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बतौर कलाकार निर्देशक को सौंपने के बाद कसक नहीं होती : नरेंद्र झा

बिहार के मधुबनी से दिल्ली आकर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से इतिहास की पढ़ाई करने के बाद नरेंद्र झा अभिनय में अपना कैरिअर बनाने में जुट गए। छोटे पर्दे पर ‘रावण’ से पहचान मिली और फिर ‘हैदर’, ‘घायल वन्स अगेन’, ‘फोर्स 2’ जैसी फिल्में करने के बाद अब वह 26 जनवरी के मौके पर एक ही दिन रिलीज हो रहीं ‘रईस’ और ‘काबिल’ में आ रहे हैं।
बतौर कलाकार निर्देशक को सौंपने के बाद कसक नहीं होती : नरेंद्र झा

जेएनयू की पढ़ाई और उसके बाद मुंबई की उड़ान। यह सफर कैसा रहा?

जब पढ़ रहा था उस समय यही सोचा था कि या तो सिविल सर्विस में जाएंगे या लैक्चरशिप करेंगे। लेकिन एक्टिंग का कीड़ा बचपन से था। स्कूल-कॉलेज में मैं अक्सर स्टेज पर नाटक किया करता था। जब यार-दोस्त भी यह सलाह देने लगे कि तुम एक्टर बनो तो मैंने अपने पिता जी से सलाह ली। उन्होंने कहा कि जो करो, पूरी तैयारी के साथ करो और मैंने दिल्ली के श्रीराम सेंटर में अभिनय के कोर्स में दाखिला ले लिया।

लेकिन आमतौर पर परिवार वाले एक्टिंग को कैरिअर बनाने को लेकर हतोत्साहित  करते हैं?

मैं इस मामले में शायद सौभाग्यशाली रहा। मैं चार भाइयों में सबसे छोटा हूं तो घर में हमेशा सभी का स्नेह और समर्थन मिला। भाइयों ने भी मेरे फैसले को स्वीकारा और इसीलिए न तो मुझे कभी दुविधा हुई और न ही असुविधा।

मुंबई आते समय कोई बैकअप प्लान भी था या बस यूं ही आ गए?

सच कहूं तो कुछ नहीं सोचा था। मुंबई में मेरे एक कजिन रहते थे और मैं आकर उनके पास ठहर गया। कुछ महीने तो इस शहर और माहौल समझने में लग गए और उसके बाद मॉडलिंग का मेरा सफर जो शुरू हुआ तो इस रफ्तार से हुआ कि मैंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। इसके बाद मुझे टी.वी. सीरियल मिलने लगे और फिर फिल्में। बस, तब से अब तक यह सफर जारी है और कभी किसी बैकअप प्लान की जरूरत ही महसूस नहीं हुई।

यानी आप यह तय करके नहीं आए थे कि मुंबई जाकर मॉडलिंग करनी है, टी.वी. में काम करना है या फिल्मों में?

जी बिल्कुल। मुझे जो काम मिलता गया मैं उसी को पूरे समर्पण और मेहनत से करता चला गया। मुझे अक्सर लोग पूछते हैं कि फिल्मों में आने में मैंने इतनी देर क्यों लगा दी तो मेरा जवाब होता है कि इसमें क्या देर और क्या सवेर। दरअसल मुझे टी.वी. पर इतना सारा काम और इतने अच्छे पैसे मिल रहे थे कि फिल्मों की तरफ मेरा ध्यान गया ही नहीं।

 

इस सफर ने आपको आत्मविश्वास भी तो दिया होगा?

हां और यही वजह है कि अब मेरे सामने चाहे कोई भी एक्टर खड़ा हो, मुझे यह नहीं लगता कि अरे यह तो बहुत बड़ा दिग्गज है या यह तो बहुत बड़ा स्टार है। मेरे अब तक के काम ने मुझे इतनी हिम्मत तो दे दी है कि मैं किसी के भी सामने और किसी के भी साथ बिना किसी झिझक के काम कर सकता हूं।

लेकिन कभी यह ख्याल मन में नहीं आया कि मुंबई की सड़कों पर लगे फिल्मों के बड़े-बड़े होर्डिंग्स में मेरा भी चेहरा दिखे?

अगर कहूं कि यह ख्याल मुझे कभी नहीं आया तो यह झूठ होगा। लेकिन एक सच यह भी है कि जो बड़े-बड़े टी.वी. सीरियल में कर रहा था और उनमें जो शीर्षक भूमिकाएं मैं निभा रहा था, वह मेरी इस इच्छा की पूर्ति कर रहे थे। ‘रावण’ में मैं रावण बना था और पूरे मुंबई में हर तरफ मेरे होर्डिंग्स और पोस्टर लगा करते थे। फिर मैंने अपने अंदर इस सच को हमेशा स्वीकारा है कि इंसान को जब जो मिलना होगा, तभी मिलेगा और उतना ही मिलेगा।

‘रईस’ और ‘काबिल’ के अपने किरदारों के बारे में बताएं?

‘रईस’ में मैं मुंबई के एक ऐसे डॉन का किरदार कर रहा हूं जो रईस यानी शाहरुख खान को शरण देता है और कहानी में उसकी बहुत अहमियत है क्योंकि बहुत सारे मायनों में वह इस कहानी को आगे ले जाने में मदद करता है। ‘काबिल’ में मैं एक पुलिस अफसर बना हूं जो इस कहानी में हुए मुकदमे की अपनी तरह से भी जांच कर रहा है।

‘मोहेंजोदारो’ में आपके काम को सराहा गया लेकिन आपका गैटअप ऐसा था कि आप पहचाने ही नहीं गए। यह कसक मन में नहीं आई कि लोगों ने तो आपको पहचाना ही नहीं?

जब आप खुद को अपने डायरेक्टर के हाथों सौंप देते हैं तो उसके बाद आपको उसके किसी निणर्य पर सवाल उठाने का हक नहीं रहता। बतौर कलाकार हम खुद को अपने डायरेक्टर को सौंप देते हैं और उसके बाद किसी कसक को मन में लाने का सवाल ही नहीं उठता।

किसी किरदार के लिए खुद को तैयार करने की आपकी प्रक्रिया कैसी रहती है?

जब मुझे कोई किरदार दिया जाता है और वह स्क्रिप्ट और उसके डायलॉग मुझे मिलते हैं तो मैं उसे कई बाद पढ़ता हूं। दस बार, बीस बार, पचास बार और जैसे-जैसे मैं उसे पढ़ता जाता हूं वैसे-वैसे वह किरदार मेरे सामने आकार लेने लगता है। एक काम मैं और करता हूं कि जैसा वह किरदार होता है, वैसे ही किरदारों को मैं अपने आसपास खोजता हूं, लोगों को ऑब्जर्व करता हूं और कोशिश करता हूं कि जो देखूं, उसे आत्मसात करके उस किरदार में ला पाऊं।

क्या रंगमंच से अभी भी जुड़े हुए हैं?

मन तो बहुत करता है कि जुड़ा रहूं लेकिन अब समय का थोड़ा-सा अभाव रहता है।

 

आपको नहीं लगता कि रंगमंच से आने वाले आप जैसे कलाकार इसे बस एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करते हैं और फिर झटक देते हैं?

बात तो सही है लेकिन ऐसा जान-बूझकर नहीं होता है। रंगमंच की अपनी एक दुनिया है जो काफी सारा समय और समर्पण मांगती है और यह भी एक सच है रंगमंच उसके बदले में उतना पैसा नहीं दे पाता है। मैं मुंबई आकर काफी समय तक रंगमंच से जुड़ा रहा और अभी भी मेरी इच्छा है कि फिर से नाटक किए जाएं लेकिन मुझे यह भी पता है कि अगले कुछ समय तक मैं इस इच्छा को पूरा करने का समय नहीं निकाल पाऊंगा।

आने वाली अपनी फिल्मों में से किसी खास का जिक्र करना चाहेंगे?

एक फिल्म है जिसे जयदीप चोपड़ा ने निर्देशित किया है ‘2016-द एंड’। यह एक अलग किस्म की फिल्म है और मुझे उम्मीद है कि जो लोग सिनेमा में कुछ नया और अनोखा देखना पसंद करते हैं,  वे इसे काफी पसंद करेंगे।

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