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इंद्राणी मामला: मीडिया खुद से भी करे सवाल

अपने पति और परिवार के साथ वह बेहद खुश थी. छोटा सा घर परिवार. कमाई अधिक नहीं लेकिन जरूरतें पूरी हो रही थीं। एक सम्मान के साथ वह अपने पति और बच्चे के साथ हंसी ख़ुशी से जीवन व्यतीत कर रही थी। इस साल बेटे के बोर्ड की परीक्षा होगी। इस को लेकर हर माँ की तरह वह भी चिंतित थी और महज एक सप्ताह पहले वह सोच रही थी कि वह ऐसा क्या करे जिस से उसका बेटा अच्छे से पढ़ सके और अच्छे नंबरों में पास हो।
इंद्राणी मामला: मीडिया खुद से भी करे सवाल

उसने ख्वाब में भी कभी कल्पना नहीं की थी कि एक सप्ताह के भीतर उसे और उसके बेटे को लोगों के ऐसे तानों और उलाहनों से रूबरू होना पड़ेगा जिस के हकदार वे कभी नहीं थे। मीडिया की हार्न बजाती गाड़ियां, गली के बाहर हाथों में माइक लिए उसके घर का पता पूछते रिपोर्टर और ओबी वैनों में उसके पति और परिवार का नाम लेकर पीटीसी करने वाले रिपोर्टरों को उत्सुक निगाहों से सुनते उसके गली मोहल्ले के लोग। १७ साल के सुखमय विवाहित जीवन के बाद गत सप्ताह उसे चैनलों की खबर से पता चलता है कि उसके पति ने अपने युवा जीवन में जिस महिला से प्रेम संबंध बनाए थे उस पर अपनी बच्ची की हत्या का आरोप है। लेकिन तब भी उसने यह नहीं सोचा था कि उसके पति के पच्चीस-तीस साल पहले के संबंध उसका अतीत इस प्रकार उसके और उसके बच्चे की पहचान और भविष्य पर हावी हो जाएंगे।

 

लेकिन मीडिया को इसकी क्या परवाह? इंद्राणी मामले में शीना के पिता की मौजूदा पत्नी का मीडिया से सवाल है कि इसमें आखिर उसका या उसके बेटे का क्या कसूर है। किसी के अपराध की सजा उसे क्यों दी जा रही है? स्कूल, शिक्षक, दोस्त किन-किन को वह क्या जवाब देगा. मीडिया में जैसे उसके बाप का नाम उछाला जा रहा है इसका,उसकी पढ़ाई पर कितना असर पड़ सकता है? निस्संदेह मिसेज दास के  ये सवाल इन्द्रानी मामले में पुलिसिया और इंवेस्टीगेशन एजेंसियों की  भूमिका में सरोबार और उनसे भी अधिक बौराए मीडिया से पूछना बेहद जरूरी है। आखिर मीडिया की यह बेतरतीब कवरेज किस पत्रकारिता के कौन से मकसद को पूरा करने की कोशिश में है। सनसनी, ग्लैमर और रोमांच परोसने की होड़ में मीडिया खुद भी कुछ मासूम लोगों के जीवन से खेल रहा है।

 

एक युवा लड़की की हत्या निस्संदेह नृशंस अपराध है और अपराधी को पकड़ना और मृतक को न्याय दिलाना जरूरी मकसद भी लेकिन यह काम पुलिस और एजेंसियों का है। मीडिया का नहीं। इंद्राणी परिवार से जुड़े कितने ही ऐसे चरित्र हैं जिनके चेहरे दर्शकों तक पहुंचाए बिना भी अपराधी तक पहुंचा जा सकता है। आखिर दास की मौजूदा पत्नी या बेटे से इंटरव्यू करना क्यों जरूरी था। मिसेज दास की समझ में यह नहीं आ रहा कि अगर पुलिस को उसके पति से जानकारी चाहिए तो वह उसे बुला कर पूरी तफसील पूछ सकती है। शायद सिद्धार्थ भी अपने अतीत के असर से अपने मौजूदा परिवार को बचाने के लिए खामोश था। लेकिन जांच एजेंसियों से अपनी होड़ लगाए बैठा मीडिया ने इतना हो हल्ला मचाया और कल्पनाओं का ऐसा जाल बुना कि सिद्धार्थ घर की गलियों और खिडकियों से झांकते रिपोर्टरों से अधिक समय दूर नहीं रह सका। स्टूडियो में आने को मजबूर हुए सिद्धार्थ दास से फिर शुरू हुआ सिलसिला एंकरों के अदभुत सवालों का। “आप ने अंतिम बार इंद्राणी से कब बात की। शीना से 1992 में एक बार ही क्यों बात की। एक बाप के नाते बाद में क्यों नहीं ? आप कोलकाता में हैं फिर इंद्रानी के दूसरे पति से क्यों नहीं मिले। क्या इंद्राणी ऐसा कर सकती है? आप ने कब फ़ोन किया। सामने क्यों नहीं आए आप की पत्नी कौन है? अब बच्चे कितने हैं? क्या उन्हें पता है?”

 

लेकिन मीडिया खुद इस सवाल का जवाब नहीं दे पा रहा कि उसके ये सवाल अपराधी को कैसे पकड़ लेंगे  जब तक कि पुलिस खुद सिद्धार्थ या उसके जैसे मामले से जुड़े अन्य लोगों से जवाब तलब नहीं करेगी. उनके चेहरे और बातचीत दिखा कर अपराध की कौन सी गुत्थी सुलझाने में वे सफल हो जाएंगे ? बल्कि कितनी गुत्थियां  इनमें से कई निर्दोषों के जीवन का हिस्सा बन जायेंगी यह वह रिपोर्टर नहीं जानना चाहता जो बार बार उनके घर का दरवाजा खटखटाना अपना अधिकार समझ रहा है।

 

दूसरा  बढ़ा सवाल मीडिया से यह है कि चार दिन तक लगातार तकरीबन सभी चैनल प्राइम टाइम पर इस पूरे घटनाक्रम पर ‘क्लास आधारित, जेंडर आधारित जैसे  ‘लो- क्लास और हाई क्लास का बेमेल मेलजोल’, ‘दिल्ली बनाम मुंबई का माहौल,’ ‘सभ्य और शिक्षित समाज में ऐसी घटनाओं की अनहोनी’ जैसे विश्लेषणों से चीड -फाड़ करते रहे। ऐसे तर्क दिए जाते रहे कि जैसे सभ्य और पढ़े लिखे लोगों के द्वारा ऐसे अपराध होना कोई अजूबा हो, और ऐसे कर्म सिर्फ अशिक्षित और पिछड़ी जमात में ही देखे जाते हों। अपराध वर्ग आधारित या अमीरी और गरीबी में बांट कर नहीं देखे जा सकते रहे। यही नहीं, अपराध का जेंडर आधारित बंटवारा भी हुआ। महिलाओं का अधिक महत्वकांक्षी होना, अधिक पैसे और शोहरत की चाह होना जैसे घिसे पिटे जुमलों से भी महिलाओं के चरित्र का विश्लेषण होता रहा। क्या ऐसे स्टीरियोटाइप विश्लेषण देना दर्शकों के साथ अन्याय नहीं।

 

जिस समय मीडिया इंद्राणी मसले पर बावला हो रहा था, उसी दौरान उत्तर प्रदेश के एक गांव की एक दलित लड़की अपने ही गांव की खाप पंचायत से अपनी अस्मत बचाने के लिए मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक से गुहार लगा रही थी। लेकिन उसकी खबर न तो चैनलों की बहस का मुद्दा बनी, न ही एक लड़की का बलात्कार किे जाने जैसा घृणित आदेश बड़ी खबर बन सका। शीना की मौत पर चौबीस घंटों आंसू बहाने वाले मीडिया के लिए एक दलित महिला की नंगी परेड और उसको जबरन पेशाब पिलाने जैसे घिनौने अपराध पर भी कोई हरकत नहीं हुई। ऐसी कई ख़बरें हैं जो इस हाई प्रोफाइल खबर के चलते मीडिया का हिस्सा न बन सकीं। आखिर क्यों? क्या मीडिया अपने इस एकतरफा दीवानापन पर आत्म मंथन कर सकेगा।

 (लेखिका विकास और सामजिक विषयों की स्तंभकार)

 

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