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व्यवस्था की विकलांगता ही चुनौतीः केदार

जब वह मेरे दफ्तर मिलने के लिए आए तो अचानक ही लगा कि मेरा दफ्तर भी विकलांग व्यक्ति के लिए कितना असुविधाजनक है। वह हथेलियों में हवाई चप्पल पहने हुए पूरी सहजता और जबर्दस्त आत्मविश्वास के साथ दफ्तर में आ चुके थे। तकरीबन लपकते हुए वह कुर्सी की ओर बढ़े।
व्यवस्था की विकलांगता ही चुनौतीः केदार

आत्म‌विश्वास जबर्दस्त 

फिर तपाक से हाथ मिलाया। इससे पहले उनसे फोन पर ही बात हुई थी और तब मुझे उनकी शारीरिक स्थिति के बारे में जरा भी अंदाजा नहीं था। बात हुई कि वह दफ्तर आएंगे और मुझे भी यह सहज लगा। मिलने के बाद लगा कि अगर मैं उनके कॉलेज चली जाती तो अच्छा था। मैंने ऐसे ही कुछ कहना शुरू किया और उन्होंने कहा कि इसकी कोई जरूरत नहीं थी, मुझे गाड़ी चलानी पसंद है और बाहर घूमना भी।

जिजिविषा का सफर

इस शख्सियत का नाम है डॉ. केदार कुमार मंडल। पोलियो ने कमर से नीचे के हिस्से पर जन्म के छह महीने बाद मारक प्रहार किया जिसने उन्हें पैरों पर चलने-फिरने से तो महरूम कर दिया लेकिन उनकी जिजीविषा को शायद यह मार और प्रखर कर गई। तभी तो उनके भीतर पूरी तरह सम्मानित और आत्मनिर्भर जीवन जीने की चाह उम्र के साथ लगातार बढ़ती गई। अपनी राह खुद बनाने के धुनी केदार ने बिहार के एक छोटे से गांव धपरी से लेकर दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक शिक्षा का सफर और फिर दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज में शिक्षण कार्य अपने बलबूते तय किया।

वर्ष 1977 में बिहार के धपरी गांव, झाझा शहर, जमुई जिला, में जन्मे केदार को पोलियो ने छह महीने की उम्र में शारीरिक रूप से विकलांग कर दिया था। गरीब घर में जन्मे केदार की पढऩे की ललक देखकर रेलवे में गैंगमैन की नौकरी करने वाले उनके पिता ने उन्हें भरपूर सहयोग दिया। केदार ने बताया कि कक्षा 1 से 5वीं तक की पढ़ाई गांव के स्कूल में हुई। स्कूल घर से एक किलोमीटर दूर था। हाथों के बल ही चल कर जाते थे केदार, बस्ते को ऊंचा करके पीठ पर बांधकर। सरकारी स्कूल में साथ में बोरा भी ले जाना होता था, वजन ज्यादा होने से कई बार मुश्किल जरूर होती थी, लेकिन सबसे ज्यादा कठिनाई बरसात के मौसम में होती थी। केदार कहते हैं, गांव की गलियां कीचड़ से अट जाती थी और मुझे आंसू बहाते हुए घर पर बैठना पड़ता था। मेरे सारे दोस्त, भाई-बहन दौड़ते हुए स्कूल चले जाते थे, बस मैं रह जाता था अकेला। गांव में मेरी विकलांगता पर जो मजाक उड़ता था, उससे मुझे इतनी तकलीफ कभी नहीं होती थी, जितनी बारिश के दिनों में होती थी। इन दिनों मुझे अपनी असहायता महसूस होती थी। आज भी बारिश मुझे यूं ही कमजोर बनाती है।

आज भी मेरा सडक़ पर हाथों के बल चलना मुश्किल हो जाता है और मैं कार या हाथ वाले रिक्‍शे से सफर नहीं कर पाता। लेकिन फिर एक ही जीवन में सबकुछ तो नहीं मिल सकता, यह मैं जानता हूं। केदार के जीवन में यह पंक्ति एक मंत्र की तरह साथ चलती रही कि जितना अवसर मिल रहा है, उसका भरपूर इस्तेमाल किया जाना चाहिए। पांचवीं के बाद पढ़ाई में मुश्किल आ गई, गांव में स्कूल नहीं था। इसलिए केदार को उनके ननिहाल भेज दिया गया। यहां दिक्कत थी, उनके मामाजी को रोज स्कूल तक छोडऩा पड़ता था। केदार ने बताया, ये अच्छी स्थिति नहीं थी। मुझे निर्भरता पसंद नहीं थी। मैं पढऩे में बहुत अच्छा था, इसलिए मेरे शिक्षक ने मेरे पिताजी को बताया कि रेडक्रॉस से साइकिलरिक्‍शा मिलता है। फिर वह लिया और मैं हाथ से चलाकर अपने घर से स्कूल आने लगा। पढ़ाई में तेज होने की वजह से सबने समझाया कि मैं आईएएस बनूं। झाझा से स्नातक करने के बाद लालबत्ती हासिल करने का क्रेज मुझे दिल्ली खींच लाया। दिल्ली आए थे केदार आईएएस की तैयारी करने।

आईएएस बनने का सपना चूर हुआ

उनका सपना था विदेश सेवा में जाने का। दिल्ली आकर उनके इस सपने को ऐसी ठोकर लगी कि यह चकनाचूर हो गया। इसकी किरचें अब भी उन्हें गड़ती हैं। वह कहते हैं कि जब दिल्ली आकर उन्हें पता चला कि वह इस जीवन में कभी विदेश सेवा अधिकारी नहीं बन सकते और आईएएस में भी उन्हें अहम पोस्टिंग नहीं मिलेगी तो वह गहरी निराशा से भर गए। जब दिल्ली में गुजारा चलाना मुश्किल हो गया तो किसी ने बताया कि वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में दाखिला ले सकते हैं। केदार के शब्दों में, तब तक मैंने जेएनयू का नाम भी नहीं सुना था। सोचा, चलो देखकर आते हैं, ये सोचकर वह दोस्त के साथ ढूंढ़ते-ढूंढते जेएनयू पहुंचे और यहां से उन्हें पहली ही नजर में प्यार हो गया। फिर उन्हें पीछे देखने की जरूरत ही नहीं पड़ी। इतिहास में स्नातक किया था, यहां हिंदी का दामन थामा और आगे बढ़ लिए। सामाजिक सक्रियता का पाठ भी यहीं से सीखा, जो आजतक जारी है। भारतीय प्रशासनिक सेवा में विकलांगों के साथ भेदभाव के खिलाफ जेएनयू के तमाम विकलांगों को एकजुट करके विजय चौक पर धरना दिया। इसकी सुनवाई भी हुई और आज कई क्षेत्रों में विकलांगों की पोस्टिंग की राह खुली है। एमफिल का विषय भी ऐसा चुना, जिसपर कम ही काम हुआ: 'रंगभूमि के विशेष संदर्भ में विकलांगों का जीवन संघर्ष।इसके बाद डॉक्टरेट की प्रवासी हिंदी साहित्य पर। अपने शोध के दौरान उन्होंने विदेश भ्रमण के अपने सपने को पूरा किया। तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए वह मॉरिसस गए और बाद में प्रवासी हिंदी सम्मेलन में बुलाए जाने लगे।

नई राह की तलाश

शैक्षणिक क्षेत्र में सफलता और स्थायित्व चूंकि केदार को जल्दी मिल गया इसलिए वह अब फिर नए क्षेत्र में किस्मत आजमाने की तैयारी कर रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह कॉलेज में वर्ष 2005 से हिंदी के प्राध्यापक हैं और उनका दायरा भी खासा व्यापक है। विद्यार्थियों के बीच अच्छी पैठ बना चुके केदार अब राजनीति के क्षेत्र में किस्मत आजमाने के लिए निकल चुके हैं। उनका यह आकलन है कि वह जमुई से विधानसभा की सीट के लिए अच्छे उम्मीदवार हो सकते हैं। उन्हें यह भी उम्मीद है कि वहां की जनता उनके संघर्ष को ध्यान में रखकर उन्हें अपना प्रतिनिधि बना सकती है। इसके लिए वह छुट्टी लेकर अपनी स्पेशल डिजाइन कार में बिहार की ओर निकलने को तैयार हैं।

केदार को लगता है कि एक पढ़े-लिखे नागरिक के तौर पर विकलांगों के प्रति समाज को संवेदनशील बनाने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाए। उन्हें यह भी दुख है कि देश की राजधानी दिल्ली पूरी तरह विकलांगों के प्रति असंवेदनशील है। वह कहते हैं, कोई भी योजना, इमारत, सडक़ बनाते समय किसी को ध्यान में ही नहीं आता है कि इस दुनिया में हम लोग भी हैं। हमें इससे लडऩे के लिए हर जगह अपनी उपस्थिति बनानी जरूरी है। इसके बाद जब वह दफ्तर से सीढिय़ों को पार करते हुए बाहर निकल अपनी कार की तरफ बढऩे लगे तो अचानक सडक़ के कुत्ते भौंकते हुए उनकी ओर झपटे। शांत भाव से उन्हें एक हाथ से हटाने की कोशिश की और कहा सड़क पर सबसे ज्यादा मुश्किल इनसे होती है। पर अब आदत पड़ गई है। यही जीवन है। कार खोली और बैठकर सधे हाथों से बढ़ चले। आखिर लंबा रास्ता तो उन्हें नापना ही है।

 

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