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नजरिया: नक्सलवाद से लड़ती सड़कों पर जवानोंं की शहादत

इस बात में कोई संदेह नहीं कि सड़कें बहुत धीमी गति से नक्सलगढ़ की छाती पर सवार हो रही हैं और परिवेश बदल रहा है। भय का वातावरण सडकों के आसपास से कम होने लगा है।
नजरिया: नक्सलवाद से लड़ती सड़कों पर जवानोंं की शहादत

राजीव रंजन प्रसाद 

सुकमा में सोमवार को पुन: उसी परिक्षेत्र में नृशंस घटना हुई, जहां पूर्व में भी ऐसी ही बड़ी वारदातों को अंजाम दिया गया है। इसी क्षेत्र में पिछली 11 मार्च को हुई 12 जवानों की शहादत अब भुला दी गई है, इतना ही नहीं इन्हीं जंगलों में नक्सलियों द्वारा वर्ष 2010  में 76 जवानों की हत्या की घटना पर भी अब इस देश ने विस्मृति की राख बिछा दी है। कुछ दिनों की खामोशी के पश्चात हमारे जवान फिर लड़ने के लिए जंगलों-जंगलों भटकेंगे और उनके मनोबल को तोड़ने की कहानियां गढ़ने वाले गिरोह फिर सक्रिय हो जाएंंगे। अभी कुछ दिन तो रटे रटाए बयानों की बारी है तो आईए फिर सुने कि “कायराना हरकत है”, “बहादुरी पर सलाम है”, “दोषी बख्शे नहीं जाएंगे”, “संवेदना व्यक्त करता हूं” वगैरह वगैरह।        

नक्सलवाद के लिए सबसे बड़ा खतरा है – सड़कें। इस घटना के पीछे के तथ्यों को देखा जाएं तो वह स्थान जहां चितांगुफा और बुरकापाल के निकटवर्ती स्थानों में सड़क निर्माण का कार्य प्रगति पर है, वहां सीआरपीएफ की पेट्रोलिंग पार्टी नियुक्त थी। नक्सलियों की रणनीति होती है कि वे तीन गुणा अधिक ताकत से हमला करते हैं। जैसा कि वर्तमान घटना में 99 जवानों पर घात लगा कर लगभग 300 नक्सलियों ने हमला किया। घटनाक्रम पर ध्यान दिया जाए तो पिछले कुछ समय से नक्सलवाद के खिलाफ सड़कें बड़ी भूमिका में सामने आई हैं। हाल के दिनों में मैंने वर्तमान घटना स्थल के दूसरे छोर पर दंतेवाड़ा की ओर से जगरगुण्डा के लिए बन रही सड़क का स-विस्तार जायजा लिया था और ग्रामीण हालात और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों को समझने का प्रयास किया था। दंतेवाड़ा-अरनपुर मार्ग में बदला हुआ वातावरण मेरे लिए तब सु:खद आश्चर्य था। जवानाेें की शहादत की अनेक कहानियां इस सड़क निर्माण के साथ जुड़ी हुई हैं।

ग्रामीण बताते हैं कि बिछाए गए बारूद को हटाकर और सैंकड़ों विस्फोटकों को डिफ्यूज करते हुए डामर बिछाया गया है। अब दंतेवाड़ा जिले की आखिरी सीमा अर्थात अरनपुर पहुंचना सहज हो गया है। इस रास्ते से आगे बढ़ते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि जगरगुण्डा में राशन और आवश्यक सामान पहुंचाने के लिए क्यों पंद्रह सौ जवानों को जान पर खेलकर यह संभव बनाना पड़ता है। दोरनापाल से जगरगुंडा, दंतेवाड़ा से जगरगुंडा और बासागुड़ा से जगरगुंडा तीनों ही पहुंच मार्ग इस तरह माओवादियों द्वारा अवरोधित किए गए हैं कि जगरगुण्डा एक द्वीप में तब्दील हो गया है। जहां सघन सुरक्षा में किसी खुली जेल की तरह ही जन-जीवन चल रहा है।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि सड़कें बहुत धीमी गति से नक्सलगढ़ की छाती पर सवार हो रही हैं और परिवेश बदल रहा है। भय का वातावरण सडकों के आसपास से कम होने लगा है। रणनीतिक रूप से पहले एक कैम्प तैनात किया जाता है] जिसे केंद्र में रख कर पहले आस-पास के गांवों में पकड़ को स्थापित किया जाता है। आदर्श स्थिति निर्मित होते ही फिर अगले पांच किलोमीटर पर एक और कैम्प स्थापित कर दिया जाता है। इस तरह जैसे जैसे फोर्स आगे बढ रही है, वह अपने प्रभाव क्षेत्र में सड़कों की पुनर्स्थापना के लिए मजबूती से कार्य भी कर रही है।

जानकारी के अनुसार, इस क्षेत्र में केवल ग्यारह सड़कें दो सौ पैंतीस टुकड़ों में तैयार की जा रही हैं। अरनपुर कैम्प में मैंने सुरक्षा बलों के साथ समय गुजारते हुए उनके द्वारा अपने कार्यक्षेत्र की परिधि में किए जा रहे सामाजिक-आर्थिक कार्यों का जायजा लिया था। स्वास्थ्य सुविधा, साईकिल वितरण अन्य आवश्यक सामानों की आपूर्ति जैसे अनेक कार्य नक्सलियों से मोर्चा लेने के साथ साथ समानान्तर रूप से सिविक एक्शन के तहत उनके द्वारा किएं जा रहे हैं। मैंने यह महसूस किया कि ग्रामीणों को जैसे जैसे सुरक्षा का अहसास हो रहा है उन्होंने माओवाद के स्थान पर मुख्यधारा को अपने पहले विकल्प के तौर पर चुना है। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि सड़कें बेहतर तरीके से माओवाद के विरुद्ध लड़ाई में अपना योगदान दे रही हैं।

हमारी सशस्त्र ताकतें आरोपों के निरंतर घेरे में काम करती हैं। एक ऐसा माहौल तैयार कर दिया गया है कि नक्सलवाद से लड़ने वाले जवान या तो बलात्कारी है अथवा हत्यारा। इस कहन को इतनी चतुराई के साथ वैश्विक मंचो पर प्रस्तुत किया जाता है कि अनेक बार मैं दिवंगत आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा के मेरे द्वारा लिए गए आखिरी साक्षात्कार की इन पंक्तियों से सहमत हो जाता हूं कि नक्सलवाद के विरुद्ध मैदानों में पायी गई जीत को बहुत आसानी से दिल्ली में बैठ कर केवल पावरपोईंट प्रेजेंटेशन से पराजित किया जा सकता है। 

जैसे-जैसे नक्सलवाद के विरुद्ध जमीनी लडाईयां तेज होंगी, सुरक्षाबल और उसके अगुवा लोगों को विलेन बनाने की साजिशें भी बल पकड़ेंगी। क्योंकि बस्तर में लडाई केवल हथियारों से नहीं बल्कि मानसिकता और मनोविज्ञान के हर स्तर पर लडी जा रही है, जो पक्ष कमजोर हुआ धराशायी हो जाएगा। इसी परिप्रेक्ष की बस एक कड़ी है वर्तमान सुकमा हमला। हम जैसे जैसे मानसिक और मनोवैज्ञानिक लडाईयों में पराजित होते रहेंगे वैसे वैसे फिर से उठ खड़ा होगा नक्सलगढ़। जवान कठिन लडाई लड़ रहे हैं, लगभग हारी हुई...मैं शहादत को नमन करता हूं।

 

 

 

 

 

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