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जहां महावारी करती देवी को पूजने को लगता है मेला

असम के कामाख्या मंदिर में चल रहे अंबुबाची मेले से उठते हैं नारीवादी स्वर
जहां महावारी करती देवी को पूजने को लगता है मेला

भारत का यह अनोखा मंदिर है जहां की प्रथा नारीवादी आंदोलन की एक मांग के साथ खड़ी हुई है। असम के नीलाचल पहाड़ों पर बना कामाख्या मंदिर एक प्रसिद्ध शक्ति पीठ है, जहां हर साल इस समय अंबुबाची मेला लगता है। इस समय देवी माहवारी से गुजरती है और उसे स्त्री ऊर्जा का जबर्दस्त प्रतीक माना जाता है। एक तरफ जहां परंपरागत हिंदु धर्म में महावारी के दौरान औरतें अपवित्र मानी जाती हैं वहीं शक्ति का यह पीठ महावारी के दौर से गुजर रही देवी को उत्सव के रूप में मनाती है।

इस साल इस मेले में करीब 10-15 लाख लोगों के शिरकत करने की उम्मीद है। देश भर में हैप्पी टू ब्लीड यानी खुश है कि माहवारी है, आंदोलन चलाने  महिला आंदोलनकर्ताओं की मांग यही है कि इस दौरान उनके साथ जो भेदभाव होता है, उन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं मिलता है, इसे बंद किया जाना चाहिए। केरल के शबरीमला मंदिर में 10-12 साल की लड़कियों से लेकर 60 साल तक की महिलाओं का प्रवेश इसलिए वर्जित है क्योंकि यह माना जाता है कि माहवारी के दौरान औरतें अशुद्ध होती हैं। इसके खिलाफ लंबे समय से आंदोलन चल रहा है और सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया गया है।

ऐसे में यह अम्बूबाची मेला खास अहमियत रखता है। चूंकि देश भर की 51 शक्ति पीठ में कामाख्या मंदिर का खास महत्व है और कमाख्या देवी स्त्री शक्ति का प्रतीक बन कर उभरी है, इसलिए यहां इस मेले के दौरान महावारी करती देवी को पूजने लाखों की तादाद में लोग जुटते हैं।

वहां जाने वाले रूपा सेन ने बताया कि वह अपने परिजनों के साथ खास तौर से अपनी बेटियों के साथ सिर्फ इसलिए इन दिनों यहां आती है ताकि वह इस विश्वास को और मजबूत कर सकें कि महावारी के दौरान औरत और मजबूत और पवित्र होती है। अम्बूबाची कामाख्या देवी की सालाना महावारी का जश्न है। तीन दिनों पर महावारी से गुजर रही देवी के सम्मान में मंदिर बंद रहता और यह मेला लगता है। यह मान्यता है कि जब शिव ने सती के शव को लेकर तांडव किया था,तब उनकी योनी का हिस्सा कमाख्या में गिरा था। यहां के आकार में ही लाल पत्थर में देवी स्थापित मानी जाती है। इसे स्त्री शक्ति के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है। इस दौरान प्रसाद के तौर पर लाल रंग के एक कपड़े को वितरित किया जाता है, जिसे देवी के महावारी खून से रंगा हुआ बताया जाता है।

इस तरह से यह अनोखी प्रथा चली आ रही है। लेकिन हैरानी की बात है कि इस प्रथा का महावारी के दौरान औरतों को अपवित्र मानने वाले हिंदुत्ववादी सोच पर एक रत्ती असर नहीं पड़ा है।

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