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मौजूदा सरकार में विज्ञान की नासमझी: पीएम भार्गव

वह उम्र के उस पड़ाव में हैं, जहां कांपते हाथों के साथ लड़खड़ाती जुबान से लोग अपने बीते दिनों की उपलब्धियों को गिनते-गिनवाते हैं लेकिन उनका मामला अलग है। वह खुद ही पूछते हैं, बताओ मेरी उम्र कितनी है, फिर मेरे मौन को मेरी दुविधा समझकर खुद ही जवाब देते हैं, 86 साल। नहीं लगता न, अगर ये पार्किंसंस (हाथों-पैरों के स्वत: हिलने की बीमारी) न परेशान करता तो शायद बिल्कुल भी न लगता। पुष्प मित्र भार्गव (पी.एम.भार्गव) देश के आला वैज्ञानिक, बायोलॉजिस्ट हैं। उन्हें इस बात की फिक्र है कि अगर देश में जीन संवद्धित (जीएम) फसलों को मंजूरी मिल गई तो इससे किस तरह न सिर्फ पर्यावरण, खेती को नुकसान होगा बल्कि आने वाली पीढ़ियों को नुकसान होगा।
मौजूदा सरकार में विज्ञान की नासमझी: पीएम भार्गव

वह केंद्र सरकार की जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त सदस्य हैं और खराब तबीयत में भी इसकी बैठकों में शामिल होने को मुस्तैद रहते हैं। देश-विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित हो चुके डॉ. भार्गव देश के अनेक वैज्ञानिक शोध संस्थानों, खासकर हैदराबाद के सेंटर ऑफ सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी), जिसकी स्थापना ही उन्होंने की थी और जिसकी गणना देश के सबसे प्रतिष्ठित शोध केंद्र्रों में होती है, से जुड़े रहे हैं। आउटलुक की ब्यूरो प्रमुख भाषा सिंह से उन्होंने अनेक विषयों पर खुलकर बातचीत की। पेश हैं प्रमुख अंश:

इतने विरोध के बावजूद, जीएम फसलों को बढ़ावा दिया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके समर्थक हैं। इसकी क्या वजह है?

सबसे बड़ा और एकमात्र कारण है, कॉरपोरेट। कॉरपोरेट का बिजनेस इससे जुड़ा है। सीधा-सा फॉर्मूला है, किसी भी देश पर नियंत्रण करने का सबसे अच्छा तरीका है उसके खाद्य उत्पादों को काबू करना। आज भी 64 फीसदी भारतीय आबादी खेती पर निर्भर है। यहां अगर उन्होंने बीज के उत्पादन और एग्रोकेमिकल पर काबू कर लिया तो उन्हीं का बोलबाला है। मोनसेंटो, सीनजेंटा जैसी अमेरिकी कंपनियां लंबे समय से इस पर आधिपत्य के लिए सक्रिय हैं। एक अनुमान के मुताबिक, भारत में बीज उत्पादन का करीब 30 फीसदी कारोबार विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से है। अब यह सोचिए कि इतना लुभावना और फायदे वाला कारोबार हासिल करने के लिए वे ञ्चया कुछ नहीं करेंगी।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद जीएम के समर्थक माने जाते हैं। और यह बात, हमसे ज्यादा इन कंपनियों को पता है कि मोदी उनके लिए कोई राह निकालेंगे।

क्या पिछले एक साल में कोई राह निकली।

हां, स्पष्ट संकेत दिए गए कि केंद्र की नई सरकार जीएम फूड और जीएम फसलों के लिए रास्ता खोलेगी। पिछली केंद्र सरकार (यूपीए) को हम जैसे तमाम लोगों के दबाव में जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल पर रोक लगानी पड़ी थी। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने बहुत खामोशी के साथ इन फील्ड ट्रायल को मंजूरी देनी शुरू कर दी है। करीब 21 जीएम फसलों का फील्ड ट्रायल चल रहा है। पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने जिस अंदाज में कहा कि इस ट्रायल से किसी नुकसान का अंदेशा नहीं है, उससे साफ है कि सरकार इसे आगे बढ़ाएगी।

जीएम फसलों के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि उससे उपज बढ़ेगी। अन्न की कमी दूर होगी और यही एकमात्र रास्ता है, सबको भोजन मुहैया कराने का...?

यह सरासर गलत है। अवैज्ञानिक और बेहद बेतुका है। मिसाल के तौर पर भारत को ही लीजिए। भारत में हर साल तकरीबन 27 करोड़ टन अनाज पैदा होता है। अगर इसे भारत की आबादी से विभाजित किया जाए तो जितना प्रतिव्यक्ति के लिए इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ने निर्धारित किया है, उससे बहुत अधिक बैठता है। संकट कहीं और है। संकट है अनाज की बरबादी का। हमारे पास अन्न सुरक्षित रखने के लिए अच्छी भंडारण व्यवस्था नहीं है। दूसरा, लोगों के पास अनाज खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। आंकड़ों में तमाम तरह की बाजीगीरी करने के बावजूद हकीकत यही है कि देश में गरीबी और इसकी वजह से कुपोषण बढ़ा है।

यानी उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत नहीं है?

क्यों नहीं। उत्पादकता बढ़ाना तो लक्ष्य होना ही चाहिए, उसके बिना हम कैसे आगे बढ़ सकते हैं। सवाल है, कैसे। देसी तकनीकों, देसी खाद-उर्वरक आदि के जरिये न सिर्फ उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है बल्कि खेती की लागत भी कम की जा सकती है और जमीन की उर्वरता को बचाए रखा जा सकता है। ये किताबी बातें नहीं हैं। ऐसा हम कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश में 20-30 लाख हेक्टेयर जमीन पर ऑर्गेनिक खेती के जरिये उत्पादकता को बढ़ाया है और यहां एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है।

लेकिन अमेरिका सहित कई विकसित देशों में जीएम फूड तो है?

जी हां, वहां है। लेकिन देखिए वहां भी जीएम फूड की लेबलिंग की मांग जबर्दस्त ढंग से बढ़ रही है। इन देशों में एलर्जी और पेट की बीमारियों में कई गुना वृद्धि हुई है। साथ ही, भारत अमेरिका नहीं है। हम खेती पर निर्भर है। बीजों पर हमारा अधिकार होना जरूरी है। हमारी खेती विविध है। हमारे पास हजारों प्रजातियां हैं। ये हमारी धरोहर हैं, इन्हें बचाना और जिंदा रखकर हम पूरी दुनिया को चमत्कृत कर सकते हैं। इंडियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चर रिसर्च ने 4,000 से अधिक कृषि पद्धतियों को जुटाया है। लेकिन विडंबना देखिए। इनमें से सिर्फ 90 की जांच हुई और उनमें से सिर्फ 40 की दोबारा जांच हुई। मेरी जानकारी में इसके बाद हमने इस ज्ञान का भी कोई इस्तेमाल नहीं किया। सवाल है, क्यों? यह ज्ञान तो हमारी खेती की तस्वीर ही बदल देगा, पर सही मायनों में खेती की फिक्र किसे है।

आप वैज्ञानिक हैं। आज बहुत कम प्रतिभावान बच्चे वैज्ञानिक बनना चाहते हैं, क्यों?

विज्ञान आज एक आकर्षक कॅरिअर नहीं है। यह बेहद दुखद है। सरकारें विज्ञान में निवेश नहीं करना चाहतीं। अच्छे अध्यापक नहीं हैं। बेसिक साइंस में निवेश करने की जरूरत है। बच्चों और बड़ों को भी यह बताने की जरूरत है कि विज्ञान के बिना जीवन आगे नहीं बढ़ सकता। आज से 50 साल पहले क्या किसी ने कल्पना की थी कि मोबाइल फोन की तकनीक आएगी। नहीं, न। यह विज्ञान से संभव हुआ।

दिक्कत कहां है?

सरकार की उपेक्षा। आगे हालात और खराब होंगे। मौजूदा सरकार में कोई नहीं है जो विज्ञान को समझता हो, या जिसे यह लगता हो कि विज्ञान की जरूरत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतना बोलते हैं, लेकिन एक साल में एक बार भी विज्ञान शब्द पर नहीं बोले। वित्त मंत्री ने पूरा बजट पेश कर दिया, पर विज्ञान का नाम नहीं लिया। विज्ञान के नाम पर जब प्रधानमंत्री सहित बाकी नेता यह कह रहे हों कि हमने वैदिक काल में हवाईजहाज और बम बना लिया था तो उनकी वैज्ञानिक सोच के बारे में समझा ही जा सकता है। वैज्ञानिक सोच को इस दौर में जबर्दस्त खतरा है।

कैसे ?

अंधविश्वास और भ्रामक बातों को जब राजनीतिक वरदहस्त मिल जाए तो समझिए वैज्ञानिक सोच का बंटाधार है। कौन वैज्ञानिकों की शोध और समझ पर विश्वास करेगा। हमने अतीत में वाकई क्या हासिल किया था, उसे प्रचारित करने के बजाय ये सारी बातें विज्ञान का मार्ग अवरुद्ध करती हैं। वैसे भी वैज्ञानिक शोध पर बहुत खतरा है। कृषि में शोध मोनसेंटो सहित बाकी जीएम फूड वाली कंपनियां कर रही हैं। आईआईटी में भी यही चलन हो गया है। इससे देश के हित में जो असल शोध होने चाहिए, वह नहीं हो रहे।

 

 

 

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