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ऑस्कर पुरस्कारों का भ्रम

ऑस्कर पुरस्कारों को लेकर सम्पूर्ण दुनिया में एक मोह और भ्रम पाया जाता है| इन्हें ऐसे पेश किया जाता है जैसे यह दुनियाभर के सिनेमा का मानदंड हों।
ऑस्कर पुरस्कारों का भ्रम

हकीकत यह है कि यह पुरस्कार अमेरीकी फिल्म इंडस्ट्री “हॉलीवुड” के पुरस्कार हैं, जिसे “एकेडमी आफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एण्ड साइंसेज” द्वारा प्रति वर्ष प्रदान किया जाता है| इनका आरम्भ 1929 में किया गया था और इस वर्ष “बर्डमैन” फिल्म को प्रदान किया जाने वाला यह 87वां ऑस्कर पुरस्कार है| यह पुरस्कार कुल 24 श्रेणियों में प्रदान किये जाते हैं, जिसमें एक श्रेणी विदेशी फिल्मों की भी है| इसी श्रेणी की वजह से दुनिया भर में यह भ्रम पाया जाता है कि इन पुरस्कारों की व्याप्ति वैश्विक है| लेकिन यदि हम इसकी पड़ताल करते हैं कि इनके 87 वर्षों के इतिहास में हमारे समय और समाज की कोई तस्वीर बनती भी है या नहीं, तो हमें निराशा ही हाथ लगती है| इन पुरस्कारों की रीढ़ भी मानी जाने वाली ‘सर्वश्रेष्ठ फिल्म’ की श्रेणी के आधार पर इनका मूल्यांकन किया जा सकता है|

1929 में आरम्भ इन पुरस्कारों के बाद की सबसे बड़ी घटना दूसरे विश्व युद्ध का पागलपन और उस समाप्त होते युद्ध पर अमेरिकी परमाणु बम के भौतिक प्रयोग की कोशिश है | लेकिन ऑस्कर विजेता फिल्मों की सूची देखने पर आपको यह जानकार हैरानी होती है कि इस पृष्ठभूमि पर बनी तीनों पुरस्कृत फ़िल्में इस युद्ध को दूर से ही छूकर निकल जाती हैं | 1946 की फिल्म “बेस्ट इयर्स आफ आवर लाइफ्स” हो या 1957 की फिल्म “द ब्रिज आन द रिवर क्वाई”, दोनों में से किसी भी फिल्म से युद्ध की तस्वीर साफ़ नहीं होती | तीसरी फिल्म “शिंडलर्स लिस्ट” है, जो रोंगटे खड़ी कर देने वाली विभत्सताओं के मध्य मानवीय मूल्यों के बचे होने को रेखांकित करती हुयी एक अदभुत फिल्म है | लेकिन यह इसलिए पुरस्कृत हुयी है, क्योंकि इसमें अमेरिका कहीं नहीं आता |

अफ्रीका केंद्रित ऑस्कर विजेता फिल्म “आउट आफ अफ्रीका” (1985) एक हवाई फिल्म है, और उसी तरह चीन की क्रांति पर बनी फिल्म “द लास्ट एम्परर” (1987) भी | अमेरिका को मथने वाले वियतनाम युद्ध पर पुरस्कृत दोनों फ़िल्में - 1978 की “डियर हंटर” और 1986 की “प्लाटून” – इस बात के क्लासिक उदाहरण हैं कि अकादमी की मानसिकता क्या है | ये दोनों ही फ़िल्में अमेरिकी सैनिकों की जिजीविषा और संघर्षो की कहानी पर ही केंद्रित रहती है | वे यह गोल कर जाती हैं कि शेर और मेमने के इस युद्ध में जब शेर ने इतने घाव खाए थे तब मेमने के साथ क्या हुआ था | दरअसल अमेरिका के साथ त्रासदी यह है कि अपनी चौखट से बाहर निकलते ही वह ‘वियतनाम युद्ध’ जैसे सवालो में अपने आपको घिरा हुआ पाता है | मध्यपूर्व से लेकर अफ्रीका के तानाशाहों तक, इराक से अफगानिस्तान तक, हथियारों की बिक्री से हिरोशिमा के हाहाकार तक और धरती के गर्भ में सुरक्षित तेल भंडारों से अंतरिक्ष की ऊँचाईयों में तार-तार होती ओजोन परत तक, यह देश जहाँ भी देखता है, उसे वियतनाम ही दिखाई देता है | यही दुखती राग उसे इन विषयों पर फिल्म बनाने से रोकती है | वह अपनी खोल में सिमट जाता है और जब कभी कोई निर्माता-निर्देशक इससे बाहर निकलने का साहस दिखाता है, तो ऑस्कर की निर्णायक मंडली उसे कूड़ेदान में फेंक देती है | ऐसी स्थिति में ऑस्कर पुरस्कारों की सूची से अमेरिका के इस बाह्य जीवन की अनुपस्थिति स्वाभाविक ही लगती है | यह सूची हिरोशिमा-नागासाकी पर डाले गए परमाणु बमों की दास्तान, अफगानिस्तान, अरब-इजराइल संघर्ष, क्यूबा और निकारागुआ से लेकर शीत युद्ध की छवियों को क्यों नजरअंदाज करती चलती है, इसे समझने के लिए अमेरिकी इतिहास पर जरुर नजर रखनी चाहिए |

मसलन इराक युद्ध पर बनी फिल्म ‘हर्ट लॉकर’ को देखा जा सकता है | यहाँ भी ऑस्कर की सूची यहाँ भी वही शातिराना खेल खेलती है, जिसे वियतनाम युद्ध पर वह आजमा चुकी है | इस फिल्म को देखकर आप सिर्फ यह जान पाते हैं, कि बम निरोधक दस्ता युद्ध से कराह रहे एक देश में किस प्रकार काम करता है | अब आप ही बताईये कि क्या इराक युद्ध की कहानी को आप इसी पटकथा के सहारे पकड़ पायेंगे? और फिर ईरान केन्द्रित फिल्म ‘आर्गो’ में भी इतिहास का विकृत चयन किया जाता है, जिससे ईरान की छवि खराब की जा सके |

ऑस्कर की इस सूची में कॉमेडी और ऐतिहासिक फिल्मो की भरमार है | लेकिन यहाँ की कॉमेडी दूसरे की फिसलनों से उपजी हुए कॉमेडी है | उनमे यह साहस नहीं है कि वे अपने ऊपर भी हँसें| रही बात ऐतिहासिकता की, तो वह रोमन साम्राज्य से लेकर मध्ययुगीन अन्धकार तक गोते जरुर लगाती है , जिसमे ‘बेन-हर’, ‘ग्लेडिएटर’ और ‘ब्रेवहार्ट’ जैसी बेहतरीन फिल्मों की उपस्थिति भी है, लेकिन यह सूची अपने समाज की रक्तिम बुनियादों की तरफ नजर उठाकर नहीं देखना चाहती | और यदि गत वर्ष की पुरस्कृत फिल्म ’12 इयर्स ए स्लेव’ के सहारे यह कोशिश की भी जाती है, तो उसमें यह ख्याल रखा जाता है कि इसके सहारे गोरे लोगों के पक्ष को भी पुष्ट किया जा सके | उन्हें भी मानवीय दिखाया जा सके |

यहाँ एक प्रश्न उठाया जा सकता है कि हम अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री से इस तरह के सिनेमा की उम्मीद ही आखिर क्यों करें? वह भी तो एक देश ही है, जिसे अन्यों की भांति अपने भीतर देखने की इजाजत होनी चाहिए | उसकी फ़िल्में दुनिया के झमेलों में अपना सिर क्यों खपाए? बात में दम है, लेकिन क्या अगली बार जब आप सी.डी. लाईब्रेरी में जायेंगे तब ‘अब्बास किआरुस्तामी’ और ‘कुरुसोवा’ की, ‘मजीदी’ और ‘आर्सन वेल्स’ की, ‘बेला तार’ और ‘इंगमार बर्गमैन’ की, ‘अल्मोडोवर’ और ‘माइकल हैंक’ की या फिर ‘इल्माज गुने’ और ‘जोल्टन फाबरी’ की फिल्मों को देखने की इच्छा व्यक्त करेंगे? क्या आप चाहेंगे विमल राय, सत्यजीत राय, अदूर गोपालकृष्णन और जाह्नु बरुवा की फिल्मों को देखना? यदि हां तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना है | और यदि नहीं, तो फिर हमें यह परख जारी रखनी पड़ेगी कि ऑस्कर पुरस्कृत फ़िल्में किस दुनिया की तस्वीर को दिखाती हैं, और वे किस तरह से अमेरिकी हितों के पोषण के लिए प्रयुक्त की जाती है | जाहिर है, यदि आप दुनिया की तस्वीर को फिल्मों के माध्यम से समझना चाहते हैं तो इसके लिए आपको पूरी दुनिया के फिल्म-उद्योग से गुजरना होगा | सिर्फ ‘हॉलीवुड’ से ही नहीं |

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