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मिथक झुठलाते जनगणना के धार्मिक आंकड़े

पिछले साल भारतीय जनता पार्टी केंद्र में सत्ता में क्या आई 1990 के दशक के मजहबी और जातिगत टकराव के गड़े मुर्दे मानो फिर से उखाड़े जाने लगे। एक तरफ जनगणना में धार्मिक समुदायों की जनसंख्या वृद्धि के चुनिंदा आंकड़े पूर्वाग्रह के रंग में रंगकर धीरे-धीरे सामाजिक और मुख्यधारा मीडिया में टपकाए जाने लगे और दूसरी ओर सत्तारूढ़ दल और उसके परिवार के तरह-तरह के गेरुआधारी ‘पूतों फलों’ और ‘घर वापसी’ के भड़काऊ भाषणों के जरिये बहुसंख्यक समुदाय का भयादोहन कर अल्पसंख्यकों के विरुद्ध उन्माद पैदा करने की कोशिश करने लगे। नतीजतन देश में कई जगह अल्प तीव्रता वाले सांप्रदायिक उपद्रव होने लग गए, खासकर उन राज्यों में जहां विपक्ष की सरकारें थीं और आगे चुनाव होने थे।
मिथक झुठलाते जनगणना के धार्मिक आंकड़े

इसके समानांतर समाज में जातिगत उबाल भी पैदा होने लग गया। पहले जाटों और गूजरों जैसी दबंग जातियों की नई आरक्षण महत्वाकांक्षाओं के इर्द-गिर्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में जातिगत आक्रामकता दिखने लगी फिर अब गुजरात के पाटीदार पटेल समुदाय की आरक्षण के लिए मांग ने उग्र हिंसात्मक आंदोलन का आकार ग्रहण कर लिया। गुजरात में इस उग्र हिंसात्मक आंदोलन का विश्लेषण आउटलुक हिंदी के लिए कुछ वरिष्ठ पत्रकार अलग-अलग आलेखों में कर रहे हैं इसलिए तत्काल हम उस दिशा में नहीं जा रहे। 

इन पंक्तियों में फिलहाल हम अपनी नजर थोड़ा मजहबी टकराव के प्रेत पर डालें। जैसा कि पहले से अनुमान व्यक्त किया जा रहा था बिहार चुनाव के ठीक पहले जनगणना के धार्मिक समुदायवार आंकड़े आधिकारिक तौर पर जारी किए गए। इसके साथ ही सामाजिक मीडिया पर भक्तगण चालू हो गए कि देखो मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धिदर हिंदुओं से 7.8 फीसदी ज्यादा है यानी हिंदुओं के 16.8 प्रतिशत के मुकाबले इनकी वृद्धिदर 24.6 प्रतिशत है। और देखो पहली बार देश में हिंदुओं की संख्या 80 प्रतिशत से घटकर 79.8 फीसदी रह गई है और मुसलमानों की  जनसंख्या 2001 के मुकाबले 0.8 फीसदी बढ़कर 2011 में 14.23 प्रतिशत हो गई। ज्यादातर मुख्यधारा की मीडिया में भी यही गूंज सुनाई पड़ी। सोशल मीडिया में भक्तगण हिंदुत्ववादी संगठनों के जबरन 'घर वापसी’ जैसे टकराव भरे कार्यक्रमों को जायज ठहराने लगे। सन 2011 की जनगणना के मजहबी आंकड़े तब जारी किए गए जब मुसलमानों की बड़ी संख्या वाले बिहार, असम, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में एक एक करके विधानसभा चुनाव होने हैं और इन सभी राज्यों में गैर भाजपा सरकारें अभी मौजूद हैं। लेकिन अगर लोग आंखें खोलकर देखना-दिखाना चाहें तो जनगणना के धार्मिक समुदायवार आंकड़ों के आधार पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और टकराव की कोशिश नाकाम की जा सकती है। 

भला हो एकाध अखबारों का जिन्होंने छूटते ही रेखांकित किया कि देश में मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धिदर दरअसल तेजी से घट रही है। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार भारत में बीस सालों में यह सबसे तीखी गिरावट है। सन 2001 में मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर 29.52 प्रतिशत दर्ज की गई थी जो 2011 में घटकर 24.60 रह गई है। बीस साल पहले 1991 में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर 32.87 प्रतिशत थी। देखिए उसके मुकाबले यह कितनी तेज गिरावट है। शायद इसका संबंध शिक्षा और पहले के मुकाबले अपेक्षाकृत समृद्धि तथा आधुनिकता की ओर बढ़ती मुस्लिम आबादी से है। अगर मुस्लिम और हिंदु आबादी तथा भारत की कुल जनसंख्या की वृद्धिदर इसी तरह रही तो मुस्लिम आबादी लगभग ढाई सौ वर्षों में जाकर हिंदु आबादी के बराबर हो पाएगी और वह भी तब जब भारत की आबादी 13 अरब होगी। लेकिन विभिन्न जनगणनाओं के आंकड़े हमें यह भी दिखाते हैं कि भारत की कुल आबादी और हिंदु एवं मुस्लिम जनसंख्याओं की वृद्धि दर लगातार गिरती जा रही है और सां‌ंख्यिकीय संभाव्यता के अनुसार दोनों की वृद्धि दर भी निकट भविष्य में बराबर हो जा सकती है। ये आंकड़े दरअसल  हिंदु असुरक्षा बोध के भयादोहन की काट प्रस्तुत करते हैं। पिछले दिनों ईसाईयत के बढ़ते प्रभाव का भी हौवा खड़ा किया गया, लेकिन देश में ईसाइयों की कुल जनसंख्या का हिस्सा लगभग ज्यों  का  त्यों हैं - 2.3 प्रतिशत। 

क्या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण या टकराव या हिंसा दो संप्रदायों के बीच जनसंख्या वृद्धि दर में अंतर का कोई हल है ? सन 1991 से 2011 में गुजरात और अविभाजित बिहार (झारखंड सहित) के धार्मिक समुदायवार जनगणना के आंकड़े देखें तो स्पष्ट उत्तर मिलता है - नहीं। अविभाजित बिहार इसलिए कि 1991 की जनगणना के वक्त बिहार और झारखंड एक ही राज्य थे। गुजरात में 1991 से 2001 के बीच मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं से महज 5.2 फीसदी ज्यादा थी। सन 2002 में गुजरात में भयानक दंगे हुए और सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2000 के आसपास मुसलमान मारे गए। हजारों मुसलमान उजड़कर शरणार्थी शिविरों में आ गए या राज्य से पलायन कर गए। फिर भी हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच जनसंख्या वृद्धि दर का अंतर बढ़ गया। मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर हिंदुओं के मुकाबले 8.70 फीसदी ज्यादा हो गई यानी हिंदुओं के मुकाबले 2001 से साढ़े तीन फीसदी और बढ़ गई। यह इसलिए हुआ कि गुजरात में मुस्लिम आबादी की वृद्धिदर तो तकरीबन ज्यों  की  त्यों रही जबकि हिंदुओं की वृद्धि दर 22.1 फीसदी से घटकर 18.6 फीसदी रह गई। मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर इस दौरान देशभर में कम हुई लेकिन गुजरात में नहीं जहां दंगे हुए और मुसलमानों की असुरक्षा बढ़ी। 

गुजरात के मुकाबले अविभाजित बिहार को देखिए। बिहार और झारखंड को एक इकाई की तरह मानें तो 1991 से 2011 तक सांप्रदायिक हिंसा गुजरात के मुकाबले बहुत कम हुई और मुसलमानों ने स्वयं को ज्यादा सुरक्षित महसूस किया। इस इलाके में 1991 से 2011 तक हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जनसंख्या वृद्धि दर का अंतर इन 20 वर्षों में घटा। जहां 1991 से 2001 के बीच बिहार-झारखंड में मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं से 13.5 फीसदी ज्यादा थी। वहां यह  2001 से 2011 से घटकर सिर्फ 4.2 प्रतिशत ज्यादा रह गई। झारखंड छोडक़र  सिर्फ बिहार को ही देखें तो आज 15 जिले ऐसे हैं जहां हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर मुसलमानों से ज्यादा है। ये जिले हैं शिवहर, सहरसा, दरभंगा,(तथाकथित आतंकी गढ़), गोपालगंज, सारण, लखी सराय, शेखपुरा, नालंदा, पटना, भोजपुर, जहानाबाद, अरवल, औरंगाबाद, गया और नवादा। 

मतलब साफ है जनसंख्या वृद्धि दर किसी समुदाय की शिक्षा, समृद्धि, जागरूकता और गतिशीलता पर निर्भर है, न कि उसकी शाश्वत प्रकृति है। जनगणना के आंकड़ों से यह मिथक तार-तार हो गया है कि एक कौम के रूप में मुसलमान, कुछ कठमुल्‍ले अपवाद हो सकते हैं, भारत में अपनी आबादी बढ़ाते जाने के किसी सोचे समझे षडयंत्र में लिप्त हैं और एक दिन इस देश में बहुसंख्यक समुदाय हो जाने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहे हैं।

 

 

 

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