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उर्दू प्रेस में बिहार चुनाव के अहम मुद्दे | शाहीन नजर

बिहार चुनाव पर आए ताजा सर्वे में भारतीय जनता पार्टी को लालू-नितीश-कांग्रेस के महागठबंधन से आगे दिखाया गया है। समाचारपत्रों और टेलीविजन चैनलों पर इस पर कई प्रकार की प्रतिक्रियाएं आई हैं पर उर्दू अखबार सर्वे के नतीजों से सहमत नहीं हैं।
उर्दू प्रेस में बिहार चुनाव के अहम मुद्दे | शाहीन नजर

इंकलाब, जो दिल्ली और पटना समेत उत्तर भारत के दर्जन भर शहरों से छपता है और खूब पढ़ा जाता है, ने “बिहार से बहार की उम्मीद” के नाम से लगातार दो दिन संपादकीय लिख कर इसे रद्द किया है: “जहां तक इन्तेखाबी सर्वेज का ताल्लुक है इन पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता... हमारी सूचना के अनुसार बिहार में बीजेपी ने जोर तो काफी लगाया है लेकिन बात बनती नजर नहीं आ रही है। इस का सबूत इस हकीकत से भी मिलता है कि चुनाव रियासती असेंबली का है इस के बावजूद खुद वाजीर आजम इन्तेखाबी मुहीम में जोरो शोर से शरीक हुए हैं। इस का मतलब साफ है।” (9 अक्टूबर 2015)। इस संपादकीय में सेक्युलर वोट को एकजुट हो कर “साम्प्रदायिक टोले” को हराने की वकालत की गई है।

10 अक्टूबर को इसी संपादकीय का भाग-2 छपा है जिस में एक ओर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को “मोदी नवाजी” यानी मोदी भक्ति के लिए लताड़ा गया है तो दूसरी ओर प्रधानमंत्री के रैली करने पर सवाल उठाया गया है। “आजाद हिंदुस्तान में ऐसा कभी नहीं हुआ। किसी वजीर आजम ने इन्तेखाबी मुहिमों पर इतना वक्‍त कभी सर्फ नहीं किया... बीजेपी के दौर में चूंकि पार्टी भी और हुकूमत भी वजीर आजम के गिर्द गरदिश कर रही है इसलिए आप देख रहे हैं कि वजीर आजम कल विदेश में थे तो आज बिहार में रैली कर रहे हैं। धीरे-धीरे शख्सियत परस्ती का वही माहौल पैदा हो रहा है जो इंदिरा गांधी के दौर में था। ये रुझान जम्हूरियत के लिए कतई नामुनासिब है।”

उर्दू के दुसरे अखबारों ने भी सर्वे के नतीजों को शक की नजर से देखा है। उर्दू के सभी अखबार सेक्युलरिज्‍म की दुहाई देते हुए सांप्रदायिकता के खिलाफ लिख रहे हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इस से जुड़ी संगठनों का नाम ले ले कर पाठकों को खबरदार कर रहे हैं। इस समय उर्दू अखबारों की तीन परेशानियां हैं: दंगा, बीजेपी की जीत का डर और ‘सेक्युलर’ वोटों के बंटने का खतरा। यही कारण है की असदुद्दीन ओवैसी को पसंद करने के बावजूद उनकी पार्टी को वोट न देने की बात बहुत जोर देकर की जा रही है। पाठकों द्वारा लिखे गए पत्रों में से केवल एक अंश मुसलमानों की सोच का पता देते हैं। “मजलिस इत्तेहादुल मुस्लेमीन की आमद से लालू और नितीश के इत्तेहाद को जबरदस्त नुकसान पहुंचने का अंदेशा है। बिहार के अवाम से अपील है कि अपने वोट का सही इस्तेमाल करें।” दैनिक कौमी तंजीम, पटना, में छपे एक लेख का ये अंश भी देखें: “मिल्लत के लिए यही फैसले की घड़ी है जिस में उन्हें सोचना होगा कि अपनी ये सियासी लड़ाई किस तरीक़े से जीत सकते हैं। क्‍योंकि इस दरमियान छोटी छोटी पार्टी के (वोट कटवा) स्वयं नियुक्त समुदायिक नेता कौम के मसीहा बन कर सामने आएंगे जिन का मकसद वोट में इंतेशार के जरिये अपना उल्लू सीधा करना और दुश्मनों को फायेदा पहुंचाना है। उस मसीहा के सिर पर टोपी, हाथ में तस्बीह, चेहरे पर खुशनुमा दाढ़ी और जिस्म पर सफेद, बेदाग कपड़ा भी होगा जो उनके धोखे का प्रतीक होगा।”

दादरी हत्याकांड और बिहार चुनाव

दादरी हत्या काण्ड और उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में फैले दंगों का सीधा संबंध बिहार चुनाव से देखा जा रहा है। दिल्ली से छपने वाले सेहरोजा दावत की ये सुर्खी देखें: “दादरी कत्‍ल वाकेया: बिहार असेंबली इंतेखाबात के पेशे नजर मुनज्जम और मंसूबा बंद साजिश”। इसी तरह दैनिक राष्ट्रीय सहारा में छपे एक लेख का सिर्फ मुखड़ा देखें: “जैसे-जैसे बिहार में वोटिंग की तारीखें करीब आ रही हैं वैसे वैसे बिहार और इस के हमसाया रियासतों में फिरकावाराना तशद्दुद के वाकयात में इजाफा होता जा रहा है।”

दंगों को छोड़ दें तो इस समय मुसलमानों के दो मुद्दे अहम् हैं। पहला रिजर्वेशन और दूसरा रेप्रिजेंटेशन। बिहार के चुनावी माहौल में ये दोनों मुद्दे गरमाए हुए हैं। उर्दू अखबार इस विषय पर खूब जमकर लिख रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भगवत के रिजर्वेशन पर दिए गए ब्यान पर तीखी प्रतिक्रिया के बाद भारतीय जनता पार्टी ने तुरंत इस पर सफाई दे दी कि इस नीति में किसी तब्दीली का इरादा नहीं है पर विवाद अब तक थमा नहीं है। भगवत के ब्यान ने मुसलमानों के एक पुराने जख्‍म को कुरेद डाला है। वे ऐसा मानते हैं कि मुसलमानों को कानून की धरा 341 से बाहर रख कर उनके साथ भेदभाव से काम लिया गया है। बल्कि 2005 में आई सच्चर समिति की रिपोर्ट के बाद पूरे मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने की मांग बढ़ गई है। दैनिक जदीद खबर, दिल्ली, में छपे एक लेख की ये सुर्खी देखें: “बिहार का इलेक्शन रिजर्वेशन पर सिमट गया है।” लेखक वरिष्ठ पत्रकार हफीज नोमानी हैं जो कि भगवत के बयान को चुनाव से जोड़ कर देखते हुए लिखते हैं कि आरक्षण नीति की समीक्षा जरूर होनी चाहिए क्‍योंकि इस से मुसलमानों को नुकसान पहुंच रहा है।

संसद और विधानसभा इतेयादी में मुसलमानों के घटते प्रतिनिधित्व का मामला टिकटों के बटवारे के बाद चर्चा का विषय है। दैनिक इंकलाब की ये सुर्खी पूरी कहानी कह रही है: “बिहार में सियासी जमातों की मौका परस्ती, आबादी के तनासुब से किसी जमात ने मुसलमानों को टिकट नहीं दिया”। और सेहरोजा दावत की ये सुर्खी भी एक अलग कहानी कह रही है: “बिहार में जात पात की सियासत में मुसलमान हाशिए पर – विकास और पैकेज की बात करने वाले एनडीए ने टिकटों के बंटवारे से जाहिर कर दिया कि रियासत में वो भी जात पात की सियासत पर यकीन रखता है।” 

 

 

 

 

 

 

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