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होली के मौसम में नारी सौन्दर्य-सुख

महाकवि कालिदस के काव्य ग्रंथ 'ऋतुसंहार’ में शिशिर और वसंत ऋतु से नर-नारी के दिल दिमाग शरीर पर होने वाले असर का अदï्भुत शृंगार वर्णन
वसंत में ख‌िले पलाश के फूल

भारतीय परंपरा और संस्कृति में हर ऋतु में प्रकृति के साथ जनजीवन पर होनेवाले प्रभाव को हर क्षेत्र में अलग-अलग ढंग से समझा और स्वीकारा गया है। शिशिर ऋतु की विदाई के साथ वसन्त ऋतु (फरवरी से अपै्रल के दौरान) में लोगों के दिल-दिमाग पर होनेवाले असर पर प्राचीन काल से संस्कृत और फिर ब्रज, भोजपुरी, मालवी, पंजाबी, हिन्दी सहित विभिन्न भाषाओं में कवि-लेखकों ने हजारों रचनाएं लिखी, गाई, सुनाई हैं। पारंपरिक लोकगीतों में होली के आस-पास गांव-कस्बों में महिलाएं ढोल, ढपली, मंजीरे के साथ मस्ती में ऐसे गीत गाती-नाचती भी हैं। ग्रामीण और आदिवासी अंचल में दूध की ठंडाई, लस्सी, कहीं-कहीं भांग या देसी शराब का सेवन कर पुरुष-स्त्रियां थोड़ी रोशनी में एक साथ नाचती गाती हैं। शहरों-महानगरों में घर-आंगन से अधिक रेस्तरां, होटल, पब, बार, डिस्को में सिनेमाई और पश्चिमी संगीत की मस्ती दिखती है। फिर भी इक्‍कीसवीं सदी में भारतीय सिनेमा का सरकारी सेंसर बोर्ड महिलाओं की कामेच्छाओं अथवा सेक्‍स प्रधान संवादों के दृश्यों पर कैंची से कटौती और प्रतिबंध तक लगा रहा है। दूसरी तरफ भारत सरकार परदेसी भाषाओं से अधिक संस्कृत को विशेष महत्व देकर कम से कम बारहवीं तक की स्कूली शिक्षा में बहुत हद तक संस्कृत के प्रारंभिक ज्ञान, महान संस्कृत ग्रंथों की रचनाओं को पढ़ाने पर जोर दे रही है। इस माहौल में महाकवि कालिदास के महाकाव्य ऋतुसंहार में शिशिर और वसन्त ऋतु पर लिखी मूल रचनाओं के हिन्दी अनुवाद के प्रमुख अंश होली के रंगारंग अवसर पर सुधी पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत हैं:

 

ऋतु संहार- पांचवां सर्ग

शिशिर ऋतु का वर्णन

हे सुन्दर जांघों वाली!  जिसमें धान और ईख के खेत अपनी फसलों से मनोहर लगते हैं, जिसमें कहीं-कहीं सारसों की मधुर आवाज भी सुनाई पड़ जाती है, ऐसी स्त्रियों की प्यारी शरद् ऋतु काम को बहुत बढ़ाती हुई आ गई है, सुनो तो? ॥ 1॥

जो युवतियां अपने युवक प्रियतमों के साथ इस ऋतु की लम्‍बी लम्‍बी रातों में बहुत देर तक जी भर कर और निर्दयता के साथ सम्‍भोग का आनन्द लूट चुकी हैं वे ही स्त्रियां रात के इस परिश्रम से दुखती हुई जांघों के कारण प्रात:काल होने पर बहुत धीमे-धीमे चल पा रही हैं॥ 7॥

सुन्दर चोलियों से अपने स्तनों को कसे हुए, जांघों पर रेशमी वस्त्र पहने हुए और वेणियों में पुष्पों को गूंथे हुए सुन्दरी स्त्रियां ऐसी लगती हैं मानो शिशिर ऋतु के स्वागतोत्सव को मनाने के लिए ही उन्होंने यह शृंगार धारण किया हो ॥ 8॥

इस ऋतु में कामीजन केसर से अनुरंजित लाल स्तनोंवाली और सुख के साथ सेवन करने योग्य युवावस्था की ऊष्मा से विह्वïल कामिनी स्त्रियों को निर्दयतापूर्वक छाती से लिपटा कर अपना जाड़ा दूर करके सुख की नींद सोते हैं॥ 9॥

प्रात:काल हो जाने पर भी एक सुन्दरी अपने पे्रमी द्वारा उपभोग किए हुए अपने अंगों को देखती हुई अपने शयन कक्ष से दूसरे कक्ष में हंसती हुई चली जा रही है। इस समय उसके मुख पर मदिरा की लालिमा नहीं रह गई है और रात भर पति की छाती से चिपके रहने के कारण उसके उरोजों की घुण्डियां भी बहुत कठोर हो गई हैं॥ 11॥

कुछ सुन्दरी स्त्रियां सूर्योदय का समय हो जाने पर अपने प्रियतम के नखों के घावों से भरे अपने स्तनों को देखती हुई, दातों से काटे गए कोपलों के समान कोमल अपने अधरों का स्पर्श करती हुई और इस प्रकार अपने मनोवांछित सम्‍भोग के वेश पर खिलखिलाती हुई अपने मुखों को सजा रही हैं॥ 15॥

 

छठा सर्ग

वसन्त ऋतु का वर्णन

हे प्रिये!  फूले हुए आम की मंजरियों के तीखे बाण तथा अपने धनुष पर भ्रमरों की पंक्तियों की प्रत्यंचा चढ़ाकर वीर वसन्त संभोग के पे्रमी रसिकों का हृदय बेधने के लिए आ पहुंचा है॥1॥

हे प्रिये!  इस वसन्त ऋतु में सभी वृक्ष पुष्पों से लदे हैं, जल में कमल खिले हैं, स्त्रियां काम पीडि़त हो गई हैं, वायु सुगन्धि से युक्‍त है, सन्ध्या का समय अतीव सुहावना होता है और दिन भी रमणीय होते हैं। सचमुच इस ऋतु में सब कुछ अतीव सुन्दर मालूम पड़ते हैं॥ 2॥

इस वसन्त ऋतु में विलासिनी रमणियां अपने नितम्‍बों पर कुसुम्‍भ के लाल फूलों से रंगी साडिय़ां पहनती हैं और स्तनों पर केसर में रंगी हुई सूक्ष्म वस्त्रों की बनी चोलियां धारण करती हैं ॥ 5॥

कामदेव ने जिनके चित्त को अतीव व्याकुल कर दिया है- ऐसी नितक्विबनी स्त्रियों के स्तन-मण्डलों में सफेद चन्दन से गीले (मोती के) हार, भुजाओं में भुजबन्ध (बाजू बन्द) और कंगन तथा जघनस्थलों पर करधनियां सुशोभित होती हैं॥ 7॥

इस वसन्तु ऋतु में सुनहरे कमल के समान मनोहर एवं चित्रकारी से युक्‍त रमणियों के मुखों पर फैली हुई पसीने की बूंदें ऐसी दिखाई पड़ती हैं मानों अनेक प्रकार के रत्नों के बीच-बीच में मोती गूंथ दिए गए हों॥ 8॥

आजकल अपने पतियों के समीप में रहने पर भी स्त्रियां लंबी सांसें खींचती हुईं, वस्त्रों के बंधनों के ढीले हो जाने के कारण अपने कामपीडि़त अंगों को उघाडक़र दिखाती हुई अत्यन्त उत्कण्ठित हो जाती हैं॥ 9॥

इस वसन्त ऋतु में कामदेव रमणियों की मदमाती आंखों में चंचलता, गालों में पीलापन, स्तनों में कठोरता, कटिभाग में नग्नता एवं जघनस्थलों में मोटापा बनकर-अनेक रूप धारण करके निवास करता है॥ 12॥

आजकल कामदेव ने स्त्रियों के अंगों को निद्रा एवं आलस्य से भर दिया है, जिससे वे कुछ-कुछ मदमाती-सी होकर बड़ी कठिनाई से बोल पाती हैं और भौहों को टेढ़ी करके कटाक्ष के साथ वे देखती हैं॥ 13॥

मद में अलसाई हुई कामिनी रमणियां आजकल प्रियंगु, कालीयक और केसर के घोल में मृगों की नाभि अर्थात् कस्तूरी मिलाकर चन्दन का लेप अपने गोरे-गोरे स्तनों पर करती हैं॥ 14॥

आजकल कामदेव के मद से अलसाई सुकुमारी रमणियां अपने (शिशिर ऋतु के) मोटे-मोटे वस्त्रों को त्याग कर लाक्षा के रंग से रंगे हुए और काले अगरु के सुगंधित धुएं से सुवासित महीन वस्त्रों को धारण करती हैं॥ 15॥

पुरुष (नर) कोकिल आम की मंजरियों के रस में मद-मस्त-सा होकर अपनी प्रियतमा कोयल को अतीव पे्रम से प्रसन्न होकर चूम रहा और कमल पर गुनगुनाता यह भ्रमर भी अपनी प्रियतमा की चाटुकारी कर रहा है॥ 16॥

जिनके मनोहर पुष्पों को मदमाते भ्रमर चूम रहे हैं, जिनके नूतन कोमल पल्लव मन्द मन्द वायु के कारण झूल रहे हैं, उन अतिमुक्‍त नामक नन्हीं-नन्हीं लताओं को देखकर ही कामुक व्यक्तियों का चित्त अकस्मात् उत्सुक हो उठता है॥ 19॥

इस वसन्त ऋतु में अत्यन्त हर्षविभोर होकर मधुर स्वर में कूकनेवाले नर-कोकिलों ने तथा मस्ती में भरकर गूंजते हुए भ्रमरों ने कुलीन घरानों की पतिपरायणा स्त्रियों के लज्जा तथा मर्यादा से भरे हृदयों को भी थोड़ी देर के लिए अधीर कर दिया है॥ 23॥

इस वसन्तु ऋतु में बरफ के न गिरने से वायु मंजरियों से लदी हुई आम की शाखों को हिलाता हुआ और कोयल की रसभरी वाणी को दसों दिशाओं में फैलाता हुआ मनुष्यों के हृदय को हरता हुआ वायु अतीव मनोहर ढंग से बह रहा है॥ 24॥

विलासिनी सुन्दरियों की हावभाव से युक्‍त मदभरी हंसी के समान श्वेत कुन्द के पुष्पों से चमकते हुए मनोहर उपवन इस वसन्त ऋतु में रंग-राग से दूर रहनेवाले मुनियों के चित्त को जब हर लेते हैं तब पहले ही से पे्रम-भरे नवयुवकों के चित्त की बात ही क्‍या रही?॥ 25॥

चैत के महीने में जब कोयल कूकने लगती है और भौंरे गुनगुनाने लगते हैं तब कटिभाग में सुवर्ण की करधनी लटकाए, स्तनमण्डलों पर मोतियों के हार धारण किए हुए तथा काम की उîोजना से ढीले शरीरवाली रमणियां लोगों के चित्त को बरबस ही अपनी ओर खींच लेती है॥ 26॥

मतवाले भ्रमरों तथा कोकिलों के मधुर स्वरों से युक्‍त यह वसन्त का रमणीय समय फूले हुए आमों एवं कनेर के वृक्षों द्वारा पैने बाणों की भांति मानिनी स्त्रियों के चित्तों को कामोîोजित करते हुए व्यथित कर रहा है॥ 29॥

स्तनों के भार से झुकी हुई सुन्दरी स्त्रियां (इस वसन्त ऋतु में) अपने सुवर्ण-कमल के समान सुन्दर गौर वर्ण के कपोलोंवाले मुखों से, गीले चन्दन से पुते एवं मुक्‍ताहार से सुशोभित स्तन मण्डलों से एवं मदमाती तथा चंचल कटाक्षों से युक्‍त चितवन से शान्त चित्त तपस्वियों के मन को भी डगमग कर देती हैं॥ 32॥

इस वसन्त ऋतु में आसव पीने के कारण सुगन्धित कमल के समान सुन्दरियों का मुख, लोध के पुष्प के समान लाल लाल उनकी आंखें, नूतन कुरबक के पुष्पों से सुन्दर सजे हुए उनके केशपाश, ऊंचे उठे हुए उनके दोनों स्तन और उसी प्रकार बाहर को निकले हुए उनके स्थूल नितम्‍ब क्‍या लोगों के हृदयों में काम का उîोजन नहीं कर रहे हैं॥ 33॥

फूले हुए (बौरे हुए) आम के वृक्षों में बसे हुए पवन से, मदमस्त कोकिलों की मधुर कूक से तथा कानों को मधुर लगनेवाली भ्रमरों की सुमधुर गुंजार से मनस्विनी स्त्रियों के मन भी (इस वसन्त ऋतु में) डिग जाते हैं॥ 34॥

मन को खींच लेनेवाली सन्ध्या, खिली हुई चांदनी, पुरुष कोकिल की मदमाती कूक, सुगन्धि से भरा हुआ पवन, मतवाले भ्रमरों की गुंजार एवं रात्रि के समय मधु-पान—ये सब इस वसन्त ऋतु में कामदेव को उîोजित करनेवाले रसायन हैं॥ 35॥

मलयगिरि के पवन से युक्‍त, कोकिल के आलाप से चित्त को लुभानेवाला, सर्वत्र सुगन्धित मधु को छिडक़कर चराचर को सुगन्धि-युक्‍त करनेवाला, चारों ओर बसे भ्रमरों की पंक्तियों से घिरा हुआ यह श्रेष्ठï वसन्त का समय आप लोगों को सुखकारी बने॥ 37॥

आम की मंजुल मंजरी ही जिसका बाण है, पलाश का सुन्दर पुष्प जिसका धनुष है, भ्रमरों की पंक्तियां जिसके धनुष की प्रत्यंचा हैं, कलंकविहीन चन्द्रमा जिसका श्वेत छत्र है, मलयगिरि से आया हुआ पवन जिसका मतवाला हाथी है, कोकिल समूह जिसके विरुद-गायक बन्दीजन हैं और शरीर-रहित होकर भी जिसने चराचर संसार को अपने वश में कर लिया है, ऐसा कामदेव अपने सखा वसन्त के साथ आप सबका कल्याण करे॥ 38॥

 

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