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निर्भीक पत्रकारिता की मशाल का बुझना

निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता का पालन भारतीय राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों में सदा कठिन रहा है। महात्मा गांधी, तिलक या पराड़र और गणेश शंकर विद्यार्थी के युग से तुलना करना उचित नहीं होगा, लेकिन आजादी के बाद भारतीय पत्रकारिता में अलग तरह की चुनौतियां रही हैं। इस दृष्टि से विनोद मेहता ने पिछले 42 वर्षों में भारतीय पत्रकारिता में नए प्रयोगों के साथ निष्पक्ष एवं प्रोफेशनल मानदंड स्थापित किए।
निर्भीक पत्रकारिता की मशाल का बुझना

डेबोनायर जैसी टेबलाइड किस्म की पत्रिका के संपादन से पत्रकारिता प्रारंभ करने वाले विनोद मेहता ने दैनिक, साप्ताहिक पत्र-पत्रिकाओं में अंतरराष्ट्रीय स्तर के गंभीर राजनीतिक लेखन को अपने पाठकों तक पहुंचाने में अद्भुत सफलता प्राप्त की। शीर्षस्थ राजनेताओं, राजनयिकों, पूंजीपतियों- कॉरपोरेट कपंनियों के प्रबंधकों, नौकरशाहों, कानूनविदों, चिकित्सा विशेषज्ञों, कट्टरपंथियों अथवा संघ की पृष्ठभूमि वाले प्रचारकों, सिने अभिनेताओं- रंगकर्मियों से संवाद के साथ उन पर बेबाक लिखने, लिखवाने तथा छापने में उन्हें कभी हिचकिचाहट नहीं हुई। देश-दुनिया की हस्तियों के साथ मिलने, खुलकर बातचीत के अवसर विनोद मेहता को बहुत मिले, लेकिन अहंकार की हलकी सी झलक उनके लेखन या व्यवहार में देखने को नहीं मिली।

आउटलुक समूह की पत्रिकाओं के सफल संपादन के पहले उन्होंने संडे आब्जर्वर, इंडिपेंडेट, इंडियन पोस्ट तथा पायनियर जैसे अंग्रेजी दैनिकों में समाचार, विचार और मर्मस्पर्शी फीचर्स के प्रभावशाली प्रस्तुतिकरण के अद्भुत प्रयोग पत्रकारिता में किए। यों संपादक के नाते दिल्ली में लगभग 20 वर्षों से उनसे मेरा परिचय था, लेकिन 2002 में उन्होंने मुझे आउटलुक हिंदी संस्करण को स्वतंत्र रूप से निकालने के लिए आमंत्रित किया और हिंदी पत्रिका ही नहीं संपूर्ण पत्रकारिता को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने में असाधारण समर्थन दिया। ऐसे अवसर भी आए, जबकि अंग्रेजी और हिंदी आउटलुक के संस्करणों में भिन्न विचारों को स्थान मिला। अंग्रेजी की प्रतिष्ठित लेखिका अरुधंती राय के लंबे लेखों को हिंदी में न छापने के मेरे निर्णयों का उन्होंने कभी प्रतिकार नहीं किया।

एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई वरिष्ठ और अनुभवी संपादकों को अपने साथ जोड़े रखा। वहीं जब मुझे एडीटर्स गिल्ड का महासचिव और अध्यक्ष बनने का अवसर मिला, तो अपनी बेबाक राय-सलाह से मुझे तथा गिल्ड को लाभान्वित किया। संपादकों के लिए आचार संहिता बनवाने में बी.जी. वर्गीज, इंदर मल्होत्रा, अजीत भट्टाचार्जी, राजेन्द्र माथुर, कुलदीप नायर तथा मामन मेथ्यू जैसे संपादकों के साथ अपने विचार रखे तथा कभी समझौता न करने वाली पत्रकारिता पर जोर दिया।

अटल बिहारी वाजपेयी का पहला इंटरव्यू उन्होंने सत्तर के दशक में डेबोनायर जैसी पत्रिका में किया था और उनके प्रधानमंत्री बनने पर भी उनसे प्रोफेशनल मुलाकात करते रहे। लेकिन आउटलुक पत्रिका में अटलजी के परिजनों के उल्लेख सहित एक सनसनीखेज रिपोर्ट छापने के बाद भाजपा नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार का कोपभाजन उन्हें तथा आउटलुक समूह को बनना पड़ा। फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति उन्होंने कभी निजी कटुता नहीं पाली। कांग्रेस और श्रीमती सोनिया गांधी के करीब होने की धारणा लोगों ने बनाकर रखी थी, लेकिन कांग्रेस नेताओं के कारनामों की तथ्यात्मक रिपोर्ट छापने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। निष्पक्ष पत्रकारिता की मशाल की आग तथा रोशनी का सामना हर कोई नहीं कर सकता। विनोद मेहता की यह मशाल बुझना पत्रकारिता के लिए बहुत बड़ी क्षति अवश्य है। लेकिन उसकी रोशनी और मिसाल हजारों पत्रकारों को प्रेरणा अवश्य देती रहेगी। विनोद मेहता को मेरा तथा पत्रकार समाज का नमन।

(लेखक आउटलुक हिंदी के संस्‍थापक संपादक रहे हैं)

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