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'मुसलमान तुम्हारी मिलकियत नहीं औवेसी'

भड़काऊ भाषणों को लेकर सुर्खियों में रहने वाले औवेसी बंधू खुद को मुस्लिमों के हमदर्द के रूप में पेश करने की जद्दोजहद में लगे हैं, मगर सवाल यह है कि क्या मुसलमानों की भावनाओं को बेचकर खुद के लिए अपनी सीट सुरक्षित कर लेना हमदर्दी है ? इन भावनाओं का सौदा कर अपने लिए जमीन तैयार करने को आप क्या कहेंगे।
'मुसलमान तुम्हारी मिलकियत नहीं औवेसी'

अगर मंच से 25 करोड़ मुसलमानों की बात कहने वाले औवेसी मुसलमानों के हमदर्द हैं तो फिर गुजरात दंगा पीड़ितों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने वाली तीस्ता सीतलवाड़ कौन हैं ? क्या वे अल्पसंख्यकों की हमदर्द नहीं हैं ? पांच दशक के अपने इतिहास में हैदराबाद से बाहर न निकलने वाली मजलिस अब अपना दायरा बढ़ा रही है। पार्टी के इकलौते सांसद असदुद्दीन औवेसी छिट पुट सांप्रदायिक झड़पों को अपना हथियार बना रहे हैं, और यह बताने की कोशिश में हैं कि अगर कोई मुस्लिमों का हमदर्द है तो वह सिर्फ वह खुद और उनकी पार्टी है।

 

एआईएमआइएम यानी ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन अब केवल हैदराबाद में असर रखने वाली पार्टी नहीं रह गई है, उसका राजनीतिक दायरा महाराष्ट्र विधानसभा तक भी पहुंच गया है। पार्टी ने पिछले महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों में अपने 31 उम्मीदवार खड़े करते हुए मुंबई में भायखला एवं अन्य औरंगाबाद मध्य की सीटों पर जीत दर्ज की। यही नहीं कई सीटों पर उसने कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे दलों को नुकसान भी पहुंचाया है। अगले सालों में ओवैसी की पार्टी पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में अपने विस्तार को लेकर काम कर रही है। एमआईएम की राजनीतिक शैली हिंदुत्ववादी राजनीति की तरह ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि यह विपरीत ध्रुव पर काम कर रही है। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से संघ परिवार के नेताओं द्वारा जिस तरह से हिंदुतत्व और बहुसंख्यकवाद के पक्ष में खुलकर बयानबाजी की जा रही है उससे मुस्लिम समुदाय में असुरक्षा की भावना स्वभाविक है। ऐसे में एमआईएम को अपने विस्तार में आसानी होगी, हो भी रही है। वह मुस्लिम समुदाय की भावना को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिशें कर रही है। एआईएमआइएम के विस्तार से हिंदू और मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण होगा और इससे दोनों को ही फायदा होगा।

 

 वरिष्ठ पत्रकार इर्शादउल हक कहते हैं कि औवेसी बंधू मुसलमानों का आरएसएस हैं। वह तर्क देते हैं कि जब-जब हिंदुओं में दक्षिणपंथी संगठनों का वजूद बढ़ता है तब तब मुस्लिमों में इस तरह के लोग पैदा हो जाते हैं, जो खुद को मुस्लिमों का हमदर्द बताते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि जिस तरह संघ परिवार का हिंदु हित से कोई सरोकार नहीं है उसी तरह एआईएमआईएम का मुस्लिमों के हितों से कोई सरोकार नहीं है, उल्टा नुकसान ज्यादा है। औवेसी के बढ़ते प्रभाव और मुस्लिमों युवाओं के औवेसी के प्रति झुकाव के बारे में समाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी कहती हैं कि सेक्युलर ताकतें खुलकर अल्पसंख्यक उत्पीड़न के खिलाफ नहीं बोल पाईं, उसका विरोध नहीं कर पाईं, इसी वजह से मुस्लिमों में औवेसी का दखल बढ़ पाया है, जो सेक्युलरिज्म के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। शबनम कहती हैं कि जिस तरह की भाषा औवेसी बंधु बोलते हैं उससे बहुसंख्यकों का ध्रुविकरण होता है जिसका सीधा लाभ हिंदुत्ववादी ताकतों को होता है। देश की जनता को भी सोचना होगा कि भारत के लिए अभिशाप बने सांप्रदायिक दंगों में न तो तोगड़िया हिंदुओं की जान बचाते हैं और न ही औवेसी मुसलमानों की।  

 

 मेरा इतना सा कहना है कि मुसलमानों पर अत्याचार को कोई अपने राजनीतिक फायदे के लिए प्रयोग करे, इससे पहले हमें यह सोच लेना चाहिए कि तीस्ता सीतलवाड़, प्रशांत भूषण, वृंदा ग्रोवर, मनीषा सेठी, आनंद ग्रोवर, इंदिरा जयसिंह, कविता श्रीवास्तव समेत बहुत से एक्टिविस्ट और अनगिनत हिंदू पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने सच में मुसलमानों के लिए सही मायने में आवाज उठाई है। 

(लेखक मुस्लिम टुडे मैग्जीन के सहायक संपादक हैं।)

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