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रिलायंस जियो को हजारों करोड़ रुपये का अनुचित लाभ

संसद में पेश सीएजी (कैग) की ड्राफ्ट रिपोर्ट में पहले 22,842 करोड़ रुपये का रिलायंस जियो को 'अनुचित लाभ’ देने की बात कही गई मगर फाइनल रिपोर्ट में आश्चर्यजनक रूप से यह रकम घटकर 3,367 करोड़ रुपये हो गई। दिलचस्प यह है कि आरबी सिन्‍हा, जिनकी निगरानी में ये ड्राफ्ट रिपोर्ट तैयार हुई, उनका इसी महीने तबादला हो गया।
रिलायंस जियो को हजारों करोड़ रुपये का अनुचित लाभ

आठ मई, 2015 को भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग ने संसद में एक रिपोर्ट रखी। इस रिपोर्ट में बताया गया कि दूरसंचार विभाग ने मुकेश अंबानी की कंपनी 'रिलायंस जियो’ को 'ब्रॉड बैंड वायरलेस एक्सेस स्पेक्ट्रम’ के तहत कॉल करने की सुविधा देकर 'अनुचित लाभ’ पहुंचाया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक कंपनी को जिस समय इंटरनेट सेवा प्रदाता का लाइसेंस दिया गया था उस समय कॉलिंग की सुविधा नहीं दी गई थी। रिपोर्ट कहती है कि रिलांयस जियो को एक एकीकृत लाइसेंस चुपके से दे दिया गया जिसमें इंटरनेट सेवा प्रदाता होने के साथ-साथ कॉलिंग की भी सुविधा उपलब्‍ध हो गई और वह भी पुराने बाजार भाव पर। कैग ने इसी बात को अपनी फाइनल रिपोर्ट में उजागर किया और करीब 3,367 करोड़ रुपये के नुकसान की बात की।

अगस्त, 2014 के ड्राफ्ट कैग रिपोर्ट में 22,842 करोड़ रुपये का अनुचित फायदा पहुंचाने की बात कही गई थी। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि महज आठ महीने में क्या हो गया कि कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट और फाइनल रिपोर्ट में यह अंतर देखने को मिला। एक प्रेस वार्ता के दौरान उप नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, सुमन सक्सेना ने इस बात को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि ड्राफ्ट तो ड्राफ्ट होता है। इससे साफ पता चल गया कि इस कहानी की कोई और कहानी है। इस कहानी में रिलायंस जियो ने इन्फोटेल ब्रॉडबैंड सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड (आईबीएसपीएल) का अपने फायदे के लिए उपयोग किया। आईबीएसपीएल को ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम का लाइसेंस मिलना अपने आप में बड़ी बात थी क्योंकि यह इंटरनेट की सेवा देने वाली एक छोटी सी कंपनी थी जिसके मालिक अनंत नहाटा थे। कैग की ड्राक्रट रिपोर्ट में रिलायंस जियो के इस खेल में आईबीएसपीएल को ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम आवंटित करने के लिए सरकार की काफी आलोचना भी हुई। इसके साथ ही यह भी कहा गया कि रिलायंस जियो ने उन कमजोर कड़ियों का फायदा उठाया जिसे दूरसंचार विभाग ने 4जी ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस यानी बीडब्‍ल्यूए की नीलामी के नियम-कायदे बनाते समय छोड़ दिया था। इन्हीं कमजोर नियम-कायदों का फायदा उठाते हुए कंपनी ने बड़ी चालाकी से इस स्पेक्ट्रम पर कॉलिंग की सेवा भी हासिल कर ली।

जब वर्ष 2015 की फाइनल कैग रिपोर्ट आई तो उसमें इन सभी बातों को नजरअंदाज कर दिया गया और उन सभी महत्वपूर्ण उल्लेखों को हटा दिया गया जिससे यह पता लग रहा था कि कैसे रिलायंस जियो और  आईबीएसपीएल ने सांठ-गांठ से स्पेक्ट्रम हासिल किया। सितंबर 2014 में दूरसंचार विभाग और कैग के बीच हुए पत्राचार के साथ-साथ कैग के डायरेक्टर जनरल(ऑडिट) की ड्राफ्ट रिपोर्ट लीक हो गई। ज्यादातर कागजात गोपनीय श्रेणी में होने के बावजूद आम जनता के बीच आ गए और कई अखबारों, वेबसाइटों और पत्र-पत्रिकाओं में छपे। यहां तक कि सरकारी समाचार एजेंसी पीटीआई ने भी इसे छापा।

इन दोनों रपटों के रहस्य से परदा उठाने के लिए हमलोगों ने सैकड़ों कागजात पढ़े, समझ में न आने वाले तकनीकी शब्दों, कानूनी भाषा को समझा और नौकरशाहों से बात की। जो सामने निकल कर आया उससे पता चला कि कैसे सिस्टम काम करता है या यों कहें कि कैसे काम नहीं करता है। कैसे कुछ गिने-चुने लोगों को सिस्टम से मेल-जोल रखने का फायदा मिलता है और कैसे मुश्किल से प्राप्त सीमित संसाधनों को अपने फायदे के लिए हासिल किया जाता है।

 

आईबीएसपीएल का इतिहास

आईबीएसपीएल के मालिक अनंत नहाटा हैं। इनके पिता का नाम महेंद्र नहाटा है और ये हिमाचल प्रदेश के रहने वाले हैं। महेंद्र नहाटा हिमाचल फ्यूचरिस्टिक कम्युनिकेशंस लिमिटेड यानी एचएफसीएल के मालिक हैं। एचएफसीएल दूरसंचार संबंधित उत्पाद और सेवा देने का काम करती है। यह कंपनी वर्ष 2011 में तब सुर्खियों में आई जब टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में यह सामने आया कि डाटाकॉम नामक कंपनी को भी इस घोटाले से फायदा मिला है जिसका मालिकाना हक संयुक्त रूप से वीडियोकॉन और एचएफसीएल के पास था। इससे पहले वर्ष 1995 में महेंद्र नहाटा की एचएफसीएल ने 9 टूजी स्पेक्ट्रम लाइसेंस के लिए आवेदन किया जो उन्हें मिल भी गया था। फरवरी, 2010 में दूरसंचार विभाग ने 3जी और 4जी स्पेक्ट्रम की नीलामी के लिए एक अधिसूचना जारी की। इसमें यह कहा गया कि कोई भी कंपनी जो यूनिफाइड एक्सेस सेवा यानी यूएएस, सेल्यूलर मोबाइल टेलीफोन सेवा यानी सीएसटीएस और इंटरनेट सेवा प्रदाता यानी आईएसपी का काम करती हो, आवेदन कर सकती है। इसके अलावा ऐसी कंपनी भी अंडरटेकिंग देकर आवेदन कर सकती है जिसके पास इनमें से कोई भी लाइसेंस नहीं है लेकिन उसे नीलामी में स्पेक्ट्रम मिल जाने की स्थिति में इस सेवा को शुरू करने से पहले कैटेगरी ए (यूएएस/आईएसपी) का लाइसेंस लेना होगा।

जब आईबीएसपीएल इस प्रतिस्पर्धा में शामिल हुआ तब भारतीय दूरसंचार नियामक यानी ट्राई की सूची में वह 150वें पायदान पर था। उस समय कंपनी का पेड-अप कैपिटल (किसी कंपनी को शुरू करते समय शेयरधारकों का शुरुआती निवेश) महज दो करोड़ 51 लाख रुपये था और शुद्ध संपत्त‌ि दो करोड़ 49 लाख रुपये की। ग्राहक के नाम पर कंपनी के पास मात्र एक लीज्ड लाइन ग्राहक था। इससे साफ पता चलता है कि कंपनी की वित्तीय स्थिति मजबूत नहीं थी।

 

आईबीएसपीएल की जीत कैसे

वित्तीय स्थिति कमजोर होने के बावजूद नीलामी की बोली के लिए वित्तीय जरूरत यानी बयाना राशि जमा करने में कंपनी सक्षम हो गई। यह बयाना राशि 252.5 करोड़ रुपये थी जिसे एक्सिस बैंक के सहयोग से बैंक गारंटी के रूप में जमा किया गया था। यह राशि कंपनी की शुद्ध संपत्ति के सौ गुना से भी ज्यादा थी। मई, 2010 में 16 दिनों तक चली इस ई-नीलामी की प्रक्रिया में आखिरकार आईबीएसपीएल की जीत हुई। इस जीत के साथ आईबीएसपीएल का भारत के सभी बाईस टेलीकॉम सर्कल के लिए 20 मेगाहर्ट्ज बीडब्‍ल्यूए स्पेक्ट्रम पर अधिकार हो गया जिसके लिए कंपनी ने 12,847.77 करोड़ रुपये अदा किए, यह राशि इस कंपनी की शुद्ध संपत्ति से 5000 गुना ज्यादा थी। इस ई-नीलामी में अनिल अंबानी की रिलायंस कम्युनिकेशंस, वोडाफोन एस्सार और टाटा कम्युनिकेशंस सरीखे बड़े खिलाड़ी भी मौजूद थे लेकिन अधिक बोली लगने की वजह से ये लोग पीछे हट गए। आइडिया सेलुलर ने तो नीलामी में हिस्सा ही नहीं लिया।

सरकार ने आईबीएसपीएल जैसी छोटी कंपनी को नीलामी में आगे बढ़ने दिया जिसकी शुद्ध संपत्ति, बयाना राशि के सौवें हिस्से से भी कम थी। इस नीलामी की निगरानी के लिए औद्योगिक नीति और संवर्धन, सूचना प्रौद्योगिकी, आर्थिक कार्य आदि विभागों से अधिकारी नियुक्त करके अंतर-मंत्रालय कार्य संबधी समिति का गठन किया गया था। इसके बावजूद इस नीलामी को रोकने के लिए कहीं से कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया।

फरवरी, 2007 में आईबीएसपीएल की स्थापना हुई और नवंबर 2007 में इसे संपूर्ण भारत में इंटरनेट सेवा प्रदाता यानी आईएसपी का लाइसेंस दे दिया गया। वित्तीय वर्ष 2009-10 में इस कंपनी के पास सिर्फ एक लीज्ड लाइन क्लायंट था जिससे 14 लाख 78 हजार रुपये की कमाई हुई। 31 मार्च, 2009 को कंपनी के बैंक खाते में मात्र 18 लाख रुपये थे जिनमें से 10 लाख रुपये आईएसपी लेने के लिए दूरसंचार विभाग को बैंक गारंटी के रूप में दे दिया। मार्च, 2007 में अनंत नहाटा ने छह लाख रुपये के निवेश से एक और कंपनी की नींव रखी जिसे इन्फोटेल डिजिकॉम प्राइवेट लिमिटेड यानी आईडीपीएल के नाम से जाना जाता है। 31 मार्च, 2009 को इस कंपनी की शुद्ध संपत्ति आठ लाख 55 हजार रुपये की थी और कंपनी के पास कोई अचल संपत्ति भी नहीं थी। अगले वित्तीय वर्ष में कंपनी को आय के अन्य स्रोत से दो करोड़ 59 लाख रुपये राजस्व की कमाई होती है जिसमें 42 लाख 80 हजार का शुद्ध मुनाफा होता है। कंपनी के खातों का ऑडिट होने के बाद पता चलता है कि 31 मार्च, 2010 को 25 लाख रुपये की बैंक गारंटी पाने के लिए कंपनी ने सौ फीसदी मार्जिन मनी पर 25 लाख रुपये की फिक्‍स्ड डिपोजिट को सेक्यूरिटी के रूप में बैंक को दिया।

लेकिन कैग ने अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में इस बात को उजागर किया है कि बैंक गारंटी के बदले कंपनी (आईबीएसपीएल) के वित्तीय वर्ष 2009-10 के वार्षिक खाते में कहीं भी मार्जिन मनी के भुगतान की बात नहीं थी।   

 

सब गोल माल है

आखिरकार, करीब 117 राउंड के बाद 11 जून, 2010 को ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस स्पेक्ट्रम की ई-नीलामी समाप्त हो गई। नीलामी के परिणाम को अस्थायी तौर पर अंतर-मंत्रालय कार्य संबंधी समिति के अनुमोदन के बाद भारत सरकार के सचिवों की समिति से स्वीकृति मिलनी थी। इस समिति की अध्यक्षता कैबिनेट स्तर के सचिव कर रहे थे जिनमें वित्त मंत्रालय, योजना आयोग (अब नीति आयोग) और दूरसंचार विभाग के सचिव शामिल थे।

कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट के अनुसार जब सचिवों की समिति आईएमसी के अस्थायी परिणाम का अनुमोदन लेने के लिए उनसे मिली तो उन्हें बताया गया कि नीलामी की पूरी प्रक्रिया से वे लोग संतुष्ट हैं और इसमें कोई भी गड़बड़ी नहीं हुई है। साथ ही, नीलामी प्रक्रिया और अस्थायी परिणाम को पूरे तरीके से जांच-परख लिया गया है, जिसे बाद में स्वीकृति के लिए समिति के पास भेज दिया गया।

इसी बीच 11 जून, 2010 को आईबीएसपीएल ने अपने शेयरधारकों की एक बैठक बुलाकर अपने हिस्से के निवेश को दो हजार गुना बढ़ाकर ( 3 करोड़ से बढ़ाकर 6 हजार करोड़ रुपये) 75 फीसदी हिस्सेदारी रिलायंस के नाम कर दी। हर कंपनी का एक मेमोरंडम ऑफ एसोसिएशन होता है जिसके अंतर्गत एक कंपनी किसी दूसरी कंपनी से कोई करार करती है। अगर एक कंपनी को दूसरी कंपनी से कोई करार या समझौता करना है लेकिन मेमोरंडम ऑफ एसोसिएशन इसकी इजाजत नहीं देता है तो पहले इसे बदलना होता है फिर समझौता किया जाता है। लेकिन इस केस में ऐसा नहीं हुआ। पहले समझौता हुआ फिर छह दिन बाद 17 जून, 2010 को मेमोरंडम ऑफ एसोसिएशन बदला गया। जब मेमोरंडम ऑफ एसोसिएशन बदला गया तब कंपनी (आईबीएसपीएल) के निदेशक मंडल ने 10 रुपये कीमत के 47 करोड़ 50 लाख शेयर रिलायंस को दिए और 250 लाख शेयर आईडीपीएल को। अब इस कंपनी पर रिलायंस की 95 फीसदी हिस्सेदारी हो गई और आईडीपीएल की पांच फीसदी। 19 जून, 2010 को आईबीएसपीएल प्राइवेट लिमिटेड कंपनी से पब्लिक लिमिटेड कंपनी बन गई और 22 जून को कंपनी को नया नाम 'रिलायंस जियो इन्फोकॉम लिमिटेड’ दे दिया गया।

रिलायंस का आईबीएसपीएल पर आधिपत्य होना बड़ी खबर थी और समाचार पत्रों ने इससे संबंधित खबरें छापीं। कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट में इस बात का दावा किया गया कि इस डील के लिए रिलायंस ग्रुप से अनंत नहाटा की बातचीत पहले से चल रही थी जिसे वह 11 जून, 2010 को एक टेलीविजन वार्ता में स्वीकार भी कर चुके थे। नीलामी का परिणाम आने से एक दिन पहले ही दि इकॉनोमिक टाइम्स ने रिलायंस और आईबीएसपीएल के बीच हुई इस डील का अंदेशा जता दिया था। समाचार पत्र की इस स्टोरी का हवाला देते हुए कैग की अंतिम रिपोर्ट में सिर्फ इतना बताया गया कि आईबीएसपीएल एचएफसीएल ग्रुप की एक कंपनी है। रिपोर्ट में बस यही एक जगह है जहां नहाटा परिवार को नीलामी की इस कहानी में शामिल किया गया।

 

बीमारी यह पुरानी है...

वर्ष 1991 से 96 के बीच जब भारत के प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव थे तब पंडित सुखराम दूरसंचार मंत्री थे। मंत्रालय के अंतिम वर्ष (1996) में जब सीबीआई ने पंडित सुखराम के घर पर छापा मारा तो तीन करोड़ 60 लाख रुपये नकद बरामद हुए। किसी छापेमारी में इतनी नकदी की बरामदगी अब तक दुनिया में कहीं नहीं हुई थी और यह बरामदगी गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल हो गई। खुद तो बदनाम हुए ही, देश को भी दुनिया में बदनाम कर दिया। उनके ऊपर लगे आरोपों में एक आरोप यह भी था कि उन्होंने अपने कार्यकाल में नहाटा परिवार की कंपनी एचएफसीएल से बकाया लाइसेंस फीस की मांग समय पर नहीं करके उनका पक्ष लिया था।

आज वही नहाटा परिवार सिस्टम को तोड़-मरोड़ कर 4,750 करोड़ रुपये का मालिक बन गया लेकिन एक भी आवाज किसी कोने से नहीं उठ रही है। या यूं कहें कि आवाज उठाने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा है।

 

भाग-2

कहानी के दूसरे हिस्से में हमें पता चलता है कि कैसे वर्ष 2013 में 'रिलायंस जियो’ अपने ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस स्पेक्ट्रम पर कॉलिंग करने की सुविधा हासिल करने में सफल हआ। वर्ष 2011 में 'आईबीएसपीएल’ ने 'मोबाइल कंट्री कोड’ और 'मोबाइल नेटवर्क कोड’ के लिए दूरसंचार विभाग के पास आवेदन दिया। ये दोनों सुविधाएं होने से कोई भी कंपनी 'पब्लिक लैंड मोबाइल नेटवर्क’ की स्थापना कर सकती है। 'पब्लिक लैंड मोबाइल नेटवर्क’ का उपयोग या तो प्रशासनिक कार्य के लिए होता है या किसी स्वीकृत एजेंसी को दिया जाता है जो आम लोगों के लिए जमीन पर दूरसंचार सेवा प्रदान करती है।      

इससे पहले वर्ष 2008 और पुन: 2010 में दूरसंचार विभाग स्पष्ट कर चुका था कि कॉलिंग की सुविधा सिर्फ 2जी और 3जी स्पेक्ट्रम उपयोग करने वाले ऑपरेटरों को दी जाएगी। भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण यानी 'ट्राई’ की एक सिफारिश के मुताबिक 3जी स्पेक्ट्रम कॉलिंग और इंटरनेट (डाटा एप्लिकेशन) के लिए था जबकि 4जी स्पेक्ट्रम इंटरनेट के विस्तार के लिए और तेज इंटरनेट सुविधा प्रदान करने के लिए था।

 

समितियों और आयोगों की आड़ में खेल

तब से लेकर अब तक इस विवाद की जांच-पड़ताल के लिए कई समितियों का गठन हुआ। वर्ष 2012 में दूरसंचार विभाग के आग्रह पर 'ट्राई’ ने इसको लेकर एक दिशा-निर्देश जारी किया जिसमें लाइसेंस के तौर-तरीके में बदलाव कर नई एकीकृत लाइसेंस व्यवस्था को लागू किया गया। इस व्यवस्था के तहत संपूर्ण सेवा प्रदाता (इंटरनेट एवं कॉलिंग) बनने के लिए इंटरनेट सेवा प्रदाता को कॉलिंग की सेवा मिलना और भी आसान कर दिया गया। दूरसंचार विभाग समिति और आयोग द्वारा ट्राई से यह दिशा-निर्देश क्या जानबूझ कर दिलवाया गया था?

अगस्त, 2012 में एक अन्य दूरसंचार विभाग समिति ने कहा कि 3जी स्पेक्ट्रम को 'उदारता’ से नहीं बेचा जाना चाहिए। यहां उदारता का मतलब उस नियम के हट जाने से था जिसकी वजह से कंपनी को स्पेक्ट्रम लाइसेंस की शर्तों के तहत किसी खास सेवा में ही काम करने की बाध्यता होती थी। समिति ने तर्क देते हुए कहा कि अगर स्पेक्ट्रम की नीलामी करने से पहले इस उदार नीति को स्पष्ट कर दिया जाता तो खरीदार को निर्णय लेने में मदद मिलती और फिर इसका परिणाम कुछ और ही होता एवं कीमत भी बाजार तय करती। इससे पहले, दूरसंचार विभाग के पुराने कार्यकाल में इस बात को बता दिया जाता था कि किस स्पेक्ट्रम का क्या उद्देश्य होगा। मसलन कॉलिंग के लिए उपयोग होगा या इंटरनेट डाटा के लिए या फिर दोनों के लिए।

समिति ने इसी बात को उठाया कि जो कंपनी नीलामी में बोली लगा रही थी क्या उसे मालूम था कि 4जी स्पेक्ट्रम को बाद में कॉलिंग सेवा की भी अनुमति मिल सकती है। अगर कंपनी को इस बात की खबर पहले से होती तब सबको बराबर का मौका मिला होता। इस नियम को दूरसंचार विभाग ने वर्ष 2013 में बदला जबकि नीलामी की प्रक्रिया वर्ष 2010 में ही संपन्न हो गई। सितंबर, 2012 में दूरसंचार समिति ने एकीकृत लाइसेंस व्यवस्था की पेचीदगियों का हवाला देते हुए इस पर एक बार फिर से विचार-विमर्श और विश्लेषण करने की आवश्यकता बताई। ऐसा महसूस किया गया कि एकीकृत लाइसेंस व्यवस्था में नई और पुरानी कंपनियों के लिए 'ट्राई’ की अनुशंसा को मानने से उलझन पैदा हुई।

एक बार फिर से सितंबर, 2012 में ही इस विवाद को जांचने-परखने और आगे का रास्ता बताने के लिए एक और समिति का गठन कर दिया गया। जनवरी, 2013 में इस समिति का विस्तार किया गया जिसमें दूरसंचार आयोग के सभी पूर्णकालीन सदस्यों के साथ-साथ अन्य तकनीकी अधिकारियों को भी शामिल किया गया। फरवरी, 2013 में इस समिति ने 'आईएसपी’ लाइसेंस को नए एकीकृत लाइसेंस में परिवर्तन करने की मंजूरी दे दी। इस निर्णय का सबसे पहले फायदा लेने वाली कंपनी रिलायंस जियो ही थी। कंपनी ने अगस्त, 2013 में इसके लिए 15 करोड़ रुपये 'प्रवेश शुल्क’ और 1,658 करोड़ रुपये 'माइग्रेशन शुल्क’ का भुगतान किया। दो महीने बाद अक्टूबर, 2013 को औपचारिक रूप से रिलायंस जियो को एकीकृत लाइसेंस यानी इंटरनेट आधारित सेवा के साथ-साथ कॉलिंग सेवा भी प्रदान करने का अधिकार दे दिया गया।

कैग के अनुसार, 'माइग्रेशन शुल्क’ के मद में लिया गया शुल्क 1,658 करोड़ रुपये वर्ष 2013 के हिसाब से न लेकर वर्ष 2001 में तय 12 साल पुराना शुल्क लिया गया। इस 12 सालों में मुद्रास्फीति की दर और अन्य बातों को ध्यान में रखते हुए यह राशि 5,025 करोड़ रुपये होनी चाहिए थी। इसका मतलब यह हुआ कि इस घालमेल से रिलायंस जियो को तकरीबन 3,367 करोड़ रुपये का 'अनुचित फायदा’ मिला। वर्ष 2001 में 'आईएसपी’ लाइसेंसधारकों को मात्र 30 लाख रुपये प्रवेश शुल्क लगा था। इन 12 वर्षों के दौरान बाजार में जबरदस्त बदलाव आया लेकिन लगता है कि इसका कोई असर दूरसंचार विभाग पर नहीं पड़ा। दूरसंचार विभाग ने 2जी और 3जी के लाइसेंस शुल्क के बराबर (1,658 करोड़ रुपये) नाम मात्र का शुल्क लेकर पूरे भारत के लिए 4जी (20 मेगाहर्ट्ज का ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस स्पेक्ट्रम) का लाइसेंस दे दिया।

कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट के अनुसार जिस समय यह नीलामी हुई थी उस समय 3जी और 4जी की कीमत में आनुपातिक अंतर भी देखें तो तकरीबन 20,653 करोड़ रुपये का अंतर आता। इसके अलावा एकीकृत लाइसेंस शुल्क का अंतर जोड़ दें तो ये रकम 22,842 करोड़ हो जाएगी। आठ मई 2015 को कैग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट संसद में पेश की जिसमें उपरोक्त किसी भी आकलन का हवाला देना शायद लेखाकार भूल गए मगर एक बात जोर देकर कही कि नियम-कायदे में हुई भूल को सुधारने की कोशिश दूरसंचार विभाग ने कभी नहीं की।

सितंबर, 2006 में ट्राई ने ग्रामीण और दूर-दराज इलाके में ब्रॉडबैंड सेवा विस्तार को तेजी से आगे बढ़ाने की सिफारिश भी की थी। सिफारिश में यह कहा गया कि ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस स्पेक्ट्रम का लाइसेंस पांच वर्षों के लिए दिया जाए और हर पांच वर्ष पर 20 वर्षों तक लाइसेंस का नवीनीकरण किया जाना चाहिए। इसे सुचारु रूप से चालू रखने के लिए संबंधित नियम और शर्तें मानना अनिवार्य था। लेकिन इसके उलट दूरसंचार विभाग ने 20 वर्षों तक ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस स्पेक्ट्रम का लाइसेंस दे दिया और कहा कि यदि बीच में लाइसेंस रद्द हो जाता है या फिर कंपनी खुद ही इससे बाहर आना चाहती हो तो अलग बात है। लेकिन ऐसी स्थिति न होने पर यह लाइसेंस 20 वर्षों तक मान्य होगा।

अपनी फाइनल रिपोर्ट में कैग कहता है कि पांच साल पर लाइसेंस का नवीनीकरण कराने जैसी शर्तों को हटा लेने के बावजूद ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस 'बीडब्‍ल्यूए’ स्पेक्ट्रम का भरपूर उपयोग नहीं हुआ है। सिर्फ एक ही ऑपरेटर ने इसकी शुरुआत की है और वह भी कुछ चुनिंदा शहरों में। इससे साफ पता चलता है कि नीलामी में उदारवादी नीति अपनाने पर भी कोई फायदा नहीं हुआ। 'बीडब्‍ल्यूए’ स्पेक्ट्रम सेवा का विस्तार गांव और दूर-दराज के इलाके में अभी तक नहीं पहुंचा है जो इस नीलामी के मुख्य लक्ष्यों में से एक था।

 

4जी का भविष्य?

रिपोर्ट के मुताबिक, भारती एयरटेल के पास चार क्षेत्र हैं, इनमें से कुछ चुनिंदा शहरों में उसकी सेवा शुरू हुई है। वहीं एयरसेल के पास आठ, तिकोना के पास पांच और ऑगेरे के पास एक क्षेत्र है जिसने सेवा देना शुरू नहीं किया है। सबसे बड़े खिलाड़ी 'रिलायंस जियो’ के पास 22 सेवा क्षेत्र हैं लेकिन अभी तक कहीं भी इसकी सेवा की शुरुआत नहीं हुई है। हालांकि दिसंबर 2015 में इसकी सेवा शुरू होने की घोषणा हो चुकी है और इसके लिए दि इकॉनोमिक टाइम्स 'रिलायंस जियो’ का साथी बनकर एक 'स्टार्टअप अवार्ड्स’ समारोह करने जा रहा है। इनका कहना है कि 'जियो’ एक क्रांति है जो भारत में एक नए डिजिटल युग की शुरुआत कर रहा है जिसका फायदा लाखों भारतीय को मिलेगा और उनकी जिंदगी बदल जाएगी। रिलायंस इंडस्ट्री लिमिटेड पिछले पांच वर्षों में करीब 80 हजार करोड़ रुपये 'रिलायंस जियो’ पर खर्च कर चुका है। कैग की फाइनल रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया गया कि दूरसंचार विभाग ने 'यूएएस’, 'सीएमटीएस’ और 'बीडब्‍ल्यूए’ स्पेक्ट्रम की कीमतें एक समान रूप से तय नहीं कीं

क्योंकि 'यूएएस’ और 'सीएमटीएस’ को अपने-अपने स्पेक्ट्रम हिस्से के मुताबिक दो से पांच फीसदी का भुगतान जबकि 'बीडब्‍ल्यूए’ ऑपरेटरों को स्पेक्ट्रम उपयोग करने की कीमत का महज एक फीसदी ही भुगतान करने को कहा गया।

अंत में एक बड़ा सवाल अब भी रह जाता है कि कैग ने दूरसंचार विभाग की भूल बारे में तो लिखा लेकिन यह 'अनुचित फायदे’ की रकम, 22,842 करोड़ रुपये से महज आठ महीने में 3,367 करोड़ रुपये में कैसे बदल गई।

 

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