहा है। ऐसे में अगर सरकार किसानों का सही मायने में हित करना चाहती है तो उसे आगे आकर यह कानून बनाना चाहिए कि देश भर में केवल सरकारी ही नहीं निजी क्षेत्र में किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य के नीचे खरीद नहीं होगी। ऐसा करने से ही किसान का हित होगा।

(लेखक आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ के अखिल भारतीय संगठन मंत्री हैं)