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धौलपुर में सफल हुए भाजपा के दांवपेच

आधी-अधूरी रणनीति के कारण हारी कांग्रेस, जीत में दिखी वसुंधरा राजे की रणनीतिक कुशलता, बसपा के पूर्व विधायक की पत्नी भाजपा के टिकट पर जीतीं
समर्थकों के साथ मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे

राजस्थान विधानसभा के धौलपुर उपचुनाव में भाजपा ने 38,673 वोटों के अंतर के साथ ऐतिहासिक जीत दर्ज की, लेकिन इस उपचुनाव में जीत-हार शतरंज के मोहरों से ज्यादा कैरमबोर्ड की गोटियों सरीखी थी। निशाना किसी गोटी पर था और चोट किसी गोटी पर लगाई जा रही थी। आप इसे उपचुनाव भले कहें, लेकिन असल में यह 2018 के विधानसभा चुनावों का ट्रेलर है। राजनीतिक महत्व की दृष्टि से धौलपुर राजस्थान का बहुत छोटा विधानसभा क्षेत्र है। लेकिन इस उपचुनाव पर सभी की निगाहें बहुत दिनों से लगी थीं। कारण यह कि भाजपा अगर यह चुनाव हार जाती तो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के विरोधी बहुत सक्रिय हो जाते और वे मुखर होकर उन्हें बदलने की मांग करने लगते, लेकिन कांग्रेस की रणनीतिक भूलों और अंदरूनी कमजोरियों तथा वसुंधरा राजे की रणनीतिक कुशलता से ऐसा नहीं हो सका।

इस चुनाव का एक संदेश बहुत स्पष्ट है कि वसुंधरा राजे ने अपने सभी विरोधियों को परास्त करके अपने मजबूत होने का सबूत दिया है। पार्टी के भीतर भी और पार्टी के बाहर भी। कुछ दिन पहले ही राजस्थान भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी ने बयान दिया था कि वसुंधरा राजे ही मुख्यमंत्री रहेंगी और उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाएगा। यह बयान बता रहा था कि पार्टी के अंदर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। लेकिन धौलपुर उपचुनाव के नतीजों ने राजस्थान की राजनीतिक बयार को बदल दिया है।

धौलपुर के उपचुनाव को नजदीक से देखने वाले राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि भाजपा सियासी चुनाव जीत गई, लेकिन नैतिक लड़ाई हार गई। ऐसे बयान पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के भी आए हैं, जो धौलपुर में चुनाव प्रचार के लिए गए थे। लेकिन कांग्रेस सियासी लड़ाई तो धौलपुर में हारी ही, उसके घर की कलह की आशंकाएं भी बढ़ गई हैं। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने इस चुनाव को जीतने के लिए पूरा दमखम लगाया, लेकिन इस चुनाव ने बता दिया कि राजस्थान में सत्ता वापसी की उम्मीदें लिए बैठी इस पार्टी की चुनौतियां बेहिसाब हैं।

राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने यह चुनाव जीतकर अपने विरोधियों को करारा जवाब दिया है, लेकिन उन्हें यह चुनाव जीतने के लिए काफी कड़वे घूंट पीने पड़े और समझौतों की राह चलना पड़ा। लेकिन उनके प्रति सहानुभूति रखने वाले प्रेक्षक मानते हैं कि वसुंधरा राजे ने एक हारी हुई लड़ाई को अपने राजनीतिक चातुर्य से ऐतिहासिक जीत में बदल दिया है और कांग्रेस ने पिछले चार उपचुनावों में जो बेहतरीन प्रदर्शन किया था, उस पर धूल फेर दी है।

शायद आज की राजनीति इसी को कहते हैं कि जीत किसी भी कीमत पर मिल जाए और हार को कोई भी कीमत देकर टाला जाए। इस जीत के काफी सियासी मायने हैं। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कहा कि धौलपुर की यह जीत राज्य सरकार के तीन साल के विकास कार्यों और सुशासन की जीत है। यह जनता के विश्वास का प्रतिफल है। यह अभूतपूर्व जीत आने वाले विधानसभा के नतीजों का संकेत है। भाजपा सुराज के अपने संकल्प पर खरा उतरते हुए 2018 में होने वाले चुनाव में भी भारी बहुमत से सरकार बनाएगी।

सचिन पायलट कहते हैं कि धौलपुर में भाजपा नहीं, राजस्थान सरकार के संसाधनों के दुरुपयोग की जीत है। मुख्यमंत्री ने सरकारी संसाधनों और प्रशासनिक मशीनरी का भरपूर इस्तेमाल किया। उन्हें डर था कि वे हार जाएंगी तो उनका मुख्यमंत्री पद खतरे में पड़ जाएगा। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कहते हैं कि धौलपुर में भाजपा की जीत मुख्यमंत्री की नैतिक हार है, क्योंकि पहली बार हुआ कि भाजपा सरकार और मुख्यमंत्री ने आचार संहिता को पूरी तरह नकार दिया। लेकिन सब जानते हैं कि इस समय न तो कांग्रेस के भीतर ही सब कुछ ठीक चल रहा है और न ही भाजपा में। भाजपा में इस बार वसुंधरा राजे विरोधी खेमा कमजोर जरूर है, लेकिन फिर भी वह गाहे-बगाहे सोशल मीडिया में अफवाहों का बाजार गर्म किए रहता है। यह अलग बात है कि वसुंधरा राजे प्रदेश की राजनीति में अपने पांव बहुत मजबूती से टिकाए हैं और उनके विरोधी उनका कुछ नहीं कर पा रहे हैं। भले वे पार्टी के भीतर हों या बाहर।

धौलपुर वह इलाका है, जहां से वसुंधरा राजे ने अपना राजनीतिक कॅरियर शुरू किया था। वे 1985 में इस विधानसभा क्षेत्र से पहली बार विधायक बनी थीं। इससे पहले भाजपा या जनसंघ को यहां से जीत नहीं मिली थी। लेकिन बाद में वसुंधरा राजे ने यह इलाका छोड़ दिया। वसुंधरा राजे के नाम के साथ जुड़ा महारानी शब्द इसी धौलपुर की राजघराने की बहू होने की वजह से है।

राजनीतिक कुशलता बनाम समझौता परस्ती

आप इसे राजनीतिक कुशलता कहें या समझौता परस्ती। लेकिन यह सच है। इस विधानसभा क्षेत्र से 2013 में बसपा के बीएल कुशवाह चुनाव जीते थे। उन्होंने कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवारों को हराया था। भाजपा यहां तीसरे स्थान पर रही थी। बीएल कुशवाह हत्या के एक मामले में फंस गए और जेल भेज दिए गए। भाजपा की सरकार ने उनकी गिरफ्तारी और उनकी सदस्यता खत्म कराने के लिए जमीन-आसमान एक किए रखा, लेकिन वक्त का फेर देखिए कि भाजपा के नेताओं ने उन्हीं बीएल कुशवाह के यहां शरण ली और उनकी पत्नी शोभारानी कुशवाह को टिकट दिया। यानी बसपा और भाजपा का वोट जुड़ गया और जब नतीजे निकले तो वह इसी अंदाज से सामने भी आया। कांग्रेस ने अपने वोट तो बढ़ाए, लेकिन वह बुरी तरह हारी।

कांग्रेस के नेताओं का आरोप है कि वसुंधरा राजे ने सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग करके यह चुनाव जीता। भाजपा ने कांग्रेस की बहुत कड़ी घेराबंदी की और समाजवादी पार्टी तक का उम्मीदवार कांग्रेस प्रत्याशी के नाम से उतरवा दिया। अगर कांग्रेस के नेता एकजुट होकर रणनीति बनाते तो वे बसपा को इस चुनाव में उतार सकते थे और ऐसे में भाजपा का सारा गणित बुरी तरह गड़बड़ा जाता।

धौलपुर के चुनाव नतीजे भले कांग्रेस और भाजपा की सियासी सेहत पर कोई खास असर नहीं डालते हों, लेकिन आने वाले विधानसभा चुनावों की रणनीति का आभास जरूर करा देते हैं। कांग्रेस में एकजुटता का अभाव है। प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत मंचों पर तो साथ दिखते हैं, लेकिन मनों में दूरियां बहुत गहराई हुई हैं। लोकसभा चुनाव के ठीक बाद कुछ विधायकों के सांसद बन जाने से जब सीटें खाली हुईं तो सूरजगढ़, वैर और नसीराबाद के उपचुनाव कांग्रेस ने बहुत शानदार ढंग से जीते थे और सचिन पायलट की वाहवाही हुई, लेकिन धौलपुर की हार ने उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं और उनके विरोधियों को मजबूत किया है, इसमें दो राय नहीं है। धौलपुर में कुछ लोगों का यह भी कहना है कि कांग्रेस के सभी नेता सचिन पायलट का अगर साथ देते तो यह स्थिति नहीं होती। ब्रज-डांग क्षेत्र के इस इलाके में नेता कांग्रेस के साथ तो दिखे, लेकिन वोटों का जातिगत ध्रुवीकरण करवा दिया गया और कांग्रेस हार गई।

इस छोटे चुनाव की बड़ी कहानी सिर्फ इतनी सी है कि बसपा और भाजपा का वोट मिल गया और कांग्रेस का वोट थोड़ा बढ़ा जरूर, लेकिन इतना नहीं कि वह बसपा और भाजपा के कुल वोटों को पार कर जाए। यानी यह कांग्रेस की रणनीतिक हार और भाजपा की रणनीतिक जीत है। राजनीतिक युद्धों में सिद्धांतों और स्वाभिमान की बात करना बेमानी है। कांग्रेस की यह रणनीतिक हार है और इस रणनीतिक हार के मायने बहुत दूर तक जाते हैं। यह परिणाम भाजपा में बड़े नेताओं के बीच टकराव बढ़ाएगी और कांग्रेस में भी।

 

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