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...और बदल गए गदर

दशकों तक खुले बदन वर्ग संघर्ष की अलख जगाने वाले लोक कवि गदर ने विद्रोह की बोली बदली तो मानो नक्सल और माओवादी आंदोलन का भी एक बड़ा चक्र पूरा हुआ
68 साल के गदर हाल में हैदराबाद के यदाद्र‌ि मंद‌िर में, सहमना दलों को एकजुट करने का लक्ष्य

उन्हें खुले बदन हर चौक-चौराहे और सार्वजनिक मंचों पर क्रांतिकारी गीतों से अलख जगाते जिन लोगों ने देखा-सुना है, उनके लिए इस तेलुगु लोक कवि का माओवाद को त्याग देने का ऐलान चौंका गया होगा। छह अप्रैल को इस करीब सत्तर साल के बुजुर्ग ने लोकतंत्र को गले लगाने का ऐलान किया। संयोग यह है कि इसके ठीक दो दशक पहले वे हत्या की कोशिश से बच निकले थे। उन्होंने अपनी वोटर बनने की अर्जी लहराते हुए कहा, 'मैंने अपने वोट की अर्जी दी है। मैं किसी पार्टी का सदस्य नहीं हूं। मैं सिर्फ एक आम आदमी हूं, जो अपनी राह तय करने को स्वतंत्र है।’ हैदराबाद की एक सभा में यह बोलते हुए उनकी आवाज में दर्द और राहत दोनों ही भाव थे।

नक्सलबाड़ी से शुरू हुए किसान विद्रोह के इसी मई में पचास साल पूरे हो रहे हैं (अगले पन्नों पर देखें तवारीख)। इन वर्षों में सैकड़ों नक्सलवादी कानून के आगे समर्पण कर चुके हैं। फिर भी गदर के माओवादी पार्टी से चार दशक के रिश्ते को तोड़ने के फैसले को अनदेखा नहीं किया जा सकता। यहीं नहीं, उन्होंने वामपंथी सांस्कृतिक मंच जन नाट्य मंडली से भी नाता तोड़ लिया है, जिसकी वर्षों पहले उन्होंने ही स्थापना की थी और बड़ी लगन से उसके लिए काम किया था। लंबे समय तक यह मंडली मध्यभारत के हजारों शिक्षित युवाओं और गरीब-गुरबों को राज्य के खिलाफ हथियार उठाने और वर्ग संघर्ष में अपनी आहुति देने की प्रेरणा देती रही है।

गदर का जन्म 1949 में एक दलित भूमिहीन मजदूर परिवार में मेडक जिले में हुआ था, जो अब पश्चिम-मध्य तेलंगाना का हिस्सा है। इूपरान गांव में बचपन में उनका नाम गुम्मादी विट्टल राव था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए उनका दखिला उस्मानिया विश्वविद्यालय में हुआ लेकिन नक्सलबाड़ी विद्रोह के असर में उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। 1972 में गदर ने समांतर फिल्मकार बी. नरसिंह राव के साथ मिलकर जन नाट्य मंडली की स्थापना की। राव ने काफी पहले ही इस मंडली से नाता तोड़ लिया था। मा भूमि (हमारी जमीन) जैसी फिल्म बनाने वाले राव अब कहते हैं, '15-20 लोगों की मुख्य टोली में गदर सबसे प्रभावी थे। गदर गीत भी लिखा करते थे।’ निजाम के खिलाफ 1946-51 के तेलंगाना किसान विद्रोह पर लिखे गदर के गीत बांदेनाका बंदी कट्टी हमेशा लोगों को क्रांतिकारी जज्बे से भर देता रहा है। उन्होंने 1980 की फिल्म में भी इसे गाया था।

जन नाट्य मंडली सामाजिक जागरूकता फैलाने और शोषण के खिलाफ लोगों को क्रांति के लिए एकजुट करने के खातिर तेलंगाना की लोक कलाओं ओगु कथा, वीधि भागोथत और दापू का इस्तेमाल किया करती थी। समाज विज्ञानी मल्लेपल्ली लक्ष्मैया बताते हैं कि गदर यालारो ई माडिगा बाठुकु (यह दलित जीवन किस काम का) गीत में तेलंगाना में जाति शोषण का जिक्र करते थे और उसके जरिए दलित तथा पिछड़े समाज को नक्सलवादी आंदोलन के लिए एकजुट किया करते थे। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर दलित स्टडीज के चेयरमैन लक्ष्मैया कहते हैं, 'ऊची जातियों खासकर वेलामा समुदाय वेट्टी (मुफ्त मजदूरी) की प्रथा के तहत अनुसूचित जातियों का शोषण किया करती थीं। यही शोषण नक्सल आंदोलन के लिए बड़ी जमीन तैयार कर रहा था।’

जब भी आंदोलन कुछ कमजोर होता लगा, गदर के गीतों ने उसमें जोश भरने का काम किया। उनके गीतों ने गजब का असर पैदा किया और युवक क्रांति के लिए भूमिगत आंदोलन से जुडऩे लगे। गदर भी खुद 1985 से 1990 तक भूमिगत रहकर काम करते रहे। खुले वदन गदर एक हाथ में लाठी में लाल झंडा लिये चला करते थे। इस तरह वे विद्रोह के प्रतीक बन गए।

फिर छह अप्रैल 1977 को गदर पर उनके सिकंदराबाद के वेंकटपुरम घर में जानलेवा हमला हुआ। गदर उसे पुलिस की कारस्तानी मानते हैं। इस हमले में एक गोली उनकी हड्डियों में फंस गई लेकिन इससे उनके क्रांतिकारी गीतों का सफर रुका नहीं। अब 71 वर्ष के राव कहते हैं, 'लोक गायकी की परंपरा में गदर का योगदान बेमिसाल है। लगभग चार दशकों तक गदर ने जनता के हित में अनोखे साहस का परिचय दिया।’

जनामं दंडकारण्य में 2004 में चेतना नाट्य मंच की स्थापना का भी प्रेरणा बना। उनके गीतों का दक्षिण-मध्य की द्रविड भाषा कोया में अनुवाद किया गया और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों ने उसे अपना गाना बना लिया। आउटलुक ने गदर से नक्सल आंदोलन और जन नाट्य मंच में उनके योगदान पर जानना चाहा तो उन्होंने कुछ कहने से इनकार कर दिया। उन्होंने अपने बेटे सूर्यदु के जरिए संदेश भेजा कि 'अब अपने अतीत को खंगालने से क्या फायदा।’

गदर ने माओवादी आंदोलन से खुद को अलग करने का ऐलान करते हुए कहा था, 'शुरू में मैं आंबेडकरवादी था लेकिन उस्मानिया विश्वविद्यालय में मैं नक्सलवादी आंदोलन की ओर आकर्षित हुआ। मैं कल तक आंदोलन को आगे ले जाने के लिए दोनों विचारधाराओं को साथ लेकर चलता रहा हूं। लेकिन मेरे मूल संगठन में इसको लेकर काफी बहस हुई। मेरी दलील थी कि भारतीय संदर्भ में हमें मार्क्सवादी विचारों के साथ भीमराव आंबेडकर और ज्योति बा फुले के विचारों को आत्मसात करना होगा क्योंकि भारतीय समाज में जाति का एक अलग संदर्भ है। लेकिन ये विचार ग्राह्य नहीं हुए। यह कोई विरोध नहीं, दोस्ताना अंतर्विरोध भर है। आखिरकार मैंने आंखों में आंसू लिए अपनी मां जैसी पार्टी को छोड़ देने का फैसला किया।’ इसके साथ ही गदर ने अपना क्रांतिकारी गीत सभी नायकों को लाल सलाम गाया।

पार्टी लाइन से अलग विचार रखना गदर के लिए कोई नई बात नहीं है। उन्हें 1995 में 'अपने निजी हितों के खातिर पार्टी के नाम और फंड के दुरुपयोग’ के आरोप में पीपुल्स वार ग्रुप से छह महीने के लिए निलंबित कर दिया गया था। उनके खिलाफ आरोपों में क्रांतिकारी गीतों को फिल्मों के लिए बेचने, अपने सिकंदराबाद घर के पास महाबोधि विद्यालय के निर्माण के लिए चंदा जुटाने और किताबें तथा ऑडियो कैसेट की बिक्री करना शामिल था। गदर ने इन आरोंपों से इनकार किया लेकिन माना कि उन्होंने स्कूल के लिए चंदे या फिल्मों में गीत देने के लिए पार्टी से कोई इजाजत नहीं ली थी।

इस निलंबन के बाद पार्टी ने गदर में फिर आस्था जताई और 2002 और 2004 में आंध्र सरकार के साथ बातचीत के लिए वरवर राव के साथ उन्हें भी नियुक्त किया। बातचीत नाकाम हो गई। लेकिन, अगस्त 2005 में वाई.एस. राजशेखर रेड्डी सरकार ने माओवादियों और वरवर राव के क्रांतिकारी लेखक संघ को फिर प्रतिबंधित कर दिया। वरवर राव और कल्याण राव तो गिरफ्तार कर लिए गए लेकिन गदर को पुलिस ने नहीं पकड़ा। शायद यह उनकी लोकप्रियता ही थी जिससे सरकार ने उन्हें बख्श दिया।

गदर ने एक राजनीतिक अभियान भी शुरू करने की बात की है। उन्होंने हैदराबाद की सभा में कहा, 'अब मैं आपसे वोट देने की अपील तेलंगाना की सामाजिक-राजनीतिक चेतना के लिए कर रहा हूं।’ उन्होंने कोई राजनीतिक पार्टी बनाने की बात तो नहीं की पर सहमना राजनैतिक दलों को एक साथ लाने की योजना बना रहे हैं, जो माक्र्स, आंबेडकर और फुले के विचारों में यकीन करते हैं।

इस तरह नक्सल आंदोलन और क्रांतिकारी विद्रोह की राजनीति में गदर का यह बदलाव अहम माना जाएगा। यह एक जन विद्रोह के रूपांतरण की भी कहानी है।

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