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स्वीडन नहीं है भारत का प्रांत

भारत में मीडिया, जनमत और धारणाएं मैनेज की अपनी काबिलियत से यह सरकार अभिभूत हो गई दिखती है। इतना कि अपनी महान क्षमताओं के कल्पना-लोक में मदोन्मत्त विचरती वह अंतरराष्ट्रीय मीडिया या फिर भारत के लिए दशकों से शूल बने पड़ोसी देश के फौजी प्रतिष्ठान को अपने बड़बोलेपन और धौंस-पट्टी से ही प्रभावित कर लेना चाहती है।
स्वीडन नहीं है भारत का प्रांत

इस प्रसंग में ही हाल के दो उदाहरण देखना उपयुक्त होगा। पहला, एक स्वीडिश अखबार को दिए राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के इंटरव्यू में बोफोर्स संबंधी टिप्पणी के बाद भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के निर्देश पर स्वीडन में भारतीय राजदूत की करतूत। और दूसरा, इसके पहले आतंकी गतिविधियां प्रोत्साहित करने के खिलाफ पाकिस्तान को चेतावनी देने के क्रम में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का अपरिपक्व बड़बोलापन।

पहले राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का प्रसंग लें। उन्होंने स्वीडन के राष्ट्रीय दैनिक 'डागेंस नाइहेटर’ को अपनी स्वीडन-यात्रा पूर्व दिए गए साक्षात्कार में बोफोर्स घोटाले के बारे में कहा कि वह सिर्फ मीडिया ट्रायल था। मीडिया और सड़कों पर सारे हो-हल्ले के बावजूद बोफोर्स मामले में भारत सहित किसी देश की कोई एजेंसी कुछ भी घपला निकाल नहीं पाई।

राष्ट्रपति की यह टिप्पणी भारत की सत्ताधारी पार्टी के ढाई दशक से चले आ रहे अभियान और मान्यताओं के प्रतिकूल है। इसलिए इसकी राजनीतिक छलक के प्रति शायद वह तुरंत सचेत हुई। यहां तक तो ठीक। राष्ट्रपति से भी अपना मतभेद व्यक्त करने को देश की कोई भी राजनीतिक पार्टी हमारे लोकतांत्रिक संविधान के तहत स्वतंत्र है। भारत सरकार या सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी भी इसे राष्ट्रपति की व्यक्तिगत राय बता अपना मतभेद सार्वजनिक कर सकती थी। पर इसके बदले जो हुआ वह अधकचरी राजनीति और नुकसानदेह कूटनीति है।

भारत के विदेश मंत्रालय ने मानो स्वीडन को भारत का एक प्रांत और गहरी लोकतांत्रिक जड़ों वाले देश के स्वतंत्र अखबार को व्यापारिक, प्रशासनिक, दबाव या लालच में आकर लल्लो-चप्पो करने लग जाने वाला भारतीय मीडिया समझ लिया। तभी तो विदेश मंत्रालय के निर्देश पर स्वीडन में भारत की राजदूत वनश्री बोस हैरिसन ने 'नाइहेटर’ के मुख्य संपादक पीटर वोलोडार्स्की को पत्र लिखकर राष्ट्रपति की टिप्पणी 'ऑफ द रेकार्ड’ बताकर उसका प्रकाशन रोकने की कोशिश की और धमकी तक दे डाली कि ऐसा नहीं करने पर भारतीय राष्ट्रपति का स्वीडन दौरा रद्द तक हो सकता है।

लेकिन बदकिस्मती देखिए कि अपने अखबार में संपादक वोलोडार्स्की ने भारतीय राजदूत के इस पत्र को प्रकाशित कर समाचार प्रबंधन की शातिर भारत-सरकारी मानसिकता की पोल खोल दी और अंतरराष्ट्रीय  समुदाय के प्रबुद्ध जनमत निर्माताओं के बीच भारत के लिए शर्मिंदगी की हालत पैदा कर दी। अभिव्यक्ति की आजादी और पत्रकारीय नैतिकता का पाठ एक स्वीडिश संपादक से पूरे भारत को सुनना पड़ा सो अलग।

अब माननीय रक्षा मंत्री पर्रिकर महोदय को लें। उनके अपरिपक्व शब्द-प्रक्षेपास्त्र ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच भारत की छवि पाकिस्तान के बेलगाम आतंकियों के आका फौजी सत्ता-प्रतिष्ठान जैसी प्रक्षेपित कर दी। उन्होंने कहा कि कांटे से कांटा निकालना पड़ता है इसलिए पाकिस्तानी आतंकी कार्रवाइयों से निपटने के लिए भारत भी आतंकियों के इस्तेमाल से परहेज नहीं करेगा। टाइम्स नाउ जैसे टीवी चैनलों के पैनल या नियोजित विशाल जनसभा के मंचों से जनभावनाएं भड़काकर जोश भरने के लिए इस तरह दहाड़का तो जोरदार तालियां बजवा लेगा लेकिन गंभीर कूटनीति में तो यह पासा उल्टा ही पड़ेगा।

करगिल और 26/11 के मुंबई हमलों के बाद से जिस अंतरराष्ट्रीय शुभेच्छा ने भारत की मदद की है वह प्रतिरक्षा नीति के अंग के तौर पर आतंकवाद के इस्तेमाल की ऐसी आक्रामक लफ्फाजी से भड़ककर भारत को भी पाकिस्तान जैसे उत्पाती श्रेणी में रख किसी बिंदु पर भारत के साथ ही पाकिस्तान जैसी हेय व्यवहार करने लगे तो आश्चर्य नहीं।

आतंकवाद सभ्य विश्व में निकृष्टतम अनैतिकता माना जाता है क्योंकि यह मासूमों की जान से अपने हित में खेलता है। जो देश और सरकारें इसे खुला प्रश्रय देते हैं वे विश्व समुदाय के असंयमित, उद्दंड और दंडनीय सदस्य माने जाते हैं। विश्व मंच पर नेतृत्वकारी भूमिका निभाने की इच्छा रखने वाले देश के किसी जिम्मेदार मंत्री को यह समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।  अंतरराष्ट्रीय राजनय की नैतिकता की सरपरस्ती का दावा करने वाली शक्तियां भी इस मानदंड पर खरी नहीं उतरतीं, यह कहने में हमें कोई संकोच नहीं। अमेरिकी एजेंसियों का 'असाधारण हरण’ (एक्‍स्ट्रॉडिनरी रेंडिशन) और ग्वांटनामो के बंदीद्वीप इस विचलन का निकृष्टतम उदाहरण हैं। लेकिन आतंक की अनैतिकता को लेकर शर्म ऐसी है कि यह काम चोरी-छिपे किया जाता है। इस विषय पर शर्म का पर्दा तक गिरा देना आफत मोल लेना साबित हो सकता है।

 

 

 

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