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आमिर के बयान के बाद असहिष्णुता का सवाल

सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध लोकप्रिय कलाकार आमिर खान ने उनकी पत्नी किरण द्वारा जाहिर किए गए डर को साझा कर देश में बन रहे एक खास तरह के माहौल पर चल रही बहस को तीखा कर दिया है
आमिर के बयान के बाद असहिष्णुता का सवाल

हालांकि आमिर ने बहुत ही जिम्मेदारीपूर्ण बयान दिया। उन्होंने इसके जरिए चुने हुए जनप्रतिनिधियों से जवाबदेही मांगी है तथा उन्हें याद दिलाया है कि उनके कथन से लोगों में कानून के प्रति आस्था जगनी चाहिए, ना कि डर। आमिर ने स्पष्ट रूप से अवार्ड वापस कर रहे लोगों का ना केवल समर्थन किया है बल्कि यह भी कहा है कि वे देश में चल रहे हर अहिंसक विरोध के पक्ष में है, क्योंकि विरोध करना हमारा अधिकार है।

शाहरुख खान की तरह ही आमिर खान को भी इसकी जमकर प्रतिक्रियाएं झेलनी पड़ रही हैं। अनुपम खेर तथा परेश रावल जैसे साथी कलाकारों से लेकर साधारण भारतीय नागरिकों तक आमिर के पक्ष और विपक्ष में बोल रहे है। हर बार की तरह इस बार भी एक कलाकार की व्यथा, डर और असंतोष चर्चा का विषय नहीं है बल्कि उनका मुसलमान होना और इस बेबाकी से बोलना सहन नहीं किया जा रहा है।

लगभग इन्हीं दिनों जयपुर में हो रहे एक आर्ट सम्मिट में गाय की कलाकृति बनाकर उसे बलून के सहारे हवा में उड़ाने वाले कलाकार का राजस्थान पुलिस ने उत्पीड़न किया, एक अन्य कलाकार को बालों से पकड़ कर पुलिस थाने तक ले गई और अंततः गाय का वह चित्र आर्ट सम्मिट से हटा दिया गया। हालांकि राज्य शासन ने त्वरित कार्रवाई करते हुए थानाधिकारी व दोषी पुलिसकर्मियों को निलम्बित कर दिया और मुख्यमंत्री ने ट्वीट कर खेद जताया। घाव पर मरहम लगाने के लिए मुख्यमंत्री ने कला समारोह का दौरा भी किया और कलाकारों के बीच वक्त गुजार कर राज्य पुलिस द्वारा दिखाई गई असहिष्णुता के प्रभाव को कम करने की कोशिश भी की। लेकिन कलाकर्मियों के चेहरों पर एक अज्ञात भय साफ देखा जा सकता है।

आखिर हो क्या रहा है? अलग विचार प्रस्तुत करने वाली किताबें लुगदी में बदली जा रही हैं। पेटिंग्स तोड़ी जा रही हैं। हर चीज को, हर रचना को धर्म और आस्था की कसौटी पर कसा जा रहा है। अजीब सा भयभीत करनेवाला माहौल फिजाओं में तारी है। लेकिन दावा यह किया जा रहा है कि हम विश्व के सबसे सहिष्णु राष्ट्र हैं।

शायद यह सवाल करने का यह सही वक़्त है कि क्या वाकई देश में असहिष्णुता और अराजकता का माहौल बन गया है, जिसमे भीड़ के हाथों में सब कुछ सौंप दिया गया है या सिर्फ यह एक प्रायोजित राजनीतिक बहस है। क्या इस देश के अधिकांश बुद्धिजीवी किसी के मोहरे बने हुए हैं या वास्तव में ऐसा माहौल बन चुका है। गंभीर प्रश्न यही है कि अगर इस विषय पर दलाई लामा और भारत के उपराष्ट्रपति एवं राष्ट्रपति तक को बोलना पड़ रहा है तो अवार्ड वापसी को सिर्फ विपक्षी पार्टी का षड्यंत्र कह कर उपेक्षित करना सही नहीं होगा। देश में ही नहीं बल्कि अब तो सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता का विमर्श अंतरराष्ट्रीय पटल पर पंहुच गया है। इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि इस  विषय पर एक खुली राष्ट्रीय बहस की जाए।

यह सही है कि देश में सहन करने की शक्ति निरंतर क्षीण होती जा रही है। जिस देश ने कभी चार्वाक, बुद्ध, कबीर जैसे प्रखर आलोचकों को स्वीकार किया था, वह अब दाभोलकर, कलबुर्गी और पानसरे जैसे तर्कवादियों और पाखंड विरोधियों को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है, उनकी हत्याएं कर दी गईं। टीपू सुल्तान की जयंती मनाने को लेकर हिंसा होती है, जिसमें लोग मारे जाते हैं। गांधी का देश होने का दावा करने वाले मुल्क में उनके हत्यारे गोडसे का बलिदान दिवस मनाया जाता है। खाने-पीने की आदतों को लेकर लोग मार दिए जाते हैं। हालात यहां तक जा पहुंचे हैं कि अब इंसान से ज्यादा पवित्र जानवर होने लगे है और असहमति की हर आवाज को देशभक्ति की तुला पर तोला जाने लगा है। अगर आप सत्ता के विरुद्ध बोलते हैं तो आपको देशद्रोही माना जाएगा। ऐसे में लगातार घट रही सहिष्णुता पर सवाल उठाया जाना लाजिमी ही है।

जब हर मतभेद को प्रतिपक्ष की साजिश मान लिया जाए और कुछ लोग और संस्थाएं स्वयं को राष्ट्र मानने लगे तब जरुरी है कि विचारवान लोग अपने बौद्धिक दड़बों से बाहर आ कर अपने सामाजिक सरोकारों और प्रतिबद्धताओं को प्रकट करें। संभवतः यही काम साहित्यकार उदय प्रकाश ने अपनी एक फेसबुक पोस्ट के जरिए 4 सितम्बर को असहिष्णुता की बहस खड़ी करते हुए अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर किया। उन्होंने कहा कि यह समाज और सत्ता प्रतिष्ठान में व्याप्त खामोशी को तोड़ने की एक कोशिश है। इसके बाद पुरस्कार वापसी एक तरीका बन गई सत्ता की खामोशी को इंगित करने का। कई नामचीन साहित्यकारों, फिल्मकारों और वैज्ञानिकों ने अवार्ड्स लौटा दिए और देश में बढ़ रही असहिष्णुता पर तीखी टिप्पणियां की। इससे देश में एक विमर्श बना। शायद इस प्रकार से पुरस्कार वापसी का उद्देश्य भी यही रहा होगा कि किसी ना किसी तरीके से सत्ताधारी वर्ग इस विषय की गंभीरता का अहसास करे और एक राष्ट्रव्यापी बहस इस पर हो। देश के बुद्धिजीवी वर्ग का यह प्रयोग सफल रहा क्योंकि यह बहस सिर्फ भारत तक सीमित नहीं रही, इस पर विश्व के कई अन्य देशों में भी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की गई।भारतीय मूल के ब्रिटिश शिल्पकार अनीश कपूर ने इसे भारत में हिन्दू तालिबान का उभार करार दिया। 

कला, साहित्य और विज्ञान से ताल्लुक रखने वाले लोगों ने अपना काम किया, लेकिन सरकार चूक गई। उसने राजधर्म निभाने के बजाय अपने दरबारियों को आगे कर दिया। जो काम सरकार का था वह काम सत्ता से लाभान्वित अथवा सत्ता लाभों के प्रति आशान्वित एक तबके के भरोसे छोड़ देना सरकार की गंभीर भूल साबित हुई। अगर देश का बुद्धिजीवी तबका नाराज है और वह विभिन्न कारणों से आहत महसूस कर रहा है तो प्रधानमंत्री कार्यालय को उनसे सीधा संवाद स्थापित करना चाहिए था मगर हुआ इसका उल्टा। जो मंत्री साहित्य के ककहरे से भी अपरिचित है, वे बयानबाजी करने लगे। उन्होंने पुरस्कार वापसी को राजनीति से प्रेरित बताना शुरू कर दिया। विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह, जो अपने विवादित बयानों के लिए जाने जाते रहे हैं, उन्होंने बेशर्मी की हद तक जा कर कह दिया कि कविता या लेख पढ़ने के बहाने विदेश में घूमने और दारू पीने पर पाबन्दी लगने से साहित्यकार बौखला गए हैं। अब तो उन्होंने यहां तक भी कह दिया है कि अवार्ड वापसी और सरकार विरोधी बयानबाजी के लिए देश के इन बुद्धिजीवियों को पैसा मिला है। मौजूदा सरकार के कई अन्य ज़िम्मेदार लोगों की प्रतिक्रियाएं भी इतनी ही हल्की और बेहूदा थीं। उन्होंने इस पूरे विमर्श को राजनीतिक बहस बना दिया और इसे मुख्य विपक्षी दल की करतूत साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। संवेदनशील लोगों को घबराये हुए वामपंथी कह कर तिरस्कृत करने मात्र से क्या सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता की बहस खत्म हो जाएगी?

देश के बुद्धिजीवी तबके पर प्रतिपक्षी दलों से साठ-गांठ करने के आरोपों को साबित करने के लिए सरकार देश को यह बता पाने में विफल रही है कि यह साज़िश किन किन लोगों ने कैसे रची और कब यह साहित्यकार वर्ग विपक्षियों से जा मिला। सब कुछ पूर्वाग्रहों पर आधारित लगता है। शासन इस तरह से नहीं चल सकता है। जो भी सत्ता में है उसे सबकी सुननी पड़ेगी। वह सिर्फ सुनाने में ही यकीन करने लगे और एकतरफा मन की बात सिर्फ रेडियो से आने लगे तो यह प्रवृति किसी भी प्रजातंत्र का स्वास्थ्य बिगाड़ सकती है। सत्ता को संवाद का रास्ता लेना ही चाहिए। अगर वह कलमकारों से संवाद नहीं कर पा रही है तो बंदूक थामे लोगों से कैसे बातचीत करेगी?

अब भी समय है ,प्रधानमंत्री सिर्फ अपने दरबारी बुद्धिजीवियों से मिलने के बजाय अपने घोषित विरोधी बुद्धिजीवीयों से दिल खोल कर मिलें। उनकी बात सुनें, उनकी भावनाओं की कद्र करें ताकि देश में एक भरोसे का माहौल कायम हो सके। प्रधानमंत्री को उनके नाम पर सेनाएं और फैन क्लब बनाकर उनके चित्र लगाकर ऑनलाइन गुंडागर्दी पर उतरे हुए लोगों पर भी लगाम लगानी चाहिए। लगाम तो उन्हें अपने बड़बोले फूहड़ किस्म के बयानबाज मंत्रिमंडलीय सहयोगियों पर भी लगानी चाहिए ताकि वे अपनी मानसिक दिवालियेपन को उजागर करने से बचे रह सकें।

इस बहस ने सत्ता के अंहकारी चरित्र को तो उजागर किया ही है। बुद्धिजीवी वर्ग के सामाजिक सरोकारों पर भी उंगलियां उठाई हैं। सवाल उठ रहे हैं कि क्या कला, संस्कृति और साहित्य की भी कोई प्रतिबद्धता है या नहीं। या फिर सिर्फ  बंद कमरों में लिखना, प्रायोजित सेमिनारों में बौद्धिक जुगाली करना और पुरस्कार प्राप्ति की तिकड़मबाज़ी और साहित्यक खेमेबाजी ही उनके सामाजिक सरोकार है? आज बुद्धिजीवी जमात पर भी अपनी जवाबदेही साबित करने का दबाव बढ़ रहा है। वे सिर्फ पुरस्कार लौटा कर ख़ामोश नहीं हो सकते। उन्हें सड़कों पर उतरने की संभावनाएं भी तलाशनी होगी। वे जन से कैसे जुड़ सकते हैं और जनता के मुद्दे कैसे उनके साहित्य या कला के जरिए आगे बढ़ सकते हैं, इस पर भी उन्हें सोचना होगा।

रही बात सत्ता प्रतिष्ठान की तो उसे प्रतिरोध की आवाजों को प्रतिपक्ष की आवाजें बना कर उनमें साजिश के सूत्र ढूंढने के बजाय सत्ता तंत्र को सहिष्णुता और असहिष्णुता पर एक खुली बहस करने का माद्दा दिखाना चाहिए। ताकि यह स्वीकारा जा सके कि हमारी संस्कृति, समाज, साहित्य, कला, धर्म तथा राजनीति में कई तत्व समाहित हैं जो हमें असहिष्णु बनाते हैं। अगर सबरीमाला के पुजारी महिलाओं की माहवारी के दौरान उन्हें मंदिर में प्रवेश को वर्जित करनेवाला बयान देते है और वंचित तबकों का निरंतर उत्पीड़न व बहिष्करण जारी है तो दुनिया के सबसे सहिष्णु राष्ट्र, राज्य या समाज होने का हमारा दावा सिर्फ पाखंड मात्र है। 

 

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