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आर्थिक जासूसी: गठजोड़ की गांठ खुले तो मानें

सरकारी गलियारों में दूर तक पसरे हुए कॉर्पोरेट जगत के पंजे सार्वजनिक नीतियों को अपने स्वार्थ के लिए कैसे मोड़ते हैं, इसका पर्दाफाश नीरा राडिया टेप कांड ने कुछ वर्ष पहले किया था। सत्ता के गलियारों में वैसी ही कॉर्पोरेट घुसपैठ पर से वैसा ही पर्दा अब मंत्रालय जासूसी कांड उठा रहा है। प्याज के छिलकों की तरह इसकी परतें प्रतिदिन और खुलती जा रही हैं। लेकिन सबकी निगाहें इस पर टिकी हैं कि इन परतों के नीचे छोटी-छोटी कठपुतलियां नचाने वाले बड़े-बड़े असली चेहरे सामने आते हैं या नहीं। और सामने आ भी जाएं तो उनके किए की कानूनी जवाबदेही ठहराई जाती है या नहीं।
आर्थिक जासूसी: गठजोड़ की गांठ खुले तो मानें

नीरा राडिया टेप कांड में ऐसे बड़ों-बड़ों के नाम जगजाहिर हो गए थे, फिर भी कानून के लंबे हाथ उनका बाल बांका नहीं कर पाए। वह सारा मामला अब सार्वजनिक स्मृति में एक धुंधली रेखा बनकर रह गया है। कहीं यही हश्र इस ताजा प्रकरण का भी न हो, यह आशंका अरविंद केजरीवाल की इस उम्मीद में आप छिपी देख सकते हैं कि सरकार इस कांड के असली जवाबदारों को शायद कानून की जद में लाएगी। यह उम्मीद है या व्यंग्य?

अबतक की जांच में कानून के हाथ रिलायंस उद्योग समूह, रिलायंस अनिल धीरू भाई अंबानी समूह, वेदांता के मालिक अनिल अग्रवाल के केयर्न इंडिया समूह और एस्सआर जैसी कुछ बड़ी कंपनियों के कुछ कर्मचारियों, कुछ छुटभैये सरकारी कर्मचारियों और अब लॉबीस्ट बन गए कुछ पत्रकारों तक पहुंचे हैं। बड़े कॉर्पोरेट मालिकान, बड़े सरकारी अधिकारी और राजनीतिक ओहदेदार इस जद से बाहर हैं। वैसे गृहमंत्री राजनाथ सिंह का कहना है कि कोई दोषी कितना भी बड़ा क्यों न हो, बख्शा नहीं जाएगा, लेकिन आगे-आगे देखिए, होता है क्या। 

कहते हैं, विभिन्न मंत्रालयों के आर्थिक नीति संबंधी गोपनीय दस्तावेज लगातार लीक होने की ओर सरकार का ध्यान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने खींचा था। फिर दिसंबर में डोभाल ने मंत्रिमंडल के सदस्यों के साथ बैठकें कर उन्हें अपने-अपने विभागों में निगरानी व्यवस्था कड़ी करने की सलाह दी थी। इसी क्रम में केंद्रीय सचिवालय के विभिन्न भवनों में सरकार ने सीसीटीवी कैमरे भी लगवाए। यहां तक कि कैबिनेट बैठकों के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय ने फाइलें और कागज के इस्तेमाल की जगह मंत्रियों के लिए किंडल के इस्तेमाल की तजवीज की। हालांकि सरकारी दस्तावेजों की चोरी से फोटोकॉपी करते वक्त ये सीसीटीवी कैमरे निरस्त कर दिए गए थे, फिर भी कड़ी निगरानी की वजह से वर्तमान मामला पकड़ में आया। अभी तक पुलिस ने जो मामला बनाया है, वह यह है कि कुछ लोगों ने चोरी से सरकारी दस्तावेज फोटोकॉपी किए, उन्हें कुछ लॉबीस्टों को बेचा, लॉबीस्टों ने उन्हें कुछ बड़ी कंपनियों को बेचा जिनके कुछ कर्मचारियों ने अपनी कंपनियों के लिए ये दस्तावेज लॉबीस्टों से खरीदे। यानी कानून की नजर में लीकेज की गेंद सत्ता के गलियारों से लुढक़ती हुई कुछ बड़ी कंपनियों के अधिकारियों तक ही पहुंची है। अभी उससे आगे गेंद के गंतव्य पर कानून ने अपनी अंगुली नहीं रखी है। कानून की निगाहें इससे आगे भी पहुंचेंगी या नहीं, यह अभी देखना है।

अगर सरकार का मकसद सिर्फ अपने दस्तावेजों को लीक होने से रोकना है तो भ्रष्ट्राचार के स्रोत यानी अर्थव्यवस्था को विकृत करने वाले जेबी पूंजीवाद और राजनीतिक-प्रशासनिक सत्ता तथा मीडिया के गठजोड़ तक कानून कभी नहीं पहुंच पाएगा। कितने भी छुटभैये पकड़े जाएं बड़े कॉर्पोरेट, राजनीतिक, नौकरशाही और मीडियाई सरगना अपने संकीर्ण दायरे में सूचनाओं के साझा नियंत्रण और भ्रष्ट, अपारदर्शी आर्थिक संसाधन बंटवारे के नए तौर-तरीके आसानी से विकसित कर लेंगे (इलेक्ट्रॉनिक पासवर्ड बेचे जा सकते हैं, हैकिंग हो सकती है, सूचनाओं का लेनदेन मौखिक/नकदी आधारित हो सकता है)। होगा सिर्फ यह कि ये सारे साझीदार सरगना म्यूजिकल चेयर के खेल की तरह निश्चित अवधियों पर राजनीतिक-आार्थिक सत्ता की कुर्सियों की अदला-बदली करते रहेंगे। कुछ दिन तुम चांदी काटो तो कुछ दिन हम। कभी एक राजनीतिक पार्टी तो कभी दूसरी। कभी कुछ औद्योगिक घराने तो कभी कुछ अन्य। कभी कुछ अफसर तो कभी दूसरे। कभी कुछ मीडिया घराने तो कभी कुछ अन्य। जिस बंद चारदीवारी के अंदर यह खेल चलता है, आम जनता उसके बाहर ही कुछ झरोखों से ताकझांक कर पाए तो बहुत है। इस ताकझांक से कुछ सच्चाई दीख जाए और जनता कुछ शोर मचा दे तो छोटी-मोटी सुनवाई भी हो जाए। बाकी तो सारा खेल आम जनता के आर्थिक हितों को धकिया कर ही चलता है और चलता रहेगा।

सारा खेल धन के बंधन में सिकुड़ते जा रहे लोकतंत्र की महंगी चुनाव व्यवस्था से शुरू होता है। जो जमूरे की गांठ में दमड़ी देता है वही करतब-कलाबाजी करवाता है और फिर अपनी अतिरिक्त पाई पाता है।

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