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वीरेन का जाना, जीवंत वामपंथी प्रतिज्ञा को गहरा आघात

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी साम्राज्यवाद और राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी-मार्का हिंदुत्ववादी फासीवाद के मौजूदा वर्चस्व के दौर में वीरेन डंगवाल (1948-2015) की कविता किसी आत्मीय, जीवंत, वामपंथी प्रतिज्ञा की तरह सामने आती है।
वीरेन का जाना, जीवंत वामपंथी प्रतिज्ञा को गहरा आघात

इसमें एक निर्दोष, मारक, जिद-सी भी दिखाई देती है - कि हम इस साम्राज्यवाद और फासिस्ट निजाम की ऐसी-की-तैसी करेंगे। आप चाहें तो वीरेन डंगवाल की कविता को जनवादी कविता कह सकते हैं — हिंदी की उत्कृष्ट, श्रेष्ठ जनवादी कविता,  जिसमें किसी समस्या का तुरत-फुरत समाधान, चलताऊ सदाशयता व ऊबाऊ प्रवचन नहीं है,  बल्कि जो गंभीर, सरस, दोस्ताना, कलाकर्म से भरी हुई है। ऐसा जिम्मेदार कलाकर्म, जो पाठक-श्रोता के अंदर आंतक नहीं पैदा करता, उससे दूरी नहीं बनाता, बल्कि उसे अपने साथ लिए चलता है। वीरेन की कविता में कथ्य व काव्यरूप की विलक्षण विविधता और प्रयोगधर्मिता दिखाई देती है, और हमारे सामने कविता का भरा-पूरा, सुंदर वितान खींच जाता है।

निराला, शमशेर, नाजिम हिकमत की कविताई से वीरेन ने काफी-कुछ सीखा। इस सीखे हुए को रचनात्मक रूप से आत्मसात करते हुए उसने अपना घना, स्वतंत्र, निजी, लोकप्रिय कवि व्यक्तित्व रचा। ध्यान रखिए, वीरेन खासा लोकप्रिय कवि रहा है, और उसकी कविता सुनने के लिए एक जमाने में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में हजारों की भीड़ जुटती रही है। आला दर्जे की कविता, आला दर्जे की लोकप्रियता — यह कवि वीरने की जबर्दस्त खासियत रही है। उसका अंदाज-ए-बयां एकदम विशिष्ट, अलहदा बन गया, जहां गहरी राजनीतिक प्रतिबद्धता अंगूठी में नगीने की तरह चमकती है। वह अपनी एक कविता में कहता भी है: ‘इसलिए एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने/ फितूर सरीखा एक पक्का यकीन’। अलग रास्ता पकड़ते और उस पर पक्के यकीन के साथ चलते हुए वीरेन की कविता यथास्थिति को तोड़ती है, परिवर्तन की चाह पैदा करती है, और उम्मीद की लौ जलाए रखती है। वह साधारण को और साधारण बनाने, उसमें सुंदरता देखने, और वंचित, हाशिए पर पड़े,  मार खाए,  सताए हुए, उपेक्षित, ओझल लोगों और चीजों को — यहां तक कि रोजमर्रा की चीजों को- केंद्रीय स्तर पर लाकर उनकी महत्ता की गाथा सुनाने की और साधारण कविता है। ऐसा लगता है,  हम नए सिरे से दुनिया को देख रहे हैं। इस तरह, वीरेन की कविता शोषण व उत्पीडऩ के खिलाफ वर्ग-आधारित मनुष्यता की श्रेष्ठ कविता बन जाती है। ‘हमारा समाज’, ‘पीटी ऊषा’, ‘कटरी की रुक्मिणी और उसकी माता की खंडित गद्य कथा’, ‘कुछ कद्दू चमकाए मैंने’, ‘ब्रेख्त के वतन में’, ‘शमशेर’, ‘उजले दिन जरूर’, ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’, ‘तोप’, ‘चारबाग स्टेशन : प्लेटफार्म न. 07’, ‘रामसिंह’  व अन्य कविताएं इसका विशिष्ट उदाहरण हैं।

वीरेन डंगवाल ने 1970 के आसपास से बल्कि उससे थोड़ा पहले से, कविता लिखना शुरू किया। नक्सलबाड़ी के सशस्त्र किसान आंदोलन से गहराई से प्रभावित और प्रेरित वीरेन ने इस आंदोलन की अंतर्वस्तु को आत्मसात किया और उसे अपनी काव्यकला में कल्पनाशील व रचनात्मक तरीके से ढाला। वह उन लोगों में नहीं शामिल था, जो चिल्ल-पों मचाते थे कि ‘मैं नक्सलबाड़ी की संतान हूं’। नक्सलबाड़ी आंदोलन के असर से वीरेन की काव्यचेतना समृद्ध, गतिशील व द्वंद्वात्मक बनी, और यह चीज आधुनिक हिंदी कविता के लिए बहुत सकारात्मक रही। आधुनिक हिंदी कविता को रूपवाद-कलावाद के दायरे से बाहर निकाल लाने और उसे सार्थक, जनोन्मुख, परिवर्तनकामी, लोकतांत्रिक और लोकप्रिय बनाने में वीरेन का बड़ा भारी योगदान है। वीरेन के तीन कविता संग्रह प्रकाशित है: ‘इसी दुनिया में’ (1991), ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’ (2002), और ‘स्याही ताल’ (2010)। उसकी बहुत-सारी कविताएं और ढेर-सारा गद्य लेखन अभी अप्रकाशित है।

वीरेन का इंतकाल मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से बहुत दुखदायी घटना है। हम दोनों 1965 से, जब हम दोनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, गहरे दोस्त रहे हैं, और लगभग साथ ही साथ हम दोनों ने साहित्य की दुनिया में कदम रखा था उसके चले जाने से हिंदी कविता की आत्मीय, जीवंत वामपंथी प्रतिज्ञा को गहरा आघात लगा है।

(लेखक वरिष्ठ कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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