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दुर्ग और सिंहासन पर विजय की कीमत

प्रसंगशः
आलोक मेहता

युद्ध का मैदान हो अथवा चुनावी मुकाबला- विजय-पराजय सुनिश्चित है। उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में शीर्षस्थ नेताओं और प्रमुख राजनीतिक दलों ने हर तरह के हथियार-हथकंडे के उपयोग में तनिक संकोच नहीं किया। इसलिए निर्वाचन आयोग और अदालतों तक शिकायतों-आरोपों की पचासों अपीलें पहुंच रही हैं। राजतंत्र के दौरान किसी दुर्ग पर विजय के बाद स्वयं सिंहासन पर बैठने के लिए भारी खून-खराबे से अफसोस बहुत कम राजाओं को होता था। अकबर हों या अशोक- महान अवश्य कहलाए, लेकिन उनके युद्ध काल की विभीषिका इतिहास में दर्ज है। इस बार के चुनाव अभियानों में भी अमृतसर से अल्मोड़ा होते हुए अलीगढ़-मथुरा-काशी से पणजी और इंफाल तक प्रचार, सभाओं, जोड़-तोड़, पे्रम-नफरत की बाढ़ ने संपूर्ण भारत को प्रभावित कर दिया। निर्वाचन आयोग ने उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के विधानसभा क्षेत्र में हर उम्‍मीदवार की खर्च सीमा 16 लाख रुपये तथा गोवा-मणिपुर जैसे राज्यों के लिए 8 लाख रुपये तय की हुई है। राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले खर्च पर कोई अंकुश नहीं लगा हुआ है, लेकिन उन्हें चंदे से आमदनी और पार्टी तथा चुनावी खर्च का विवरण अवश्य देना पड़ता है। यह हिसाब तो कुछ महीनों बाद ही आयोग को मिलेगा। लेकिन इस बार 'नोटबंदी’ की काली घटा के बावजूद चुनाव क्षेत्रों में करोड़ों रुपयों का खर्च सबको दिखता रहा। एक दिलचस्प आंकड़ा यह आया है कि चुनाव आयोग के सतर्कता विभाग ने 2012 के विधानसभा चुनावों की तुलना में तीन गुना अधिक अवैध रकम इन क्षेत्रों में छापे मारकर बरामद की। मतलब यह तो नदी किनारे किसी टूटे-फूटे घड़े में भरे गंदे पानी की तरह थी। पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, गोवा के विधानसभा क्षेत्रों में बड़े नेताओं की यात्राओं के दौरान हवाई अड्डïों पर छोटे-बड़े विमानों और हेलीकॉप्टरों की कतार नया रिकॉर्ड बनाती रहीं। जनसंपर्क अभियान अब डिजिटल इंडिया के साथ 'रोड शो’ में बदल गए हैं। सभाओं को शानदार रैलियों में बदल दिया गया है। नेहरू, इंदिरा गांधी से अटल बिहारी वाजपेयी तक प्रधानमंत्री चुनिंदा विधानसभा क्षेत्रों में जाते थे और चुनावी होने के कारण पार्टियां अथवा मीडिया उनके लिए आने वाली भीड़ की अधिक या कम संख्‍या को महत्वपूर्ण नहीं मानती थी। क्‍योंकि माना जाता रहा है कि हर क्षेत्र में राजनीतिक दल, पदाधिकारी, उम्‍मीदवार और कार्यकर्ता पांच साल सक्रिय रहते हैं। प्रधानमंत्री या मुख्‍यमंत्री भी केवल आशीर्वाद देने और कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने पहुंचते हैं।

यूपी के चुनाव में अख‌िलेश-मोदी में खूब चले शब्दों के बाण

इस बार सब कुछ बदला नजर आया। राज्यों के मुख्‍यमंत्रियों, पार्टी अध्यक्षों और स्वयं प्रधानमंत्री ने हर दिशा में मोर्चे संभाले। साइकिल, रिक्‍शा, टेंपो, ट्रक, बस, अत्याधुनिक महंगी से महंगी कारों, बसों और बुलेट पू्रफ सुरक्षा गाडिय़ों के काफिले हर इलाके में घूमते रहे। ऐसा लगा जैसे यह अस्तित्व की लड़ाई चल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि इन चुनावों के परिणाम का असर चार महीने बाद होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव, फिर गुजरात चुनाव और अंततोगत्वा 2019 के लोकसभा चुनाव तक रह सकता है। लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। पहले भी सरकारों और पार्टियों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी होती थी। शीर्षस्थ नेताओं को यह अहसास भी रहता था कि चुनावों के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं भारतीय परंपरा-संस्कृति के अनुरूप दोनों पक्षों को एक साथ उठना-बैठना एवं जनहित में साथ काम भी करना है। पाकिस्तान और चीन के साथ युद्ध, सीमा-विवाद, मतभेदों के बावजूद संबंधों की डोर जोड़े रखनी पड़ती है और पाक के सैनिक राष्ट्रपतियों का आगरा, अजमेर, दिल्ली या लाहौर, रावलपिंडी में भी आतिथ्य सत्कार करना होता है। लेकिन इन चुनावों में हर पक्ष के अधिकांश बड़े नेता जनसभाओं में इतने तीखे हमले करते रहे, जैसे यह अंतिम लड़ाई है। मीडिया का एक वर्ग इसे भाजपा सरकार के लगभग तीन वर्ष के कार्यकाल और नोटबंदी पर जनमत संग्रह की संज्ञा दे रहा था। इस मुद्दे पर तर्क-वितर्क और गर्मागर्मी दिखती रही। लेकिन हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में निरंतर निष्पक्ष चुनाव हो रहे हैं। इसलिए 'जनमत संग्रह’ की चर्चा अनुचित है। अभी भारत में हर नागरिक के लिए मतदान अनिवार्य नहीं है और कोई उम्‍मीदवार पसंद न होने पर 'नोटा’ का प्रावधान है। इसलिए कहीं मतदान 40 प्रतिशत हो या 60 या 80 प्रतिशत हो- परिणाम सर्वमान्य होता है। बहुमत पाने वाला सत्ता में रहेगा और प्रतिपक्ष को भी विधायी कार्य करते हुए लोक कल्याण के हर कार्यक्रम और काम में सहयोग देना है। वास्तव में जरूरत इस बात की रहती है कि विजय-पराजय के बाद भी उम्‍मीदवार और पार्टियों के कार्यकर्ता जनता के दु:ख-सुख में साथ देते रहें। इसलिए चुनावी बुखार उतरने के बाद प्रमुख राजनीतिक दलों और जिम्‍मेदार नेताओं को इस विधानसभा चुनाव में अपनाए गए संघर्ष के तरीकों और खर्चों पर आत्ममंथन करना चाहिए, ताकि लोकतंत्र अधिक स्वस्थ और सुरक्षित रहे।

 

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