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भंग चढ़ गई

होली में 'काम’ बोलता है, ठंडई का भांग बोलता है, मस्ती का रस घोलता है
भंग की प‌िसाई करता एक व्यक्त‌ि

वैसे तो हर बार देश के विभिन्न हिस्सों में होली रंग, गुलाल, ठंडई और भांग के कॉकटेल से गुलजार होती है। चारों ओर गुलाल के उड़ते बादलों व होरी गीतों के बीच भांग और ठंडई की मस्ती परवान चढ़ती है। लेकिन इस बार होली जरा हटके है। जब पूरे देश की होली का मूड बनाने का ठेका भांग और ठंडई के मक्‍का बनारस को मिल गया हो तो क्‍या कहने। तो ठंडई और भांग के आदिमबी-स्कूल में आपका स्वागत है। भांग- ठंडई की नगरी बनारस ने इस बार पूरे देश को होली के लिए अपने पास बुलाया है। भले ही आप वहां न जाएं लेकिन इस बार आप बनारसी भांग और ठंडई की तरंग से अछूते नहीं रह सकते। देश के विभिन्न हिस्सों की भांग- ठंडई की सीरत अलग अलग होती है लेकिन उनमें वो बात कहां जो बम-बम भोले के नाम के बनारस के प्याले में होती है। इस बार बनारसी होली में चुनावी रंग और नशा भी मिल गया है सो अलग। पीएम मोदी ने भी यूपी, खास कर बनारस में चुनावी भंग घोटने में खासी मेहनत की है। इस खास होली में उनका भी अपने संसदीय क्षेत्र बनारस की ठंडई का स्वाद लेना बनता है, वरना ठंडई की तौहीन होगी।

ठंडई के साथ होली खेलने वाले

सो पिछले कई महीनों से चल रहे उबाऊ भाषणों के डोज से तौबा करते हुए होली की मुनादी करते हैं। अब कोई नहीं बोलेगा, केवल भांग बोलेगा। ठंडई का भांग से शृंगार हो जाए तो फिर रोमांस यूं जगता है कि भांग खुद बौरा जाता है। हवा में, कुएं में, पूरी गंगा में भांग घुला है इस बार। कहते हैं भांग को जितना घोटो, नशे की सीरत उतनी ही बेपनाह होती है, बेपनाह मुहब्‍बत की तरह। ठंडई के बिना होली बेरंग है चाहे जितने ही गुलाल उड़ा लो या गुझिया खा लो। वैसे ठंडई में भंग मिलाओ या न मिलाओ, होली का मौसम हो तो वह अपने आप भी थोड़ा नशीला हो उठता है, रंगीला हो उठता है।

भांग का चस्का और उसके साथ इसका कारोबार पूरे देश में अभी रवानी पर है। भांग और ठंडई के शौकीन साल भर इसकी मस्ती के आनंद में मगन रहते हैं। बनारस में हर महीने 45 ञ्चिवंटल भांग की बिक्री हो जाती है। बिहार में भी शराबबंदी के बाद भांग की खपत बढ़ी है। इस बार पूरा बिहार भांग और ठंडई की मस्ती में झूमेगा। दिल्ली में भी कई दुकाने हैं जहां विभिन्न क्रलेवर की भांग और ठंडई मिलती है। दरअसल, भांग हमारी संस्कृति में रचा बसा है। साथ ही शराब की कीमत चाहे आसमान छूने लगे, मयखाने के मजमे में कोई कमी नहीं आई है।

होली के रंग में स‌िद्धार्थ और आल‌िया

भंग का रंग जमा हो चकाचक, फिर लो पान चबाय। अइसा झटका लगे जिया पे, पुनरजनम होई जाए- अमिताभ बच्चन की फिल्म डॉन का यह गीत अब उत्तर प्रदेश और बिहार के लोकगीतों की तरह गाया जाने लगा है। इस गीत की पंक्तियां ही बताती है कि यहां के जनजीवन में भांग का कितना महत्व है। फगुनियाई मस्ती के लिए जरूरी साजो-सामान में शुमार हैं भंग भवानी। मस्ती के मूड में भांग के लिए तरन्नुम में निकला ठेठ देशज शरबत भंग भवानी, वह भी ठंडई के साथ। ठंडई के साथ भांग पीने-पिलाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। यह परंपरा सिर्फ होली ही नहीं शिवरात्रि, कृष्ण जन्माष्टमी, नववर्ष, श्रावण में भी एक महत्वपूर्ण खाद्य और पेय पदार्थ है। भांग को विजया भी कहा गया है। भांग और धतूरा से शिव के पूजन-अर्चन की परंपरा भारत में सदियों पुरानी है। हिंदी फिल्मों में राजेश खन्ना-मुमताज पर फिल्माए गए गाने 'जय-जय शिवशंकर कांटा लागे न कंकड़’ में भंग का नशा दर्शकों के सिर चढक़र बोला था। वैसे होली तो बॉलीवुड का सबसे पसंदीदा त्योहार रहा है जिसे फिल्माने के लिए पुराने से लेकर नए जमाने तक के फिल्मकार बेताब रहते हैं। भारतीय सिनेमा जगत की अबतक की सबसे कामयाब फिल्म मानी जाने वाली शोले में होली के रंगों की मस्ती कौन भूल सकता है। होली, भंग और सुरा के कातिल मेल से बने दृश्यों ने हमेशा बॉक्‍स आफिस पर धमाल किया है। हालिया फिल्मों में दीपिका पादुकोण की ये जवानी है दीवानी पर फिल्माया गया गाना 'बलम पिचकारी, जो तूने मुझे मारी’ तो शहरों से लेकर गांवों तक होली में बजने वाले डीजे का हिट गाना ही बन गया है। अभी सिनेमाघरों में पहुंची वरुण धवन और आलिया भट्टï की फिल्म बदरी की दुल्हनिया का शीर्षक गाना भी होली के रंगों के बीच ही फिल्माया गया है। वैसे भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में भी खास अवसरों पर भांग के सेवन और इसे अतिथियों के लिए प्रस्तुत करने की प्रथा बहुत पुरानी है। महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तराखंड, ओडिशा और असम सहित पूर्वोत्तर राज्यों में भांग का नियमित सेवन करने वालों की तादाद बहुत बड़ी है।

केंद्रीय मंत्री रव‌िशंकर प्रसाद होली के रंग में

शिवभक्‍त अपने आराध्य देव को भांग का स्नान कराते हैं, भांग का ही भोग लगाते हैं और फिर प्रसाद के रूप में इसे ग्रहण करते हैं। खासकर वाराणसी, उज्जैन, वैद्यनाथ धाम (झारखंड) सहित सभी 12 ज्योतिर्लिंगों में भांग पारंपरिक प्रसाद है।

भांग तैयार करने का बनारसी अंदाज बहुत खास और दूसरे स्थानों से अलग है। भांग की हरी ताजी या फिर सूखी पत्तियों को पानी में भिगोने के बाद, कज्जर यानी काजल की तरह पत्थर के सिल-बट्टे पर पीस-पीस कर तैयार करने का काम परिश्रम  के साथ कलापूर्ण है। भांग पाउडर, पिसी हुई गीली भांग की गोलियों के अलावा गुलकंद, काली मिर्च के साथ कीमती स्वर्ण भस्म, रजत (चांदी) भस्म, शिलाजीत बनारसी ठंडई और भांग बहुत प्रसिद्ध है। होली के हुरियारों की भीड़ बढ़ते ही इस बूटी की मांग भी बढ़ जाती है। लेकिन सिर्फ होली ही नहीं पूरे साल भांग की खपत होती है। बस होली पर तो औघड़ की यह बूटी नजरों और खबरों में आ जाती है। मध्यप्रदेश में भांग से आय बढ़ी है पर दुकानें घट गई हैं। मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश की तरह अलग ढंग से तरन्नुम में रहता है। यहां भांग के प्रचलन में लगातार कमी आती रही है लेकिन प्रदेश में शराबबंदी की अटकलों के बीच भांग के कारोबार ने फिर से जोर पकड़ लिया है। उत्तर प्रदेश के बनारस की तरह मध्यप्रदेश में भोले की नगरी उज्जैन ने इस बूटी की हरियाली को बचाए रखा है। यहां पर भांग खाने का प्रचलन सबसे ज्यादा है। महाकाल की भस्म आरती के दौरान भी भांग चढ़ती है। फिर इंदौर, देवास, शाजापुर आते हैं। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से अब भोपाल में भी भांग का प्रचलन बढ़ा है। हालांकि होली के दौरान उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश में भांग का शवाब पूरे जोर पर रहता है। बिहार के मिथिलांचल में भी भांग का सेवन जोरदार तरीके से होता है। वहां भी इसे शिव की बूटी के नाम से ही पुकारते हैं और होली पर तो हुरियारे जिस भी दरवाजे पर जाते हैं वहां अन्य पकवानों के अलावा ठंडई या फिर पिसी हुई भांग की गोलियां परोसी जाती हैं। वैसे मिथिलांचल में सिर्फ होली ही नहीं साल के अन्य दिनों में भी भांग का सेवन सामान्य है। खास बात यह है कि यहां गांवों में सडक़ किनारे जंगल की तरह भांग के पौधे अपने-आप पैदा हो जाते हैं और गांव वाले उसकी पत्तियां सुखाकर रख लेते हैं और समय आने पर उसका इस्तेमाल किया जाता है।

लेकिन पिछले कुछ सालों में होली पर भांग से ज्यादा शराब का प्रचलन बढ़ा है। यह भी रोचक तथ्य है कि हाल ही में भोले की नगरी उज्जैन में सिंहस्थ के दौरान मप्र सरकार ने उज्जैन नगर निगम सीमा में शराब की दुकानें बंद कर दी थीं तब भांग की खपत में बहुत उछाल आया था। औघड़ बाबाओं, नागा साधुओं के तंबुओं में गांजे का दम भी खूब लगा था।

मप्र में अंग्रेजी शराब की दुकानों की संख्‍या बीते सालों में बढ़ी थी और देसी शराब की दुकानें 2770 से घटकर 2624 रह गईं। इस साल से सरकार ने नर्मदा किनारे की 58 शराब की दुकानें भी बंद कर रही हैं। लेकिन भांग और डोडा चूरा की दुकानें भी घटी रही हैं। भांग दुकानों की संख्‍या बीते पांच सालों में 260 से घटकर 249 पर आ गई है। भांग की पांच सालों में नीलामी से आय 7 करोड़ 28 लाख से बढकऱ 10 करोड़ 92 लाख प्रतिवर्ष हो गई है। डोडा चूरा की बात करें तो यह 154 से घटकर 96 रह गई हैं। हालांकि डोडा चूरा दुकानों की नीलामी से आय में बहुत बढ़ोतरी हुई है। सन 2011-12 में जहां इसकी दुकानों की नीलामी से सरकार को 2 करोड़ 87 लाख रुपये मिले थे वहीं मौजूदा साल के दौरान यह आय 143 करोड़ 20 लाख रुपये हो गई है। इसकी बड़ी वजह यह है कि मप्र में इसकी खपत में कमी भले आई हो, लेकिन निर्यात बढ़ा है। पिछले साल राजस्थान सरकार के आग्रह पर मप्र में डोडा चूरा की नीलामी की गई थी क्‍योंकि इसकी खपत मप्र से ज्यादा राजस्थान में है।

भांग का नाम आते ही शिव की दोनों नगरी उज्जैन और बनारस ही याद आते हैं। ठेठ बनारसीपन है, तो शाम घाटों पर और दिन सिल-बट्टे पर बीतना चाहिए। बनारसी पिस्ता, काजू, बादाम के अलावा विभिन्न फलों आम, लीची, संतरा, अनानास के साथ ठंडई बनाने का भी प्रयोग करते हैं। यह सिर्फ ट्रांस में जाने की सीढ़ी नहीं है बल्कि इसका दवा के रूप में भी उपयोग किया जाता है। शराब के नशे की लत छुड़ाने, दस्त की बीमारी, अपच, लू लगने, बुखार, भूख न लगना, जबान लडखड़़ाने की बीमारी आदि में भी इसका उपयोग किया जाता है। बाबा विश्वनाथ की नगरी बनारस में काशी विश्वनाथ के दर्शन के अलावा वहां मिलने वाली ठंडई दूसरा सबसे बड़ा आकर्षण है। वाराणसी में भांग को कानूनी मान्यता मिली हुई है।

बनारसी गर्व करते हैं कि यहां हर महीने 45 क्विंटल भांग बिक जाती है। अगर मौका महाशिवरात्रि और होली का हो तो बनारसी 50 से 55 क्विंटल भांग हलक में उतार लेते हैं। यहां 85 से ज्यादा अधिकृत छोटी-बड़ी दुकानें हैं जिन पर भांग और ठंडई का कारोबार होता है। बम भोले के इस प्रसाद यानी भांग से आम दिनों में सरकार सिर्फ 20 करोड़ रुपये कमा लेती है। खास मौकों पर यह रकम दोगुनी तक हो जाती है। शिव के गण होली पर भांग की कच्ची बूटी में मस्ती का पक्‍का रंग मिला कर मस्ती छानते हैं। समय के साथ पारंपरिक कच्ची गोली और मुनक्‍के के अंटे के साथ अब भांग की बर्फी, नानखटाई, और तिलकुट मलाई के साथ भांग की पकौड़ी पर्यटकों और भांग प्रेमियों को खूब भाती है। होली पर विशेष रूप से भांग के व्यंजन और मिठाइयां भी बनाई जाती हैं। अस्सी घाट ऐसी मिठाइयों के लिए प्रसिद्ध है। भांग की बर्फी, गुझिया की मांग सबसे ज्यादा रहती है।                

साथ में आकांक्षा पारे काशिव, अमितांशु पाठक और राजेश सिरोठिया

 

दाम बढ़े तो बढ़े, हमको पीनी है

सुमन कुमार

होली की आहट के साथ हवा में हर ओर एक खास नशा तिर जाता है। यह नशा रंग के साथ-साथ भंग और शराब का भी होता है। खासकर पूरे देश में होली के समय शराब की खपत कई गुना बढ़ जाती है। हालांकि ठीक होली वाले दिन पूरे देश में शुष्क दिवस यानी ड्राई डे मनाया जाता है मगर सडक़ों पर शराब के नशे में झूमते लोगों से इस शुष्क दिवस का मखौल उड़ता साफ दिखता है। वैसे भारत में शराब का कारोबार तेजी से बढ़ रहा है। आज पूरे देश में ऐसे ब्रांडों की भरमार है जिन्हें भारत निर्मित विदेशी शराब का दर्जा हासिल है। फिलहाल पूरे देश में शराब का कारोबार डेढ़ लाख करोड़ रुपये का सालाना आंकड़ा पार कर चुका है और उद्योग चैंबर एसोचैम का अनुमान है कि यह धंधा 30 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है। यह ऐसा धंधा है जो इसके कारोबारियों के साथ-साथ राज्य सरकारों, नेताओं, सरकारी सुरक्षा कर्मियों और चंद ठेकेदारों को इस कदर मालामाल कर देता है जिससे एक छोटा-मोटा दुकानदार भी पोंटी चड्ढा जैसा करोड़पति कारोबारी बन जाता है। बस आपको इस धंधे के गुर आने चाहिए।

एसोचैम की मानें तो भारत में आज शराब की खपत 19 अरब लीटर सालाना है और इससे हर वर्ष करीब 1.45 लाख करोड़ (1450 अरब) रुपये का कारोबार होता है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा शराब का बाजार है और यह सबसे तेजी से बढ़ता बाजार भी है। अकेले वाइन की बिक्री देश में पिछले चार वर्षों में 70 फीसदी से ज्यादा की दर से बढ़ी है। सुला वाइन देश में सबसे ज्यादा बिकने वाला ब्रांड है।  भारत पूरी दुनिया में विस्की का सबसे बड़ा उपभोक्‍ता है। भारत में कुल शराब खपत में 80 प्रतिशत हिस्सा देसी-विदेशी विस्की का है। भारतीय उपभोक्‍ताओं में विदेशी शराब की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। यूं तो देश में शराब की खपत का कोई तय मानक नहीं है फिर भी कंपनियों द्वारा समय-समय पर जारी किए जाने वाले आंकड़ों से पता चलता है कि देश में भारत निर्मित विदेशी शराब की खपत करीब 36 फीसदी है और इसका मुख्‍य बाजार दक्षिण भारत है जबकि आयातित विदेशी शराब का बाजार हिस्सा सिर्फ 3 फीसदी है और इसकी खपत मुख्‍य रूप से देश के महानगरों में ही होती है। बाजार में सबसे बड़ी हिस्सेदारी करीब 48 फीसदी देसी दारू की है जो पूरे देश में एक समान बिकती है जबकि 13 फीसदी हिस्सेदारी बीयर की है जो देश के शहरी क्षेत्र का मुख्‍य पेय बनता जा रहा है। देश में सबसे अधिक बिकने वाले 140 शराब ब्रांडों पर सिर्फ एक कंपनी यूनाइटेड स्प्रीट्स लिमिटेड का अधिकार है और कंपनी के मैकडोवल्स नंबर 1, रॉयल चैलेंज, ब्‍लैक डॉग, सिग्नेचर, एंटीक्विटी जैसे ब्रांडों ने देश के शराब बाजार का 60 फीसदी हिस्सा कब्‍जा रखा है। इसी प्रकार बीयर के बाजार में यूनाइटेड ब्रिवरीज के किंगफिशर ब्रांड का कब्‍जा है। यूनाइटेड ब्रिवरीज विवादास्पद भारतीय उद्यमी विजय माल्या की कंपनी है जो अभी बैंकों की हजारों करोड़ की देनदारी के मामले में देश से फरार हैं।

सेंटर फॉर पब्‍लक पॉलिसी रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार भारत में शराब बिक्री का ये हाल तब है जबकि यहां शराब पूरी दुनिया से कई गुना ज्यादा दाम पर बिकती है। शराब से होने वाली आमदनी का एक छोटा सा उदाहरण यह है कि दो साल पहले तक विभिन्न राज्य सरकार के कुल राजस्व प्राप्ति का करीब 16 फीसदी हिस्सा शराब से प्राप्त होने वाले टैक्‍स से आता था। अब दो साल बाद यह कमाई कुछ और बढ़ ही गई होगी। हालांकि एसोचैम की रिपोर्ट यह नहीं बताती कि देश के घरेलू नशीले उत्पाद मसलन ताड़ी, महुआ, नीरा, फेनी आदि का हिस्सा शराब के कारोबार में कितना है मगर धंधे के जानकार बताते हैं गरीब तबके में अंग्रेजी या देसी दारू की बजाय इन्हीं घरेलू नशीले उत्पादों की खपत ज्यादा है।

साल भर परवान चढ़ता गुलाल का कारोबार

कुमार पंकज

रंग, गुलाल का उपयोग केवल होली तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि कई अन्य पर्व-त्योहारों में भी गुलाल का उपयोग होने लगा है। इसलिए रंग का कारोबार करने वाले उद्यमियों ने गुलाल का भी कारोबार करना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि पूरे साल अब उनका व्यवसाय गुलजार रहने लगा है। रंग और गुलाल से जुड़े कारोबारी बताते हैं कि यह व्यवसाय पूरे देश में अलग-अलग जगहों पर होता है इसलिए यह आंकड़ा मिल पाना मुश्किल होता है कि कितने का कारोबार हो रहा है। लेकिन दिल्ली और उसके आसपास के इलाके में रंग और गुलाल का कारोबार 50 से 60 करोड़ रुपये का हो गया है। दिल्ली से सटे मेरठ और हाथरस में रंग का स्थानीय स्तर पर कारोबार खूब फल-फूल रहा है। दिल्ली के सदर बाजार के व्यापारी मुकेश बताते हैं कि यहां दिल्ली और आसपास के इलाकों में रंग और गुलाल की खूब बिक्री होती है। मुकेश के मुताबिक, बड़े थोक विक्रेताओं की संख्‍या यों तो 25-30 ही है लेकिन फुटकर कारोबार जमकर होता है। कारोबारी अमित का कहना है कि 25 से 30 करोड़ रुपये का कारोबार व्यापारी आसानी से कर लेते हैं।   

मेरठ में हर साल होली पर तकरीबन 200 से 220 ञ्चिवंटल रंग का कारोबार होता है। चूंकि इस बार व्यापारियों को उम्‍मीद है कि कारोबार बढ़ेगा

क्‍योंकि होली से ठीक पहले चुनाव के परिणाम आएंगे। साल 2012 में भी होली के आसपास विधानसभा चुनाव परिणाम आने से रंग के कारोबार में बढ़त हुई थी। रंग कारोबारी अफजल बताते हैं कि गुलाल की मांग अब पूरे साल रहती है इसलिए अब कारोबार करने में दिक्‍कत नहीं होती। हाथरस रंगों के कारोबार का बड़ा केंद्र है जहां से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई शहरों में रंग और गुलाल की आपूर्ति की जाती है। इसी तरह से देश के अन्य राज्यों में भी स्थानीय स्तर पर रंग और गुलाल का कारोबार होता है। बिहार के पूर्णिया में रंग-गुलाल का कारोबार खूब फल-फूल रहा है। इसका कारण बताते हुए स्थानीय कारोबारी उस्मान बताते हैं कि असम, पश्चिम बंगाल, भूटान और नेपाल तक यहां के रंग और गुलाल की आपूर्ति की जाती है। पटना और लखीसराय में थोक में रंग-गुलाल का कारोबार होता है। यहां के व्यापारियों को उम्‍मीद है कि इस बार कारोबार में बढ़ोतरी होगी। पिछले साल इन इलाकों में 30 से 35 करोड़ रुपये का कारोबार हुआ। इस बार नोटबंदी के कारण कारोबार में कुछ कमी की आशंका भी कारोबारी जता रहे हैं। रंगों के बढ़ रहे कारोबार के कारण अब हर्बल रंग-गुलाल की मांग भी बढऩे लगी है। भारत में निर्मित हर्बल रंगों की मांग अमेरिका, लंदन, स्पेन, ब्राजील, बुल्गारिया और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी होने लगी है। हर्बल रंग के व्यापार के बारे में, राजेंद्र कुमार शर्मा कहते हैं, हर्बल गुलाल की मांग अब भारत में बढऩे लगी है। क्‍योंकि यह अन्य रंग और गुलाल के मुकाबले हल्का होता है और इससे त्वचा को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचता।

 

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