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मोदी सरकार के लिए नए आतंकी मोर्चे का पाठ

27 जुलाई, 2015 दो झटके लेकर आया। पंजाब के गुरदासपुर में आतंकी हमला और पूर्व राष्ट्रपति 'मिसाइलमैन’ अब्दुल कलाम का निधन। कलाम का जाना एक दौर का अवसान था जबकि गुरदासपुर हमले की घटना आतंक के एक नए मोर्चे की शुरुआत।
मोदी सरकार के लिए नए आतंकी मोर्चे का पाठ

मीडिया कवरेज या सामाजिक मीडिया शोर के लिए कलाम का विनम्र जीवन एक खुली किताब था जिससे आम और प्रबुद्ध जन अपनी सहमति या असहमति के बिंदु आसानी से चुन सकते थे। जबकि गुरदासपुर की घटना के कई पक्षों पर हर आतंकवादी घटना और सुरक्षा एजेंसियों की कार्रवाई की तरह गोपनीयता का एक आवरण पड़ा है। मसलन, मृतकों की संख्या के बारे में भी शुरुआती घंटों और दिनों में एक संशय बना रहा। दावे के साथ किसी ने अधिकृत तौर पर यह नहीं कहा कि हमलावरों सहित कुल सात मारे गए या 10 या 12 या तेरह। इनमें से सभी संख्याएं आईं।

गृह मंत्रालय से जीपीएस डाटा के आधार पर बताया गया कि हमलावर पाकिस्तान में शकरगढ़ के पास घरोटा से रवाना होकर पास में रावी नदी पार कर भारतीय पंजाब में बामियाल होते हुए पैदल तथा बस से यात्रा कर दीनानगर पहुंचे। दो जीपीएस सेट हमलावर अपने साथ लाए थे। तीन हमलावरों ने सुबह साढ़े पांच बजे दीनानगर पुलिस थाने पर हमला बोला। साढ़े बारह घंटे पंजाब पुलिस और स्वाट टीम के साथ चली उनकी मुठभेड़ में अन्य हताहतों के साथ गुरदासपुर के पुलिस अधीक्षक बलजीत सिंह भी खेत रहे। अंत में तीनों हमलावर भी मारे गए। वे भारतीय सेना की वर्दी में थे और उनके पास अत्याधुनिक हथियार थे। गृह मंत्री ने एक बयान जारी कर कहा कि हमलावरों में कोई सिख या महिला नहीं थी। इस आशय की खबरें कुछ मीडिया आउटलेट्स पर चली थीं, जिनके जवाब में गृह मंत्री ने यह कहा था।

उपरोक्त आधिकारिक जानकारियों के अलावा बाकी सबकुछ रहस्य की धुंध में लिपटा है या प्राप्त जानकारियों के आधार पर निजी विश्लेषण, बनाई गई राय अथवा अनुमान है। मसलन यही कि भारतीय सेना की वर्दी में होना इस बात का सबूत है कि हमलावर लश्करे तैयबा के थे क्योंकि लश्कर के दहशतगर्द कश्मीर में भारतीय फौज की वर्दी का इस्तेमाल करते हैं। सभी जानते हैं कि लश्कर के अलावा कश्मीर और देश के अन्य गुटों के लड़ाके भी सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस की वर्दी का इस्तेमाल करते हैं। जैसे पूर्वोत्तर के अलगाववादी और मध्य भारत के नक्सली। हो सकता है, सुरक्षा एजेंसियों के पास गुरदासपुर के हमलावरों के लश्करे तैयबा से संबंधों के अन्य ज्यादा प्रामाणिक सबूत हों, जिन्हें वह अभी साझा नहीं करना चाहती हों, लेकिन सिर्फ वर्दी के आधार पर मीडिया में यह प्रचार कि वे लश्कर के ही थे, किसी अन्य गुट के नहीं, हास्यास्पद है। यह अंतरराष्ट्रीय जनमत के सामने गुरदासपुर वारदात में पाकिस्तानी हाथ के भारतीय दावे को किंचित प्रश्नांकित ही करेगा। वास्तविकता यह है, जिसकी ताकीद सुरक्षा एजेंसियों के विश्वस्त सूत्र भी करते हैं, कि मारे गए हमलावरों की शिनाख्त इन पंक्तियों के लिखने जाने तक नहीं हो पाई थी। उनके प्रशिक्षण, उन्हें हथियार मुहैया कराने वाले स्रोत, उनके प्रायोजक और उन प्रायोजकों से उनके संचार-संपर्क के साधन और तरीके भी रहस्य बने हुए थे।

खैर, जो चीजें नहीं मालूम, वे शायद आने वाले दिनों में खुलें। फौरी तौर पर एक अनुमान जरूर किया जा सकता है: सवा साल से कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते राजनयिक और सामरिक तनाव एवं झड़पों को देखते हुए, जिसके बीच-बीच में पुन: वार्ता की संधिग्ध पहलें भी हुई हैं, पाकिस्तानी फौजी प्रतिष्ठान को इसमें अपना हित लग सकता है कि भारत के साथ अशांति का एक नया मोर्चा पंजाब में खोले। हालांकि 2012 में कश्मीर में बगावत के फिर तेज होने के पहले वहां शांति के बढ़ते माहौल से हताश पाकिस्तान ने अपने मकसद के लिए पंजाब की ओर देखना शुरू कर दिया था। सन 2009 में ऑपरेशन ब्लू स्टार की 25 वीं बरसी से शुरू करके पाकिस्तान अपने यहां अलगाववादी खालिस्तानियों की उग्र बयानबाजी वाले प्रदर्शनों को खुले आम प्रश्रय और मंच देता रहा है। सन 2012 में इन पंक्तियों के लेखक ने खुद लाहौर के पुलिस मुख्यालय के पास एक प्रमुख चौराहे पर 25 जून को उग्र खालिस्तानियों का ऐसा एक धरना देखा था जिसमें इस्लामी दक्षिणपंथी गुटों के कुछ मौलाना भी शरीक थे। सन 1984 में भारत में सिखों के कत्लेआम या स्वर्ण मंदिर के ऑपरेशन ब्लू स्टार के खिलाफ किसी को भारत के बाहर भी शांतिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार है। लेकिन लाहौर के धरनार्थियों की बयानबाजी और पर्चों की हिंसात्मक भाषा चिंतनीय थी। 'भूलेंगे कभी नहीं, माफी कभी नहीं, खून का बदला खून’ जैसे नारे चिंताजनक थे।

अगर पंजाब में पाकिस्तानी फौजी तंत्र नया मोर्चा खोलने को उद्धत हो रहा है, तो क्या भारत में भी ऐसी राजनीतिक, सामाजिक दरारें हैं जिनका लाभ उठाने की संभावना उसे इस दिशा में प्रेरित कर रही हैं। ऐसी एक दरार इस जून में साफ दिखी जब कश्मीर में बगावत और सीमा पर भारत-पाक गोलीबारी के प्रसंग में भड़के उग्र हिंदुत्ववादी राजनीतिक माहौल में एक उग्र सिख प्रतिक्रिया हुई जब पुलिस ने 1984 में मारे गए उग्रवादी खालिस्तानी भिडरांवाले के पोस्टर दीवारों से उतारे। यह दरार पंजाब में पिछले साल भर साफ दिख रही थी जब खालिस्तान के प्रति हमदर्दी रखने वाले गुट सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के वरिष्ठ सहयोगी अकाली दल की मुलायम नजरों तले खालिस्तानी नारों, पर्चों वाली सभाएं करने लगे। पंजाब सरकार ने बेअंत सिंह के हत्यारे आतंकी बलवंत राजोआना को फांसी की सजा का मामला मानवीय से ज्यादा राजनीतिक बना दिया और देश के विभिन्न हिस्सों में बंदी खालिस्तानी उग्रवादियों को पंजाब लाने की कोशिशें शुरू कर दीं।

पंजाब में कथित विस्फोटक होते जा रहे माहौल के बारे में खुफिया रिपोर्टों का जिक्र करती मीडिया रिपोर्ट आने लगीं। विदेशों, खासकर पश्चिमी देशों में, खालिस्तानी संगठनों की बढ़ती सक्रियता और कश्मीरी गुटों के उनको समर्थन की भी मीडिया में खबरें आती रहीं। कहते हैं, इस बारे में भारत की विदेश गुप्तचर संस्था रिसर्च एंड एनालिसिस विंग भी रिपोर्टें सौंपता रहा है। कहते हैं, खालिस्तानी गुटों को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई तथा कुछ गुटों के लश्करे तैयबा के साथ संबंध की रॉ ने अक्सर रिपोर्टिंग की है। इस संदर्भ में, कहते हैं, भारतीय एजेंसियों ने चार खालिस्तानी गुटों को विशेष तौर पर चिह्नित किया है जो पंजाब में खालिस्तानी अलगाववाद और आतंक को पुनर्जीवित करना चाहते हैं और जिन्हें पाकिस्तान में प्रश्रय तथा संरक्षण प्राप्त है। ये गुट हैं: बब्बर खालसा इंटरनेशनल, खालिस्तान जिंदाबाद फोर्स, सिख यूथ फेडरेशन और खालिस्तान कमांडो फोर्स। और तो और, खुद गुरदासपुर में अप्रैल में खतरे की घंटी साफ बजी थी जब एक खालिस्तानी हमदर्दी वाले नौजवान ने हिंदुत्ववादी शिवसेना के स्थानीय महासचिव को गोली मारी थी। देश के सुरक्षा तंत्र पर पाकिस्तानी घुसपैठ और हस्तक्षेप से बचाव की कार्रवाइयों का बेशक दायित्व है, लेकिन नीति निर्माताओं का यह भी दायित्व बनता है कि अंदरूनी सामाजिक दरारों को पाटकर सौहार्द कायम रखें। तभी दूसरों को टांग अड़ाने का मौका नहीं मिलेगा। पंजाब और भारत की सरकारों को यह ध्यान में रखना चाहिए। राजनीतिक वजहों से सत्तारूढ़ भाजपा ने पंजाब के हालात की अनदेखी की तो यह उसका 84 में कांग्रेस की तरह भिंडरांवाले क्षण बन सकता है।

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल प्रेरित नई सक्रिय एवं आक्रामक भारतीय सुरक्षा नीति की बात अक्सर होती है। लेकिन जम्मू कश्मीर के आंकड़े ही देखें तो जमीन पर स्थिति बेहतर होना तो दूर, 2014-15 में नई सरकार के आने के बाद बदतर ही हुई है। करगिल के बाद 2003 से 2011 तक कश्मीर में माहौल सुधरता दिखा। मनमोहन सरकार के अंतिम दौर में 2012 से हिंसा फिर बढ़नी शुरू हुई। सन 2012 में आतंकी ‌हिंसा में 12 सिविलियन मारे गए, 2013 में संख्या 13 थी। लेकिन 2014 में भारी वृद्धि हुई जब 26 सिविलियन मारे गए, 2015 में जुलाई तक ही यह संख्या 14 हो गई है। वर्ष 2013 में मारे गए पुलिस वालों की संख्या 15 थी जो 2014 में बढ़कर 41 हो गई। मुठभेड़ों की संख्या 2012 में 39 से बढ़कर 2014 में 52 और मारे गए आतंकियों की संख्या 2012 में 64 से बढ़कर 2014 में 101 हो गई। कुल आतंकी वारदातें 2012 में 104 से बढ़कर 2014 में 132 हो गईं।

इसके बरक्स हमें नई सरकार में दिखा है राजनीतिक बड़बोलापन जो किसी को डराने या अपने यहां शांति बहाल करने में असमर्थ रहा है- चाहे उत्तर पूर्व हो या जम्मू-कश्मीर। या पाकिस्तान हो या चीन। सक्षम सुरक्षा नीति हो तो भी एक ही सीमा तक जा सकती है। आगे का क्षेत्र कल्पनाशील उदार राजनीति का है। वही अंदरूनी और राजनयिक दरारें पाट सकती है। स्थायी शांति और सहयोग के लिए। 

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