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चर्चाः गरीब की जेब से डिजिटल क्रांति | आलोक मेहता

डिजिटल इंडिया का नारा आकर्षक है। रिक्‍शे वाला और सब्जी विक्रेता अथवा दूर-दराज काम कर रहे मजदूर के पास भी मोबाइल फोन पहुंच गया है। सरकार गौरव के साथ कहने लगी है कि देश में एक सौ करोड़ मोबाइल फोन लोगों के हाथों में दिखने वाले हैं। इस क्रांति से लोगों को सुविधा हो रही है, लेकिन धीरे-धीरे सरकार और निजी कंपनियां गरीब लोगों की जेब अधिक खाली करने लगी है।
चर्चाः गरीब की जेब से डिजिटल क्रांति | आलोक मेहता

पैसे वसूली के साथ सामान्य भोले-भाले लोगों के लिए नई समस्याएं पैदा होने लगी हैं। ताजी सूचना रेल टिकट कागज के एक छोटे टुकड़े पर उपलब्‍ध कराने के लिए चालीस रुपये वसूलने की तैयारी का है। पश्चिमी देशों की तरह भारत में विमान यात्राओं के लिए लोग मोबाइल पर टिकट दिखाने लगे हैं। लेकिन मोबाइल के नेटवर्क की बजाय छोटे शहरों के लोग अब भी प्रिंट पर भरोसा करते हैं। रेल में तो हर वर्ग के लोग चलते हैं। पहले रेल टिकट रद्द करने के लिए चार सौ रुपये तक का हर्जाना लगने लगा। यदि परिवार के चार-पांच सदस्य हों, तो गरीब का दो हजार रुपया जाने लगा। अर्द्ध शिक्षित अथवा रोजगार के कारण दूर दराज की यात्रा करने वाले गरीब लोग मोबाइल से टिकट का हिसाब किताब कैसे समझ सकते हैं। डिजिटल क्रांति ने बिजली-पानी के बिल भी नए ढंग से चुकाने का रास्ता खोला है। सरकार अधिकाधिक कर वसूली के लिए कंप्यूटर - मोबाइल का इस्तेमाल चाहती है, जबकि नई दिल्ली के सरकारी इलाके के पोस्ट ऑफिस अथवा राष्ट्रीयकृत बैंकों के कंप्यूटर सर्वर सुदूर तमिलनाडू से नियंत्रित होने के कारण दिन-दिन भर ठप रहते हैं। पोस्ट ऑफिस से पैसा निकालने वाले पेंशनधारी अथवा सामान्य मजदूर या छोटे व्यापारी परेशान घूमते हैं। बैंक सेवाओं की दरें निरंतर बढ़ती जा रही है। जन-धन योजना कितनी ही सफल हो, लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों के लिए दिल्ली-मुंबई से कमाई करने वाले साधारण लोगों को अपने परिवार के लिए पैसा भिजवाना अब भी कठिन है। चीन या जापान का मुकाबला करने के लिए जन सामान्य को न्यूनतम साधन संपन्न बनाना जरूरी है। इसी तरह डिजिटल क्रांति के साथ गरीब लोगों का खर्च बढ़ने के बजाय घटना चाहिए। रेल, बस, बिजली-पानी, सिर छिपाने लायक मकान की सुविधाएं आधुनिक प्रगति के साथ महंगी होने के बजाय सस्ती होने का सपना भारतीय देखते रहेंगे।

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