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समरसता की विक्ट्री

युवा कथाकार और अनुवादक। चर्चित पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा नवोदित एवं आशुलेखन प्रतियोगिता में पुरस्कार।
समरसता की विक्ट्री

विजय के नगाड़े सिरमिया देवी को बेसुध किए जा रहे थे, ये उन्हीं की जीत के नगाड़े थे। वह अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से रिकॉर्ड मतों से आगे चल रही थीं। मतगणना बस खत्म होने वाली थी। अब किसी भी फेरबदल की उम्मीद नहीं थी। रजिया चुनाव कार्यालय में इन नगाड़ों की अगुआई कर रही थी। सिरमिया देवी का जी आज की विजय से रो रहा था। उन्होंने कभी इस तरह जीत नहीं चाही थी, हमेशा पार्टी में रहकर पार्टी के टिकट पर जीत उनका सपना था। जिस पार्टी को उन्होंने ब्लॉक स्तर से उठाकर जिला और फिर प्रदेश स्तर पर अपने खून-पसीने से सींचा था, आज उसी के उम्मीदवार को और वह भी उनकी पार्टी के सर्वेसर्वा की बहू को हराकर, वह जीत रही थीं। उनकी आंखों में आंसू थे। वह खुद नहीं समझ पा रही थीं, यह आंसू खुशी के हैं, दुख के या विजय के? अभी छह महीने पहले तक सब ठीक था।

युवावस्था से अधेड़ावस्था तक पूरे बीस साल उन्होंने पार्टी को समर्पित किए थे। मंडल और कमंडल की राजनीति के समय में सामाजिक न्याय को लेकर बनी इस पार्टी में पहले जाति और धर्म के आधार पर कुछ नहीं था। सिरमिया देवी का मन अपने समाज के लिए, विशेषकर औरतों के लिए बहुत कुछ करने का था। ऐसे में युवा सिरमिया देवी ने सामाजिक समरसता का नारा बुलंद करने वाली इस पार्टी का दामन थाम लिया था।

पैंतालीस बरस की सिरमिया देवी इस पार्टी के महिला मंडल की जिला प्रमुख थीं। सीधे पल्ले की साड़ी पहने, ठेठ देसी अंदाज में जिंदा रहने वाली सिरमिया देवी का अपने जिले में बोलबाला था। राशन न मिलने से लेकर पति की मारपीट की बात भी औरतें सिरमिया देवी से करने आ जाती थीं। वह महिलाओं की आत्मीय थीं। हर गली-ब्लॉक में उनकी महिला टीम थी।

'सिरमिया देवी जिंदाबाद, जिंदाबाद।’ नारे उनके कानों में पड़ने लगे। उन्होंने अपने कान बंद कर लिए। उनके सामने पच्चीस बरस की सिरमिया खड़ी हो गई जिसे नेता साहब ने पार्टी में जगह दी थी। सिरमिया देवी को लगा नेता साहब उनके सामने खड़े हो कर कटाक्ष कर रहे हैं, 'अब तो अच्छा लग रहा होगा। उसी झंडे को हरा देना जिसके नीचे राजनीति सीखी, पहचान मिली। वाह सिरमिया।’

'मैंने क्या गलत किया। मैं भी तो उसूलों की खातिर ही पार्टी में आई थी। पार्टी छोड़ कर मैं तो कहीं नहीं गई न। आप ही लोगों ने भगा दिया था। आप ही लोगों ने आवाज बुलंद की थी परिवार के खिलाफ। यही कहा था न आपने कि अब जनता का राज होगा, लोकतंत्र आएगा। लोकतंत्र रटते-रटते कब आपकी पार्टी आपके परिवार की पार्टी बन गई आपको खुद भी पता नहीं चल पाया।’ विचारों में खोई सिरमिया छह महीने पहले पार्टी कार्यालय पहुंच गई। उनके परिचितों का मानना था कि उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए। वह उस क्षेत्र विशेष की समस्या से वाकिफ हैं। उन्हें पता है कौन सी सड़क कब बनी और राशन की कालाबाजारी कौन करता है। बीस साल से समस्याओं से लड़ते-लड़ते यह सब कैसे उनके दैनिक रूटीन का हिस्सा बन गया उन्हें पता नहीं चला। पर टिकट लेना इतना आसान था क्या?

'तो क्या सोचा है आपने?’ प्रदेश प्रमुख ने पूछा था।

'हमने?’

'जी आपने। यानी नई जिम्मेदारी के बारे में। महिला मंडल की प्रांत प्रमुख की जिम्मेदारी के बारे में?’ सिरमिया सुन कर बस चुप लगा गई। तब उनकी सहयोगी रजिया बोली, 'देखिए सर...।’ 'रजिया जी, आप चुप रहें, यह हमारे और सिरमिया देवी के बीच की बात है।’

'भाई साहब आप तो जानते ही हैं, मैंने कितनी मेहनत की पार्टी को उस इलाके में खड़ा किया है। लोग मुझे वहां की नेता के रूप में देखना चाहते हैं,’ सिरमिया देवी ने संकेत में अपनी बात रखी। 'सिरमिया पार्टी के कुछ नियम हैं और हमें उन पर चलना है,’ उन्होंने भी पांसा फेंका।

'पार्टी के नियम क्या हैं। आम कार्यकर्ता काम करे, डंडे खाए और जब ब्लॉक, शहर और महानगर स्तर पर पार्टी की साख बन जाए तो एसी में बैठे लोग बाहर आएं और परिवारों के सदस्यों में टिकट बंट जाएं। मेहनत करने वाला कार्यकर्ता कहां जाएगा?’

'देखो, सिरमिया हम जानते हैं आपने मेहनत की है इसलिए आपको पद दे रहे हैं। चलिए, महिला मंडल की प्रांत प्रमुख के बजाय आपको महिला मंडल का प्रांत अध्यक्ष बना देते हैं। आप काम करती रहिए। यह पद इसलिए तो है,’ उनकी कुटिलता चरम पर थी।

'वाह भाई साहब क्या पद दिया है। अगर पद देना ही चाहते हैं तो जिला अध्यक्ष बना दीजिए,’ सिमरिया देवी ने भी तय किया था कि आज बिना साफ जवाब सुने नहीं जाएंगी। 'जिला अध्यक्ष!’ वह ऐसे चौंके जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो। 'एक औरत जिला अध्यक्ष। पूरा संगठन तबाह हो जाएगा। एक औरत को जिला अध्यक्ष पद पर बैठाने का मतलब जानती हो? हमसे राजनीति करने के बजाय महिला मंडल में राज करो,’ उनके चेहरे का काइंयापन पूरे कमरे में फैल गया। सिरमिया देवी ने भी अपनी सारी कड़वाहट समेटी और दो टूक बोल दिया, 'आप सही कहते हैं, चुनाव तो चांदी का चम्मच लिए पैदा हुए लोग लड़ते हैं। पर हम भी आपको दिखा देंगे गरीबों की ताकत।’

'ठीक है, फिर ऐसा ही सही। राजनीति में बीस बरस गुजारने के बाद तुम्हें पता ही होगा बड़े नेता विरोधियों को कैसे मारते हैं। नेता जी का काटा पानी नहीं मांगता,’ प्रांत प्रमुख के साथी व्यंग्य से बोले।

'तब ठीक है इस बार आपकी बहूरानी और हमारी दीदी के बीच मुकाबला हो ही जाने दीजिए। देखते हैं, जनता कार्यकर्ता को देखना चाहती है या महारानी को। हमें अपने बीच से नेता चाहिए राजघराने से नहीं,’ रजिया ने दबंगई से फैसला ही सुना दिया। उस दिन की भारी बहस के बाद, अनुशासनहीनता के आरोप में सिरमिया देवी को पार्टी से निकाल दिया गया। कमरे में बैठने वाले नहीं जानते थे कि उस इलाके में उनकी पकड़ थी। उस क्षेत्र की वह चहेती थीं। धरने-प्रदर्शन के अलावा कार्यकर्ताओं पर उनकी बहुत पकड़ थी। छोटे से छोटे कार्यकर्ता को वह नाम से जानती थीं। अपने क्षेत्र की हर समस्या पर उनकी नजर रहती थी। उसका हल कैसे निकलेगा यह भी वह जानती थीं। मगर फिर चुनाव लड़ना वह भी बागी हो कर। उनकी हिम्मत जवाब दे रही थी। मगर कदम बढ़ा कर वह पीछे नहीं खींच सकती थीं। अब जीत हो या हार। अपनी जद्दोजहद पर काबू पा कर आखिर उन्होंने निर्दलीय पर्चा भर दिया। सफर आसान नहीं था। पर दिन प्रतिदिन कार्यकर्ताओं के उत्साह ने उन्हें नई ऊर्जा दी। उनके साथ वह सब लोग जुट गए जिनकी मदद कभी न कभी सिरमिया देवी ने की थी। रजिया ने नेता साहब की बहू और सिरमिया देवी के बीच अपना बनाम बाहरी मुद्दा बना दिया। रजिया ने नारा गढ़ा, ‘जिले की दीदी, विधानसभा इस बार जरूर जाएगी।’ रजिया का यह नारा खूब चल पड़ा। सिरमिया देवी को सच्ची मदद मिली उन लोगों से जिसके बीच उन्होंने अपने पंद्रह-बीस बरस बिताए थे। कभी किसी की झोपड़ी टूटी तो सिरमिया हाजिर, कभी किसी की दुकान पर अवैध वसूली तो सिरमिया हाजिर। सिरमिया का न परिवार था, न कोई आगे पीछे। एक मां थी जो उनके भाई के साथ रहती थी। उन पर दर्जनों पुलिस केस थे, जो उनके संघर्ष की कहानी कहते थे। सीधे पल्ले की साड़ी और पैरों में हवाई चप्पल उनकी पहचान बन गई थी।

'दीदी बाहर तो चलिए। देखिए कितने लोग जमा हैं। सब आपको देखना चाहते हैं,’ रजिया लगभग चिल्लाती हुई भीतर आई। सिरमिया देवी बाहर निकलीं तो कार्यकर्ताओं का हुजूम था। लोगों ने उन्हें फूलमालाओं से लाद दिया। उनके समर्थन में गगनभेदी नारे लग रहे थे। शोर था, नेता साहब की बहू को दीदी ने हरा दिया। रजिया कह रही थी, 'दीदी देखो राजतंत्र हार गया, लोकतंत्र जीत गया।’

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