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सख्ती पर भरोसे से बिगड़े हालात

कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया से विश्वास की बहाली और नौजवानों से संवाद ही कारगर उपाय
सेना की जीप के बोनट पर बंधा युवक

कश्मीर में हालात दो-ढाई साल से कभी अच्छे नहीं रहे। लेकिन देश के अन्य हिस्सों में इसका असर नहीं दिखता था, खास चिंता नहीं जाहिर की जाती थी। इसका कारण रहा, देश के बड़े हिस्से में मोदी सरकार के जलवा का कायम रहना। नोटबंदी, समाज में बढ़ते सांप्रदायिक विद्वेष, महंगाई और किसानों की नाराजगी के बावजूद भाजपा ने एक के बाद एक कई बड़ी कामयाबियां हासिल कीं। अंत में उसने यूपी जैसे बड़े प्रदेश का चुनाव प्रचंड बहुमत से जीता। प्रधानमंत्री मोदी की दर्जनों विदेश यात्राएं भी उनकी कामयाबी का डंका बजाती रहीं। 'इलेक्शन’ से 'डिप्लोमेसी’ तक उन्हें अपराजेय माना जाने लगा। लेकिन 9 अप्रैल को श्रीनगर संसदीय सीट का मामूली सा उपचुनाव राष्ट्रीय-राजनीति के लिए खास बन गया। यहां के न्यूनतम मतदान से पूरे देश में केंद्र की कश्मीर-नीति की विफलता चर्चा का विषय बन गई। 8 लोगों की मौत, 200 से ज्यादा नागरिकों और 100 जवानों के घायल होने के बीच सिर्फ 7 फीसद मतदान! ऐसा क्यों हुआ? आखिर सन 2014 के संसदीय चुनाव में इन्हीं कश्मीरियों ने 50 फीसदी मतदान किया था, विधानसभा चुनाव में उससे भी ज्यादा 65 फीसदी किया। फिर 2017 में मतदान औसत 7 फीसदी क्यों हुआ? आतंकवाद के सबसे बुरे दिनों में भी इतना कम मतदान कभी नहीं हुआ।

कश्मीर फिर सुर्खियों में आ गया। दिल्ली में राजनीतिज्ञ और योजनाकार स्तब्ध हैं। लेकिन कश्मीर के लोगों और वहां के घटनाक्रम पर नजर रखने वालों के लिए यह सब आश्चर्यजनक नहीं है। बीते पौने तीन साल से वहां जो कुछ चल रहा था, उसका ही यह एक पड़ाव भर है। सन 2002 से मई, 2014 के बीच कश्मीर में जितना कुछ हासिल किया गया, हाल के दिनों में उसका अधिकांश बर्बाद होता नजर आया। एनडीए-1 की वाजपेयी सरकार और बाद की मनमोहन सरकार की कश्मीर-नीति के सकारात्मक कदमों और दक्षिण एशिया की भू-राजनीतिक स्थिति में हुए बदलाव के चलते कश्मीर का माहौल अपेक्षाकृत बेहतर हुआ था, जिसे 2014 के बाद के कुछ घटनाक्रमों ने फिर से नकारात्मक दिशा में मोड़ दिया। मुफ्ती सईद और फिर उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती की भाजपा से मिलकर सरकार बनाने के फैसले को भी घाटी ने सिरे से खारिज किया। इसका ठोस संकेत अनेक मौकों पर मिला। भाजपा ने दोनों को मुख्यमंत्री के रूप में उन्मुक्त होकर काम करने की इजाजत भी नहीं दी। घाटी में भाजपा अपने एजेंडे पर डटी रही। नतीजतन, श्रीनगर, बारामूला, कुपवाड़ा, सोफियां, अनंतनाग और बडगाम में समय-समय पर तनाव दिखता रहा, कभी एनआईटी छात्रों के मामले, कभी मशर्रत आलम रिहाई-गिरफ्तारी, कभी पंडितों की 'अतिसंरक्षित कालोनी’ का प्रस्ताव, कभी क्रिकेट मैच विवाद तो कभी तिरंगे के साथ कश्मीरी सूबे का झंडा फहराने को लेकर। बीते वर्ष, 8 जुलाई को हिज्बुल के कथित कमांडर बुरहान बानी के मारे जाने के बाद घाटी में अचानक जनाक्रोश फूट पड़ा, जो सर्दियां बढ़ने तक जारी रहा। इस दरम्यान सुरक्षा बलों द्वारा सैकड़ों युवक मारे गए। सेना ने पहली बार इजराइली पैलेट-गनों का इस्तेमाल किया, जिसकी अनेक हलकों में आलोचना हुई।

वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों ने ऐसी गलती कभी नहीं की। उन्हें मालूम था कि घाटी में कानून व्यवस्था के मसले अपनी जगह हैं पर घाटी का बुनियादी मसला राजनीतिक है। दोनों ने उतार-चढ़ाव के बावजूद आधिकारिक संवाद और ट्रैक-2 डिप्लोमेसी का सिलसिला स्थायी तौर पर कभी बंद नहीं किया। उन्होंने ट्रैक-2 में तरह-तरह के लोगों और विशेषज्ञों का उपयोग किया। पर आज मोदी सरकार के ज्यादातर रणनीतिकार या तो खुफिया एजेंसियों के रिटायर उच्चाधिकारी हैं या आरएसएस जैसे संगठनों के कार्यकर्ता। इन्हें लगता है कि सिर्फ कड़े सैन्य तौर-तरीकों या लोगों को डरा-धमकाकर मसले को आसानी से हल किया जा सकता है। इन्हीं के फीडबैक से मोदी जी का वह बहुचर्चित जुमला भी सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा: कश्मीर के युवाओं के सामने दो ही विकल्प है: 'टेररिज्म या टूरिज्म!’ सुनने में तो यह अनुप्रास अच्छा लगता है पर कश्मीरी युवाओं को बहुत कुछ चाहिए और उसमें सर्वोपरि है, आफ्सपा-मुक्त आत्मसम्मान, उत्पीड़न-मुक्त जीवन और रोजगार के साथ राजनीतिक मामलों में सोचने-समझने का नागरिक अधिकार। यूपीए-1 के दौर में बने पांच विशेष कार्यसमूह हों या बाद की तीन सदस्यीय पडगांवकर कमेटी, सबने माना कि कश्मीर मसले का समाधान एक लंबी राजनीतिक प्रक्रिया के तहत होगा। यहां तक कि वाजपेयी दौर के सभी प्रमुख सलाहकारों और ट्रैक-2 से जुड़े वार्ताकारों की भी यही सिफारिशें थीं। कुछ ही महीने पहले भारतीय सेना की उत्तरी कमान के तत्कालीन प्रमुख ले. जनरल डी एस हुड्डा ने भी कहा था, 'कश्मीर समस्या बुनियादी तौर पर राजनीतिक है, कानून व्यवस्था की नहीं। सभी पक्षों को इसके समाधान की पहल करनी चाहिए।’ सेना का एक शीर्ष अधिकारी इससे ज्यादा क्या कहता?

हम चाहे जितनी तेज आवाज में बोलते रहें कि कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है पर एक बात ईमानदारी से माननी होगी कि उसी कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है और जो हिस्सा भारत के साथ है, वहां की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अपनी संविधान-प्रदत्त स्वायत्तता के लगातार सिकुड़ने, 'आफ्सपा’ सहित कई दमनकारी कानूनों के जुल्मो-सितम के चलते राष्ट्र-राज्य से नाखुश है। ऐसे मुद्दों को बिजली-पानी, जनधन खाता, नोटबंदी, कैशलेस इकोनॉमी या स्वच्छता अभियान जैसे कदमों से कैसे संबोधित किया जा सकता है? अब तक के तमाम घटनाक्रमों से यह बात आईने की तरह साफ है कि कश्मीर में अमन-चैन, राजनीतिक प्रक्रिया की मजबूती या समस्या के निर्णायक समाधान का कोई भी रास्ता बंदूकों-ग्रेनेडों, पत्थरबाजी, पैलेट गनों या आम नागरिकों को सुरक्षा बलों के वाहनों पर ढाल के तौर पर इस्तेमाल करने जैसे हथकंडों से होकर नहीं गुजरता। परस्पर विश्वास की बहाली और संवाद ही कारगर रास्ता है। क्या इसके लिए सभी पक्ष तैयार हैं? क्या अब सरकार अपनी कश्मीर-नीति में सोच और रणनीति के स्तर पर सकारात्मक बदलाव करेगी? आज सिर्फ कश्मीर को ही नहीं, पूरे देश को इस बदलाव की सख्त जरूरत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कश्मीर पर कई पुस्तकों के लेखक हैं)

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