Advertisement

भूमि अधिग्रहण अध्‍यादेश की 7 बड़ी खामियां

बेशक विकास के लिए भूमि जरूरी है। देश को ज्‍यादा से ज्‍यादा उद्योगों, सड़कों, बिजली, रेल, अस्‍पतालों, स्‍कूलों और मकानों की जरूरत है। लिहाजा, भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया सरल और पारदर्शी होनी चाहिए। जिनसे जमीन ली जाए उन्‍हें उचित मुआवजा और विकास में हिस्‍सेदारी मिलनी ही चाहिए। लेकिन क्‍या मोदी सरकार की ओर से लाया जा रहा भूमि अधिग्रहण विधेयक, 2015 इस मामले में खरा उतरता है? वास्‍तव में नहीं।
भूमि अधिग्रहण अध्‍यादेश की 7 बड़ी खामियां

मोदी सरकार इस बात पर जोर देती रही है कि उसके द्वारा किए जा रहे तमाम बदलावों का एकमात्र मकसद देश का विकास करना है। दिसंबर, 2014 के अध्‍यादेश और 2015 में लोकसभा से पारित भूमि अधिग्रहण कानून, जो छोटे-मोटे बदलाव के साथ अब दोबारा अध्‍यादेश के रूप में लाया जा रहा है, इसके कई प्रावधानों पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि वर्ष 2013 का भूमि अधिग्रहण कानून कई कांग्रेस शासित राज्‍यों के लिए भी जटिल और मुश्किल साबित हुआ। लेकिन ऐसा लगता है कि जमीन हथियाने के लिए एनडीए सरकार अपने दामन पर धनबली कॉरपोरेट्स के आगे झुकने का दाग लगवाने की हद तक चली गई।

 

संशोधनों में उलझा जनहित

पहले, उन मुद्दों पर नजर डालते हैं जिन पर काफी बहस और चर्चा हो चुकी है। पांच श्रेणियों को प्राइवेट प्रोजेक्‍ट के लिए 80 फीसदी और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) प्रोजेक्‍ट के लिए 70 फीसदी भू-स्‍वामियों की सहमति, सामाजिक प्रभाव मूल्‍यांकन (एसआईए) और बहु-फसली सिंचित भूमि के अधिग्रहण की सीमा से मुक्‍त रखा गया है। ये पांच श्रेणियां हैं - रक्षा, ग्रामीण बुनियादी ढांचा, सस्‍ते आवास, औद्योगिक गलियारे और इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर। राष्‍ट्रीय सुरक्षा और डिफेंस प्रोजेक्‍ट्स के लिए यह छूट जायज है क्‍योंकि ऐसे मामलों में अधिग्रहण का उद्देश्‍य गोपनीय रखा जाता है। लेकिन सड़क, बिजली, रेलवे जैसी रेखीय परियोजनाएं के लिए सामाजिक प्रभाव मूल्‍यांकन की अनिवार्यता को खत्‍म करने का कोई कारण नजर नहीं आता। उचित सामाजिक प्रभाव मूल्‍यांकन के बगैर भू-स्‍वामियों की पहचान और राहत व पुनर्वास योजनाओं का प्रभावी क्रियान्‍वयन कैसे सुनिश्चित होगा?    

 

रूरल इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर का खेल

ग्रामीण बुनियादी ढांचा, सस्‍ते मकान, औद्योगिक गलियारे बेहद अस्‍पष्‍ट श्रेणियां हैं। इनका कुछ भी मतलब निकाला जा सकता है। यहां गड़बडि़यों की भरमार है। मिसाल के तौर पर, खेलों को इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर प्रोजेक्‍ट्स की परिभाषा में शामिल किया गया है। अब चाहे वह पीपीपी हो या स्‍वतंत्र उपक्रम, राहत एवं पुनर्वास के नियम ग्रामीण क्षेत्र में 100 एकड़ से अधिक और शहरी क्षेत्र में 50 एकड़ से अधिक जमीन निजी मोलभाव के जरिए खरीदने वाली प्राइवेट कंपनी पर ही लागू होंगे। यानी इसका मलतब यह हुआ कि कोई प्राइवेट कंपनी गोल्‍फ कोर्स बनाने के लिए 95 एकड़ बहु-फसली जमीन का अधिग्रहण कर सकती है। भू-स्‍वामियों की सहमति और राहत व पुनर्वास के नियम ग्रामीण क्षेत्र घोषित हुए इलाके पर लागू नहीं होंगे, चाहे वह किसी शहर के नजदीक ही क्‍यों न हो? क्‍या क्रिकेट कोचिंग सेंटर के लिए भी इस तरह जमीन ली जा सकती है?

 

किसके फायदे के औद्योगिक गलियारे

औद्योगिक गलियारों से देश के विकास को गति और नई नौकरियां मिलने की उम्‍मीद की जा रही है। हालांकि, इस शब्‍दावली को स्‍पष्‍ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। संशोधनों के मुताबिक, सरकार और इसके उपक्रम रेलवे लाइन या सड़क के दोनों ओर एक किलोमीटर के अलावा भी औद्योगिक गलियारों के लिए भूमि अधिग्रहण कर सकती हैं। पहली सवाल तो यही खड़ा होता है कि रेल या सड़क के आसपास अधिग्रहित उस दो किलोमीटर जमीन का क्‍या इस्‍तेमाल होगा? क्‍या सरकार राज्‍य की राजधानी से 200 किलोमीटर दूर 100 एकड़ जमीन को औद्योगिक गलियारा घोषित कर सकती है? तो क्‍या राज्‍य की राजधानी से आने वाली सड़क के दोनों ओर एक-एक किलोमीटर जमीन अपने आप अधिग्रहित हो जाएगी? राजनीति और माफिया के गठजोड़ को फलने-फूलने के लिए इससे ज्‍यादा क्‍या चाहिए।   

 

अफोर्डेबल हाउसिंग के नाम पर बिल्‍डरों को फायदा

मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्‍यादेश में और भी कई पेच हैं। हालांकि, 2013 के कानून के अनुसार अप्रयुक्‍त भूमि भू-स्‍वामी अथवा लैंड बैंक को पांच साल में लौटाई जा सकेगी, लेकिन नए अध्‍यादेश के हिसाब से अप्रयुक्‍त जमीन को लंबे समय तक कब्‍जे में रखा जा सकता है। ऐसा करना सिर्फ रेल या एयरपोर्ट जैसी विशेष परियोजनाओं के लिए ही जायज ठहराया जा सकता है, लेकिन सबके लिए नहीं। उदाहरण के तौर पर, 'अफोर्डेबल हाउसिंग' के तहत कोई बिल्‍डर 80 एकड़ जमीन खरीद सकता है, 40 एकड़ में प्रोजेक्‍ट शुरू करेगा और बाकी को 30 साल तक खाली रखेगा। इसका मतलब यह हुआ कि वह कौडि़यों के भाव जमीन खरीदकर लंबी अवधि में चांदी काटेगा। तब इस प्रोजेक्‍ट को अफोर्डेबल कहना गलतबयानी होगा। इससे अच्‍छा तो परियोजनाओं को शुरुआती चरण में ही अनिवार्य कर दिया जाए और किन परियोजनाओं को इससे छूट है यह बताया जाए। 

अक्‍सर यह तर्क दिया जाता है कि एक बार कानून पास होने के बाद इस तरह की अधिकांश बातें नियम व अधिनियम में शामिल की जा सकती हैं। लेकिन यह खतरनाक हो सकता है। याद रखिए, अभिव्‍यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने वाली धारा 66-ए गुपचुप तरीके से सूचना एवं प्रौद्योगिक कानून में इंटरनेट मध्‍यस्‍थ नियमों के जरिए ही लाई गई थी।

 

गुम हुआ 'सबका विकास

वास्‍तव में 2015 का भूमि अधिग्रहण कानून 'सबका साथ, सबका विकास' नारे पर खरा उतरना चाहिए। जो फिलहाल नहीं है। सरकार ने सामाजिक बुनियादी ढांचे, निजी अस्‍पतालों और निजी शिक्षण संस्‍थानों को अध्‍यादेश की छूट-प्राप्‍त श्रेणियों की सूची से बाहर कर सही कदम उठाया है। इससे राजनैतिक वर्ग और निहित स्‍वार्थों द्वारा जमीन हथियाने और अपना धन खपाने के इरादों की बू आती है। इससे बचने के लिए सरकार को और भी उपाय करने की जरूरत है। 

भूमि अधिग्रहण अध्‍यादेश में ऐसी कई खामियां और गड़बडि़यां हैं, जिन्‍हें दूर करने की जरूरत है। इसके अलावा खाद्य सुरक्षा का मुद्दा भी अहम है। नया भूमि अधिग्रहण अध्‍यादेश बहु-फसली जमीन को हथियाने के दूसरे बहुत से हथकंडे मुहैया कराता है। ऐसे में बहु-फसली जमीन का अंधाधुंध अधिग्रहण खाद्य सुरक्षा को प्रभावित कर सकता है। मुरली मनोहर जोशी की अध्‍यक्षता में विशेष आर्थिक क्षेत्रों की समीक्षा करने वाली संसदीय समिति ने आगाह किया है कि जिन क्षेत्रों में सेज के लिए जमीन ली गई वहां खाद्यान्‍न उत्‍पादन में गिरावट आई है।

 

सामाजिक प्रभाव आंकलन का घटता दायरा

बेहद जरूरी है कि जिन लोगों को जमीन से बेदखल किया जाए, उनके साथ इंसाफ हो। तकरीबन हरेक परियोजना से सामाजिक प्रभाव आंकलन का खत्‍म करना एक गंभीर मुद्दा है जो इस पूरी प्रक्रिया पर कमजोर करता है। लाखों-करोड़ों किसानों और जमीन के साथ रोजी-रोटी से हाथ धो बैठने वाले लोगों की चिंता जायज है। मौजूदा परिस्थितियों में ऐसा लगता है जैसे किसानों की जमीन छीनी जा रही है, उसे कुछ पैसे देकर किनारे किया जा रहा है। उसकी सुनने वाला कोई नहीं। जमीन के बदले मिला पैसा कब तक उसके पास रहेगा और क्‍या उसे बेहतर आजीविका मिल पाएगी, यह बहस का मुद्दा है। भूमि-अधिग्रहण की प्रक्रिया को नजदीक से देखने वाले नौकरशाह इशारा करते हैं कि जिन लोगों की जमीन छिनती है उन पर इसका विषम प्रभाव पड़ा है। जबकि दूसरी तरफ, आसपास में जिन लोगों की जमीन होती है उन्‍हें अधिग्रहित भूमि पर होने वाले विकास कार्यों से भारी लाभ पहुंचता है। क्‍या कोई ऐसा रास्‍ता नहीं है कि विकास का फायदा सबको मिले?

 

विकास में हिस्‍सेदारी बड़ा सवाल

अगर कानून के जरिए औद्योगिक गलियारों के लिए रेल या सड़क के दोनों ओर एक किलोमीटर जमीन के अधिग्रहण की कोशिश की जा रही है तो क्‍यों न इसे 1.25 किलोमीटर कर बाकी जमीन में उन लोगों को हिस्‍सेदारी दी जाए, जिनकी जमीन ली गई है। मूल कानून में इस तरह का प्रावधान पहले ही था कि शहरीकरण के लिए अधिग्रहित जमीन में से विकसित भूमि का 20 फीसदी परियोजना से प्रभावित परिवारों के लिए आरक्षित रखा जाएगा। यह फार्मूला सभी परियोजनाओं पर लागू हो सकता है। इस तरह के दूसरे कई उपाय भी हो सकते हैं। लेकिन सरकार को थोड़ा ठहरकर सही रास्‍ता चुनना होगा।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad