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सोसायटी और समाज के बीच ऊंची होती दीवार

महागुन सोसायटी में जो कुछ घटित हुआ उसने गेटेड सोसायटी और उनके बाहर बसी झुग्गी बस्तियों के बीच बढ़ते अलगाव और टकराव को तो उजागर किया ही, साथ ही घरेलू सहायिकाओं के साथ होने वाले बर्ताव की तरफ भी हमारा ध्यान खींचा है।
सोसायटी और समाज के बीच ऊंची होती दीवार

किसी न किसी स्तर पर हरेक समाज विभाजित होता है। कई समाज वर्ग के आधार पर तो कई नस्ल या लिंग के आधार पर बंटे हैं। इनसे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए दक्षिण एशियाई देशों में जातिगत भेदभाव भी होता है। लेकिन पिछले दिनों नोएडा के सेक्टर 78 की महागुन सोसायटी में जो कुछ हुआ, वह शहरी भारत में ऊंची दीवारों और लोहे के विशालकाय दरवाजों के दोनों ओर पैदा हुए अविश्वास को व्यक्त करता है। 

पुलिस के मुताबिक, महागुन सोसायटी पर घरों में काम करने वाली जोहरा बीबी नामक महिला की गुमशुदगी का आरोप लगाते हुए करीब 300 लोगों की भीड़ सोसायटी के गेट पर आ धमकी। सोसायटी के लोगों का कहना है कि झुग्गी बस्ती के इन लोगों ने पथराव किया और गाली-गलौच करते हुए तोड़फोड़ भी की। बाद में वह गुमशुदा महिला बेसमेंट में छिपी हुई मिली। उसके शरीर पर चोट के निशान मिलने की बात भी सामने आई है। जिस घर में वह काम करती थी, उस परिवार ने जोहरा पर चोरी का आरोप लगाया है। परिवार का कहना है ‌कि इसकी शिकायत उन्होंने सोसायटी प्रबंधन से करने का फैसला किया था। इसी दौरान संभवत: नौकरी खोने और पुलिस में शिकायत के डर से ही वह घरेलू सहायिका गायब हो गई। बहरहाल, इस घटना की पूरी सच्चाई पुलिस की जांच का विषय है, लेकिन इससे आधुनिक शहरी भारत में गहराते वर्गभेद और तनाव की घटनाओं को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशों पर गंभीर सवाल उठते हैं। 

रोजमर्रा की जिंदगी में विभिन्न तरह के शोषण और अन्याय से पैदा कुंठा और अलगाव का सबसे ज्यादा सामना समाज में सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों को करना पड़ता है। घरों में काम करने वाली महिलाओं और मामूली काम-धंधे करने वाले लोगों को अक्सर जिस तरह के अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ता है, वह समाज में घटती सामाजिकता को दर्शाता है। पारस्परिक निर्भरता के बावजूद इन मेहनतकश लोगों को सामाजिक सुरक्षा और सम्मान मिलना तो दूर अक्सर संदेह और हिकारत की नजर से देखा जाता है। जबकि समाज के हर वर्ग और समुदाय में अच्छे-बुरे सभी तरह के लोग होते हैं। फिर भी क्या वजह है कि ज्यादातर पढ़े-लिखे और सभ्रांत लोग भी आपसी बातचीत में घरेलू सहायिकाओं, ड्राइवरों और मजदूरों पर झूठे, मक्कार और खतरनाक होने का लेबल चिपका ही देते हैं। जबकि शहरों में कामकाजी महिलाओं ही नहीं बल्कि कामगार पुरुषों पर भी निर्भरता बहुत ज्यादा है।

आज महानगरों में महिलाएं घर से निकलकर नौकरी कर पा रही हैं तो इसमें बहुत बड़ा हाथ इन घरेलू सहायिकाओं का भी है जिन्हें हम कामवाली या बाई कहते हैं। बेशक अपने नौकरों-चाकरों से अच्छा बर्ताव करने वाले लोगों की भी कमी नहीं है। लेकिन शहर की आलीशान इमारतों के भीतर और बाहर रहने वाले लोग संघर्ष करते हुए आमने-सामने आ जाएं तो सोचने की जरूरत है कि कहीं कुछ तो है जाो सड़ रहा है। अब खबरें आ रही हैं कि सोसायटी में कई घरेलू कामगारोंं के प्रवेश पर रोक लगा दी गई है तो दूसरी तरफ कामगारों ने भी सोसायटी में काम करने से मना कर दिया है। हमारे बीच बढ़ते अविश्वास और सामाजिक अलगाव का यह नया उदाहरण है।  

अच्छी कामवाली, होशियार छोटू या बढ़िया ड्राइवर के लिए परेशान होते लोग आपको अक्सर मिल जाएंगे। इस परस्पर निर्भरता और भरोसे की बुनियाद पर ही शहरों का निर्माण हुआ है। महागुन सोसायटी में जो कुछ घटित हुआ उसने गेटेड सोसायटी और उनके बाहर बसी झुग्गी बस्तियों के बीच बढ़ते अलगाव और टकराव को तो उजागर किया ही, साथ ही घरेलू कामगारों के साथ होने वाले बर्ताव की तरफ भी हमारा ध्यान खींचा है।

कई सोसायटियों में नौकरों के लिफ्ट इस्तेमाल करने पर पाबंदी है तो कई जगह उनके आने-जाने के रास्ते अलग कर दिए गए हैं। मेहनतकश मजदूरों को रोजाना किस प्रकार के मानसिक आघात और अलगाव का सामना करना पड़ता है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। यह सब ग्रामीण भारत में होने वाले सामंती और जातिगत भेदभाव का ही शहरी आयाम है, जिसे आलीशान अपार्टमेंट्स के भीतर बेहद कायदे से पाला-पोसा जा रहा है।

गौर कीजिए कैसे शहरों में मुस्लिम समुदायों को किराए पर मकान मिलना मुश्किल हो गया है। कैसे उत्तर-पूर्व के लोगों को नस्लीय टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है। याद कीजिए कैसे कुछ दिनों पहले घरेलू काम के लिए 'छोटू' उपलब्ध कराने वाला ऐप बाजार में अा गया था। पहले से ही कई स्तरों पर विखंडित समाज अगर नोएडा विवाद के बाद कामवाली का बांग्लादेशी मूल खोज लाया तो इसमें कोई ताज्जुब नहीं है। वैसे भी घरेलू कामगारों की सेवा शर्तों, सामाजिक सुरक्षा, न्यूनतम वेतन और मानवाधिकार जैसे मुद्दों को हाशिए पर धकेलने का माद्दा सांप्रदायिकता में ही है।   

 (लेखिका अंबेडकर युनिवर्सिटी, दिल्ली में अस्सिटेंट प्रोफेसर हैं )

 

 

 

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