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बाहुबलियों की विजय का राज

एक बार फिर वही धुन। प्रिंट, टी.वी., वेब, मोबाइल फोन, फेसबुक, ‌टि्वटर जैसे हर सूचना-संचार माध्यमों पर चुनावी राजनीति में बाहुबलियों के प्रभाव, पहचान, लोकप्रियता अथवा आतंक से जुड़ी सफलता, चुनाव में विजय की चिंता निरंतर हो रही है।
बाहुबलियों की विजय का राज

हम जैसे अनेक पत्रकार वर्षों से इस मुद्दे पर लिखते-बोलते-छपते रहे हैं। संसद, न्यायपालिका, निर्वाचन आयोग, बड़ा प्रशासनिक वर्ग भी समय-समय पर राजनीति के अपराधीकरण अथवा आपराधिक पृ‌ष्ठभूमि वाले पार्षदों, विधायकों, सांसदों और मंत्रियों के विवरण जनता के सामने रखकर मुक्ति के उपायों की चर्चा करते रहे हैं। कुछ कानूनी प्रावधानों, ईमानदार प्रशासनिक और न्यायिक अधिकारियों के प्रयासों से प्रमाणित एवं अदालत से दंडित कई नेताओं का स्वयं सत्ता में आना कठिन हो गया। फिर भी लोकसभा या विधानसभाओं के चुनावों के दौरान इस घाव के दर्द की कराहट सुनाई देने लगती है।

अपने पाठकों के लिए मैं पुराने मातमी राग से हटकर कुछ और कहना-लिखना-सुनाना चाहता हूं। निश्चित रूप से आपकी असहमतियां लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के रूप में मुझे स्वीकार्य होगी। लेकिन कृपया इस मुद्दे पर भी विचार करें। लोकसभा चुनाव में सामान्यतः निर्वाचन क्षेत्र में 15 से 20 लाख मतदाता होते हैं। विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में भी ती से चार लाख तक मतदाता हो सकते हैं। आजादी के 70 साल बाद भी क्या विभिन्‍न निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाता सर्वाधिक भयभीत और परतंत्र जैसी अवस्‍था में होते हैं? अशिक्षा और गरीबी के बावजूद क्या वे दो-तीन बड़े नेताओं, पार्टियों के नाम और चेहरे से परिचित नहीं होते? दुर्गम पर्वतीय अथवा आदिवासी क्षेत्रों में भी लोग क्या भला-बुरा करने वालों की न्यूनतम जानकारी नहीं रखते? मतदाताओं में कुछ लोग सचमुच बेहद भले, अनजान, दूसरों पर निर्भर और मजबूर हो सकते हैं। इसलिये इतना मान लीजिये कि लोकतांत्रिक समाज का एक बड़ा वर्ग अपना अच्छा-बुरा समझने लगा है। यहां मैं जाति, धर्म, संप्रदाय, संगठन, पार्टी से जुड़े दबाव या समीकरणों की चर्चा भी नहीं करना चाहता, क्योंकि उस पर भी बहुत बहस होती रहती है।

कृपया शांत दिल-दिमाग से बाहुबलियों की विजय का राज सोचने-समझने का प्रयास करें। आखिरकार, एक हद तक विकसित क्षेत्र में बाहुबली माने जाने वाले नेता चुनावों में बीस-बीस वर्षों से कैसे जीत रहे हैं? उन्हें राष्ट्रीय या प्रादेशिक प्रभावशाली पार्टियों के नेता मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री तक पराजित क्यों नहीं करवा पाते? राज यह है कि इन इलाकों में राजनीतिक दलों के अधिकांश प्रतिनिधियों ने जनता के दुःख-दर्द में भागीदारी लगभग खत्म ही कर दी। कागजी वायदे, दिखावटी आंसू, आधे-अधूरे विकास कार्य और उनकी भी अनदेखी एवं केवल घिसे-पिटे फार्मूलों से चुनावी सफलता के प्रयास किए अथवा राजनीति में कभी किसी बाहुबली की सहायता या स्वयं किसी से आंतकित रहकर उसके लिए मैदान छोड़ दिया। दूसरी तरफ, दबंगई दिखाने वाला पहली बार संभव है एक क्षेत्र विशेष में थोड़ा डरा-धमकाकर विजयी हो गया हो, लेकिन बाद में उसने गरीबों या इलाके के साधन संपन्न लोगों को भी समय-समय पर मदद करने के निरंतर प्रयास किए। संभव है कुछ इलाकों में ‘जा‌तीय गौरव’ के नाम पर भी लोगों को अपनी ओर खींचा। लेकिन ऐसा तो नहीं होता कि किसी निर्वाचन क्षेत्र में समान जाति के उम्मीदवार विभिन्न दलों से खड़े नहीं होते। याद कीजिये किसी जमाने में डाकू मानसिंह को अपने इलाके में गरीबों का मसीहा माना जाता था, क्योंकि वह संपन्न जमींदार-जागीदार या सेठों से लूटकर गरीबों में बांटता था। इस पृष्ठभूमि के बाद फूलन देवी के चुनाव लड़ने पर केवल उसके समाज और क्षेत्र में ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर उसके बदले रूप को लोगों ने स्वीकारा-सराहा। वह बाकायदा चुनाव जीतकर आई थीं। उत्तर-प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, राजस्‍थान, मध्य प्रदेश हो या असम-बंगाल, केरल अथवा कर्नाटक या आंध्र-तेलंगाना, विवादास्पद छवि वाले नेता अथवा उसके परिवार के सदस्य चुनावी सफलता पाते रहे हैं। चुनाव आयोग की यह सिफारिश वर्षों से केंद्र सरकार के समक्ष विचाराधीन है कि अदालत में चार्जशीट हो चुके व्यक्ति को भी चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित कर दिया जाए। फिलहाल केवल अदालत से कम से कम दो साल की सजा मिलने के बाद ही वह 6 साल चुनाव नहीं लड़ पाता। लेकिन प्रभावशाली पार्टियां भी ऐसी कोई लक्ष्मण रेखा तय कर ‘घंटी’ नहीं बांधना चाहतीं। बहरहाल, बाहुबलियों के शिक्षित और बहुत हद तक बदले विचार-संस्कार वाले नई पीढ़ी के परिजनों को चुनाव में उम्मीदवार बनाए जाने पर आपत्ति अनुचित लगती है? पुरानी पीढ़ी के पाप कर्ज की तरह नई पीढ़ी पर थोपने का क्या औचित्य है? आखिरकार लोकतंत्र और न्याय का तकाजा यह है कि नियम, कानून, सामाजिक नैतिकता का पालन करने वाले हर व्यक्ति को लोकतांत्रिक यज्ञ में आहुति देने का अधिकार हो। जिन राजनीतिक दलों या संगठनों को बाहुबलियों के प्रभाव से मुक्ति की असली तमन्ना हो, वे जीत-हार की चिंता न कर पांच साल स्वयं तथा अपने कार्यकर्ताओं को जनता के बीच सक्रिय रहकर सेवा करने के अभियान चलाएं। यदि वे दुःख-सुख में भागीदारी के साथ ईमानदारी से किसी क्षेत्र का विकास करेंगे, तो बंदूक की नोक के बनाम वोट का हथियार उन्हें सफलता दिलाएगा।

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