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कांग्रेस क्या सचमुच अंतिम सांसें गिन रही है?

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को जिताने का पूरा दारोमदार उठाए घूम रहे हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मतदाताओं से कह रहे हैं कि कांग्रेस अपनी अंतिम सांसें गिन रही है, अब वह इतिहास की चीज़ हो गई है और इस डूबते जहाज को अपना समर्थन देकर वोट खराब करने की ज़रूरत नहीं है।
कांग्रेस क्या सचमुच अंतिम सांसें गिन रही है?

मोदी को आजकल सिर्फ़ दो धुनें सवार हैं। एक, कांग्रेस-मुक्त भारत और दो, नगदी-मुक्त भारत। मैं उन्हें शुभकामनाएं देता हूं कि वे अपने मौजूदा कार्यकाल के बचे हुए 27 महीनों में अपने ये दोनों ख़्वाब पूरे करने में क़ामयाब हों। अब तक के अपने 32 महीनों में मोदी ने हमें अपने ज़ख़्मों को सहलाती अर्थव्यवस्था तो दे ही डाली है, हमारी समाज-व्यवस्था की जड़ों में मट्ठा डालने के काम में भी भाजपा और उसका पितृ-संगठन कोई कसर बाक़ी नहीं रखे हुए है और भारतीय सियासत को विपक्ष-विहीन बनाने की अपनी इच्छा पूरी करने के लिए भी मोदी किसी साम-दाम-दंड-भेद से गुरेज़ नहीं कर रहे हैं।

लेकिन बावजूद इसके कि मोदी को कांग्रेस क़ब्र में जाती दिखाई दे रही है, असलियत यह है कि 2014 मोदी और उनकी भाजपा के प्रति भारतीय जनता के विश्वास, लगाव और समर्थन के चरम का वर्ष था। वह कांग्रेस की ऐतिहासिक फ़जीहत का साल था। मोदी 282 सांसदों को लेकर भरभराते हुए संसद में घुसे थे। तीन दशक बाद किसी को सरकार बनाने के लिए स्पष्ट बहुमत मिला था। लेकिन ऐसे में भी जब कांग्रेस की फ़सल देश भर में कम-ज़्यादा लहलहाती रही तो अब पौने तीन साल बाद ‘आख़िरी सांसें ले रही कांग्रेस’ के मुंह में गंगाजल डालने के इंतज़ार में तैयार बैठे मोदी को कुछ तथ्यों पर ग़ौर करना चाहिए।

मई-2014 के हिम-खंड से टकराने के बावजूद जिस कांग्रेस का जहाज पूरा नहीं डूबा और वह लोकसभा की आठ फ़ीसदी सीटों पर चुन कर आ गई, अब उसकी मातमपुर्सी कर रहे मोदी यह भूल गए हैं कि उन चुनावों में मतदान केंद्रो पर अपनी राय ज़ाहिर करने गए 55 करोड़ से कुछ ज़्यादा मतदाताओं में से 38 करोड़ 21 लाख ने भाजपा के खि़लाफ़ वोट दिया था। पौने ग्यारह करोड़ मतदाता तब भी कांग्रेस के पक्ष में अपने वोट दे कर लौटे थे। उन दिनों भी कांग्रेस को दस राज्यों में भाजपा से ज़्यादा मत-प्रतिशत मिला था और क़रीब आधा दर्जन राज्य ऐसे थे, जहां भाजपा सीटों को तो छोड़िए, वोटों के हिसाब से भी पूरी तरह साफ़ थी। आठ राज्यों में कांग्रेस को कुल पड़े मतों का 40 प्रतिशत से ज़्यादा मिला था, चार राज्यों में उसका मत-प्रतिशत 35 से ज़्यादा था और छह राज्यों में उसे 30 फ़ीसदी से अधिक मत मिले थे। भाजपा को तब चार राज्यों में तक़रीबन शून्य मत मिले थे, दो राज्यों में उसका मत-प्रतिशत 2 से 5 के बीच था और चार राज्यों में उसे 8 से 11 प्रतिशत के बीच ही वोट मिले थे।

अब तक के भाजपाई शिखर और कांग्रेसी भद्द के सबसे बड़े प्रतीक 2014 के लोकसभा चुनावों में विभिन्न प्रदेशों के विधानसभा क्षेत्रों की स्थिति पर भी, लगता है, हमारे प्रधानमंत्री ने निग़ाह डालने की ज़हमत कभी नहीं उठाई है। उन्होंने ऐसा किया होता तो कांग्रेस का मर्सिया पढ़ने से पहले वे कुछ सोचते। पिछले आम चुनाव में भाजपा ने पांच राज्यों में सभी लोकसभा सीटें जीती थीं। मोदी के गृहःराज्य गुजरात की 26 में से 26, राजस्थान की 25 में से 25, उत्तराखंड की 5 में से 5, हिमाचल प्रदेश की 4 में से 4 और गोआ की 2 में से 2 सीटों पर कमल खिल गया था। इसके अलावा उत्तर प्रदेश की 80 में से 71 सीटें भाजपा की उल्लेखनीय उपलब्धि थीं। मध्यप्रदेश की 29 में से 27, छत्तीसगढ़ की 11 में से 10 और झारखंड की 14 में से 12 सीटें जीतना भी भाजपा के लिए इठलाने का सबब था। लेकिन भाजपा के इन नौ सिरमौर राज्यों के विधानसभा क्षेत्रों में तब भी कांग्रेस की हालत अंतिम सांसों वाली नहीं थी। मोदी के गुजरात में वह 17 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा से आगे रही थी। राजस्थान में 11 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस ने भाजपा को पीछे छोड़ा था। उत्तराखंड में कांग्रेस 7 क्षेत्रों में आगे थी। हिमाचल प्रदेश में उसे 9 क्षेत्रों में भाजपा से बढ़त मिली थी। गोआ में कांग्रेस 7 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा से आगे रही थी।

उत्तर प्रदेश में भी 15 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस सबसे आगे रही थी। मध्यप्रदेश में 36 और छत्तीसगढ़ में 18 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस ने भाजपा को पछाड़ा था। झारखंड तक में 3 विधानसभा क्षेत्रों में वह सबसे आगे रही। जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में भी जहां कांग्रेस को लोकसभा की एक भी सीट नहीं मिली और भाजपा ने राज्य की आधी सीटों पर कब्ज़ा कर लिया था, विधानसभा क्षेत्रों की हालत कुछ और बयां कर रही थी। कांग्रेस ने विधानसभा की 12 सीटों पर सभी को पीछे छोड़ दिया था। असम में भी भाजपा ने आधी लोकसभा सीटें हासिल की थीं और कांग्रेस को सिर्फ़ तीन सीटें मिली थीं, लेकिन विधानसभा की 23 सीटों पर कांग्रेस सबसे आगे रही थी।

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद सात प्रदेशों में विधानसभा के चुनाव हुए हैं। 2015 में दिल्ली और बिहार के चुनाव हुए। 2016 में पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी में विधानसभाएं चुनी गईं। फरवरी 2015 के दिल्ली-चुनाव में भाजपा का सफाया हो गया। उसे तीन सीटें ही मिलीं। घर्घर नाद के साथ रायसीना पहाड़ियों पर पहुंचे मोदी-रथ के महज आठ महीनों के भीतर भाजपा का यह हाल हुआ। यह भी सही है कि कांग्रेस को तो इस चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन दिल्ली के दस प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन उसे तब भी हासिल हुआ। नवबंर 2015 आते-आते बिहार के विधानसभा चुनाव में भी मोदी-लहर छिछली हो गई। यूनाइटेड जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के महागठबंधन ने बिहार की 243 में से 178 सीटें हासिल कर लीं। कांग्रेस की व्यक्तिगत झोली में भी 27 सीटें आईं। 

2016 की मई में हुए पश्चिम बंगाल के चुनाव में भाजपा सभी 294 सीटों पर लड़ी, लेकिन महज 6 ही जीत पाई। कांग्रेस 92 पर लड़ी और 44 जीत गई। केरल विधानसभा के चुनाव में भाजपा को सिर्फ़ एक सीट मिली और कांग्रेस को 23 सीटें। तमिलनाडु की सभी 232 सीटों पर भाजपा ने अपने प्रत्याशी ज़ोर-शोर से उतारे, लेकिन एक भी नहीं जीता। कांग्रेस 41 पर लड़ी और 8 जीती। पुदुचेरी में भी भाजपा सभी सीटों पर लड़ी, मगर एक भी नहीं जीत सकी। असम में भाजपा ने 69 सीटें जीतीं और कांग्रेस ने 26, लेकिन दिलचस्प तथ्य यह है कि कांग्रेस को भाजपा से डेढ़ प्रतिशत ज़्यादा मतदाताओं का समर्थन मिला।

पिछले तीन महीनों में गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश समेत कई राज्यों में हुए पंचायत, ज़िला परिषद और दूसरे स्थानीय निकायों के चुनावों में भाजपा समर्थित उम्मीदवारों को मतदाताओं ने जिस तरह नकारा है, अगर उससे भी हमारे प्रधानमंत्री को आगत के आसार दिखाई नहीं दे रहे हैं तो कोई क्या कहे। उत्तर प्रदेश और पंजाब सहित पांच राज्यों में हो रहे ताज़ा विधानसभा चुनावों की मैदानी आहट भी अगर मोदी को सुनाई नहीं दे रही है तो उनकी श्रवण-शक्ति को नमन करने के अलावा क्या किया जाए। जिस कांग्रेस को मोदी अपनी लोकप्रियता के चरम दौर में भी इतिहास की चीज़ नहीं बना पाए, भाजपा की पतन-गाथा का आरंभ गीत शुरू होने के इन दिनों में उसे श्रद्धांजलि देने को उन्हें इस तरह आतुर देख कर मैं तो यही कहूंगा कि उनकी उंगलियां जनता की नब्ज़ टटोलने की सिफ़त पूरी तरह खो चुकी हैं। 

(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)

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