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चंपारण सत्याग्रह शताब्दी: सिर्फ आयोजन या कुछ प्रयोजन भी

चंपारण सत्याग्रह के 100 साल पुरे होने पर देश व्यापक विमर्श के दौर से गुजर रहा है,किसी को गाँधी याद आ रहे हैं,किसी को सत्याग्रह,किसी को अंग्रेजी शासन की क्रूरता, इस बीच जो याद नहीं किया जा रहा है वो है किसान।
चंपारण सत्याग्रह शताब्दी: सिर्फ आयोजन या कुछ प्रयोजन भी

 

-भानू कुमार

किसानों की स्थिति सरकारों ने इतनी भयानक कर दी है की उन्हें दिल्ली में खुले आम नंगा होना पड़ रहा है, जहां एक तरफ शताब्दी का जश्न मनाया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ सदियों से दबे हुए किसानों को दर्द से कराहते हुए देखा जा रहा है।

100 साल की गुजरी अवधि को सिर्फ काल खंड के रूप में देखना सही नहीं होगा ,सही अर्थों में हमें यह तय करना होगा कि इतिहास के अविस्मरणीय क्षण से हमें कुछ सिखना-सिखाना है या इसे एक आयोजन अवसर मान लेना है। इतिहास को लेकर हम व्यापक संवेदनशील तो रहते है किन्तु उसके अर्थ एवं सच्चाई से मुंह मोड़ने में भी हमें शर्म नहीं आती।

सभी अपने-अपने हिसाब से एवं अपने मतलब के अनुसार गाँधी और सत्यग्रह को गढ़ने की हवाई प्रयास कर रहे हैं , हवाई प्रयास इसलिए कि किसी को गांधी के विचार को सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं है, कि किस तरह उन्होंने किसानों के दर्द को समझा और एक साधारण से कांग्रेसी कार्यकर्ता राजकुमार शुक्ल के कहने पर आन्दोलन को नेतृत्व देने के लिए तैयार हो गये। प्रश्न यह है कि गांधी ने जिस किसानों को अंग्रेजी शासन से बचाने के लिए इस आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान किया था वो किसान आज कहां है?

 चंपारण सत्याग्रह से पहले भी भारत में कई किसान आन्दोलन हुए जिसे राज्य ने शक्ति के आधार पर दबा दिया ,चंपारण पहला सत्याग्रह था जिसने पहली बार अंग्रेजी शासन को मजबूर किया झुकने के लिए। यह आन्दोलन भारत के भविष्य में किसानों का राज्य से सम्बन्ध की शर्तें एवं पृष्ठभूमि तैयार करने वाला आन्दोलन था ,जिसे हम न हीं याद रख पाए न हीं राज्य ने आज़ादी के बाद इसे याद रखना चाहा।

भारत की लगभग 65% जनसंख्या प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है । ऐसी स्थिति में किसानों की भूमिका राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण हो जाती है ,किन्तु आज़ादी के बाद कृषि का स्वरुप तो बढ़ता गया किन्तु अर्थव्यवस्था सिकुड़ती गई।  वहीँ सबसे दर्दनाक यह है कि प्रतिवर्ष किसानों की आत्महत्या की घटना बढती ही जा रही है ,1997 से लेकर 2016 तक लगभग 1 लाख किसानों ने आत्महत्या की है। किसान किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर उम्मीदों पर टिका हुआ है कि राज्य से कोई भीख मिलेगा एवं उनके समस्या का तात्कालिक निवारण होगा । किसान भी यह अच्छी तरह जनता है कि राज्य उसका साध्य नहीं है। किसानों की इस किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति ने उन्हें विचारहीन बना दिया है। इस दिशा में कोई ठोस समाधान के साथ अभी तक नहीं आया । ऐसे में समस्या किसानों की है समाधान भी उन्हें हीं उपयुक्त रूप से खोजना पड़ेगा।

 भारत में किसानों को जो सोच गांधी ने देने का प्रयास किया उसे बाद के नेताओं ने और सरकारों ने व्यापक स्तर पर दिग्भ्रमित किया जिस कारण से कृषि एक ऐसा रोजगार बन गया जो बिना किसी विचार के राज्य पर निर्भर व्यवस्था बन कर रह गई। गांधी ने चंपारण में “तीनकठिया” व्यवस्था ख़त्म करने के लिए सिर्फ आन्दोलन नहीं किया था वरन प्रो. हिमांशु रॉय के शब्दों में  ‘’गांधी का दर्शन और आचरण  बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारतीय कृषक समुदाय की विचारधारा और कार्यक्रम का था जिसके आधार पर वो किसानों को स्वतंत्र सोच देना चाहते थे जहां किसान अपने सभी निर्णय स्वयं ले सके बिना राज्य पर निर्भर रहे  तथा कृषि को निर्भरता की जगह आत्मनिर्भरता की ओर बढाया जा सके। ‘’  अर्थात गांधी सही अर्थों में भारतीय सभ्यता के श्रेष्ठता को पुनः स्थापित करने के लिए ग्रामीण व्यवस्था का सुचारू स्वरुप स्थापित करना चाहते थे ,चंपारण में किसानों के साथ अन्याय भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सत्यनिष्ठा पर आघात था। चंपारण सत्याग्रह से भले हीं तात्कालिक लाभ किसानों को मिला किन्तु गांधी यह सन्देश देना चाहते थे कि भारत अर्थात गांव अर्थात किसान अर्थात व्यक्ति पर राज्य द्वारा अन्याय सम्पूर्ण भारतीय व्यवस्था को आंतरिक रूप से आघात पहुंचा सकता है। मैं यहां किसानों को विचारहीन मान रहा हूँ क्योंकि उन्होंने अपने पथ सदा राज्य के उम्मीदों पर तय किए जिस कारण स्थिति भारत में यह है कि पूरी कृषि व्यवस्था एक अभिशाप बन कर रह गई है। 

 

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