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स्नेह और सम्मान का नाम है अनुपम मिश्र

'आज भी खरे हैं तालाब’ और 'राजस्थान की रजत बूंदें’ जैसी पुस्तकों के लेखक ने जल संरक्षण और जल प्रबंधन पर अनूठा काम किया
अनुपम मिश्र

पर्यावरण के प्रति स्नेह और सम्मान का नाम है अनुपम मिश्र। यह बात मैं इसलिए गर्व के साथ कह सकता हूं कि पर्यावरण के प्रति अनुपम जी ने जो काम किया और समाज को जो संदेश दिया वह अद्भुत है। उनके पर्यावरण के साहित्य में जो सरलता, सहजता और तरलता थी वह उन्हें अन्य लोगों से बिल्कुल ही अलग बनाती है। अंतिम समय तक पर्यावरण के प्रति उनकी चिंताएं समझी जा सकती थीं। जब वे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती थे तब मैं मिलने गया। उस मुलाकात में भी उन्हें अपने कष्ट से ज्यादा पर्यावरण के प्रति चिंता नजर आ रही थी। वे बार-बार कह रहे थे कि सरकार की जो योजनाएं पर्यावरण को लेकर चल रही है वे काफी चिंताजनक हैं। क्‍योंकि इससे पर्यावरण बचने वाला नहीं है। अनुपम जी बहुत दूर तक सोचने वाले इंसान थे। उनका ज्ञानतंत्र इतना मजबूत था कि वे इसके जरिए लोगों को अपनी बात आसानी से समझा ले जाते थे। मुझे याद है कि 1986 में गोपालपुरा में तालाब में मिट्टी को रोकने के लिए पेड़ लगाने पर अलवर जिले के कलेक्‍टर ने मेरे ऊपर जुर्माना लगा दिया। यह इस तरह की घटना थी कि पर्यावरण को बचाने के लिए पेड़ लगाने पर जुर्माना लगा दिया गया हो। विवाद बढ़ा और कलेक्‍टर का तबादला कर दिया गया। तब अनुपम भाई ने बड़े ही सहजता के साथ एक सम्मान समारोह के आयोजन में कलेक्‍टर को सम्मानित किया। उनके अंदर ईष्र्या, द्वेष जैसी कोई बात नहीं थी। वे बड़े ही निर्भीक व्यक्ति थे। राजस्थान के कई जिलों में जब खनन माफिया पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे थे तब अनुपम भाई बिना किसी डर के उन माफियाओं के बीच चले जाते थे और उनसे अपनी बात कहते थे कि आज जो काम आप लोग कर रहे हैं इससे पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा है। उसमें कुछ लोगों को उनकी बात समझ में भी आ जाती थी। इसका प्रमुख कारण यही था कि उनके ज्ञान की जो सहजता और वाणी में जो तरलता थी उससे हर कोई प्रभावित हो जाता था।

30-32 साल मैं उनके बहुत नजदीक रहकर काम किया। उनके पास जो ज्ञान का अथाह भंडार था वह किसी के पास नहीं मिला। पर्यावरण साहित्य पर उनकी जो पकड़ थी वैसा किसी के पास नहीं रही। लेकिन दुर्भाग्य इस बात का रहा कि केंद्र या राज्य की सरकारों ने उनके ज्ञान को नहीं समझा। आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूंदें पुस्तकोंका कोई मुकाबला नहीं है। यह पुस्तकें भारत में परंपरागत जल प्रबंधन को सरल शद्ब्रदों में समझाती हैं। वे सच्ची वैज्ञानिकता और साहित्यिक गहराई के साथ काम में जुटते थे। उनके जुडऩे से काम, विचार और भविष्य के चिंतन, तीनों बातों को गहराई मिलती थी। अनुपम जी ज्ञान के अथाह सागर थे। अपनी बात उनको बहुत भरोसा था। बड़े से बड़े इंजीनियर भी उनकी बातों को अगर समझ लेते थे तो उन्हें किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती। नदी जोड़ योजना से लेकर गंगा, यमुना की सफाई पर उनकी राय बहुत साफ थी। वे कहते थे कि नदी जोड़ योजना से जल संकट नहीं दूर होगा बल्कि लोगों को नदियों से जोडि़ए तो सफलता मिलेगी। लेकिन सरकार नदी जोड़ योजना पर ही ध्यान देती रही। इसी तरह गंगा-यमुना की सफाई को लेकर उन्होंने साफ कर दिया कि जो सरकार की योजना है उससे कभी न तो गंगा साफ होगी और न ही यमुना। क्‍योंकि इसके लिए सरकार के पास कोई ठोस नीति नहीं है। अनुपम जी का जो परंपरागत ज्ञान रहा उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। क्‍योंकि हमारी जो पर्यावरण की संस्कृति है वह परंपरागत ज्ञान पर ही टिकी है। अनुपम जी ने पूरे जीवन प्रकृति और मानव के बीच गहरा रिश्ता बनाने के लिए काम किया। वे पानी और पर्यावरण पर काम करने वाले पहले व्यक्तिथे जिन्होंने अपने अनुभवों से भारत में पर्यावरण के प्रति खतरों से आगाह किया। ऐसे पर्यावरण-पुरुष को शत-शत नमन!

(लेखक पर्यावरणविद और मैगसेसे सम्मान से सम्मानित हैं। आलेख कुमार पंकज से बातचीत पर आधारित है)

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