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विश्वास दरकने की कहानी - कांच की दीवार

रेडियो के विदेश प्रसारण प्रभाग में कार्यरत जापान में रह रहीं नीलम मलकानिया रेडियो जापान की हिंदी सेवा में कार्यरत हैं। पंजाब में जन्मीं नीलम दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक और हिंदी साहित्य और रंगमंच में स्नातकोत्तर हैं। कॉलेज के समय से पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखती रही हैं। दिल्ली और मुंबई में कई नाटकों के मंचन में मंच पर और मंच-परे सक्रिय भूमिका निभाने वाली नीलम ने रेडियो लेखन में डिप्लोमा किया है। ऑल इंडिया रेडियो के नाट्य एकांश में रांगेय राघव, सत्यजीत रे, रवीन्द्र नाथ ठाकुर की रचनाओं का रेडियो नाट्य रूपांतरण पेश कर चुकीं नीलम 'बी हाई ग्रेड' कलाकार हैं।
विश्वास दरकने की कहानी - कांच की दीवार

गाड़ी से उतरते ही जिंगल ने अपना चश्मा और स्कार्फ सही किया और जल्दी से उस अनजान इलाके के पुराने रेस्त्रां में दाखिल हुई ही थी कि ठीक पीछे एक जानी-पहचानी आवाज हवा का सिरा पकड़े उसके कानों से होती हुई दिल के उसी काई लगे कोने में उतर गई जहां कुछ साल पहले उसे दफन किया था। उफ्फ आवाजें कभी नहीं मरतीं।

‘मिट्ठू... अ...मालती...सॉरी... जिंगल। ऊपर भीड़ नहीं है। आओ।’

गहरी सांस छोड़कर सीने का बोझ हल्का करते हुए वह सुहास को देखे बिना घूमी और उसकी परछाई सी पहली मंजिल पर चली गई। ऊपर सिर्फ दो ही लोग बैठे थे और अदरक की महक वाली देसी चाय सुड़क रहे थे। पास की टेबल पर फुसफुसाहट कुछ तेज हुई और उनकी ओर कुछ शब्द उछाले गए।

‘अरे भाई, या तो वोई मैड्डम है न, टी वी वाली, ‘मन की आवाज’ शो वाली, जिंगल परधान?’

‘हां भाई। ओ...राम-राम मैड्डम जी। बडे भाग म्हारे, जो तम म्हारे गांव पधारे।’

जिंगल ने उन्हें देखा और होंठों के सिरे को एक ओर खींचकर मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया और फिर से अपनी अलग दुनिया में खो गई। सुहास इस मुस्कान का मतलब जानता था, उसने अनमने मन से पूछा, ‘कहीं और चलें क्या?’

‘नहीं ज्यादा समय नहीं है, कैमरा यूनिट बस कुछ सीन लेने ही आई है पास में।’

‘हम्म...कब जा रही हो?’

‘अगले महीने 28 को’

‘पहले तो यकीं नहीं हुआ था कि तुमने खुद फोन किया, कितने सालों के लिए जा रही हो?’

‘दो साल।’

उनके बीच एक लंबी चुप्पी फिर से बहने लगी।

‘कब तक चुप रहोगी।’

‘...’

‘जब पहली बार तुम्हें रश्मि की पार्टी में देखा था, तब भी तुम इसी तरह बैठी हुई थीं, एक खामोश मुस्कान ओढ़े।’

सुहास बीती घड़ियां फिर से जी रहा था और लगातार बोलता ही जा रहा था।

‘सुनो, क्या अब भी तुम रातों में सहमकर जाग जाती हो?’

‘...’

‘कितने साल हो गए तुम्हारी हंसी की खनक सुने…बस टी.वी. पर देखता रहता हूं तुम्हें। कांच की दीवार होती है हमारे बीच में मिट्ठू।’

इससे पहले कि सुहास का दिया नाम ‘मिट्ठू’ जिंगल के आस-पास की हवा में मिठास घोलता, उसने तपाक से रूखे और चुभते अंदाज में कहा।

‘शादी कर लो तुम।’  

सुहास को जैसे एक ठंडी लहर ने कचोट दिया। वह संभलते हुए बोला, ‘दुबली हो गई हो तुम। जर्मनी में कैसे रहोगी अकेली? सब तैयारी हो गई क्या?’

‘सुहास एक बार में एक बात पूछो न।’

‘सच कहूं तो कुछ भी नहीं पूछना मुझे। तुम्हें सामने देखकर दिमाग अपनी रफ्तार से दौड़ रहा है और दिल अपनी रफ्तार से। बस नजर भर देखना है तुम्हें।’

नजर भर देखना है तुम्हें। इस एक लाइन ने दोनों को फिर से उस अंधेरी और काली रात में पहुंचा दिया था, जिसने उन दोनों के रिश्ते के जुगनू छिपा दिए थे। चार साल पहले दोनों मिले थे। अपनी संवेदनशीलता से सुहास ने एक ख़ास जगह बना ली थी मालती की दुनिया में। उस शाम मालती को एक जरूरी मीटिंग में जाना था। उसके दूसरे कहानी संग्रह को एक पुरस्कार के लिए चुना गया था। उभरती कथाकार सबसे कम उम्र की विजेता। बहुत खुश थी मालती। मीटिंग उसके घर से काफी दूर थी। रात गहराती जा रही थी और उसकी झालर वाली जालीदार ब्लैक ड्रेस ने उसे और भी रंगत दे दी थी। निखरा सा कालापन था माहौल में। अपनी ही धुन में उड़ती और सपने बुनती मालती को जब सुहास ने घर पहुंचाया तो बाहर तेज आंधी के साथ बारिश शुरू हुई और लाइट गुल हो गई थी। ओह। दिल्ली अचानक एक गांव सी हो गई थी लाइट जाते ही। उस पर मेट्रो का कंस्ट्रक्शन। रास्ते बदले हुए थे। मालती ने सुहास को यह कह कर रोक लिया था कि आनंद विहार से कहां नांगलोई जाओगे भीगते हुए।

एक कॉफी और खूब बातें। मालती का गुनगुनाना और अपनी किताब को लेकर प्लानिंग करना। किसी जरूरी लेख का फइनल ड्राफ्ट भी तैयार कर रही थी साथ-साथ। सीली हवा में लिपट कमरे में दाखिल होते फुहारों के छींटे, खुली खिड़की, टॉर्च की धीमी रोशनी में होठों के बीच पेन दबाए कुछ सोचती मालती और उसके लिए सुहास के दिल में बेपनाह धड़कता कुछ। दिमाग पर दिल हावी होने लगा। मन के अथाह सागर से कुछ निकलकर शरीर के भूगोल मे कैद होने लगा था। सुहास के बदन की तरंगे गाढ़ी होने लगी और सांसों में एक पूरी रात भरकर सुहास ने मालती को खींचकर सीने से लगाते हुए कहा था, ‘पास आओ, नजर भर देखना है तुम्हें।’ जैसे ही सुरुर भरा एक मुलायम अहसास होश पर हावी हुआ... तड़ाक।

मालती का जोरदार झापड़, फड़कते हुए होंठ और गुस्से में कांपता शरीर। सुहास की समझ में नहीं आया यह क्या हुआ अचानक? क्या उसने जल्दबाजी की? नहीं तो? क्या उनके बीच यह स्वाभाविक नहीं? तो फिर क्या वजह है?

मालती उसके लिए पहेली तो थी ही पर अब रहस्य भी बन गई थी। उस रात के बाद कितनी मनुहार के बाद तैयार हुई थी उससे मिलने के लिए और वह भी पूरे 15 दिन बाद।

‘मेरी गलती क्या है मिट्ठू, क्यों ऐसे रिएक्ट कर रही हो। कुछ तो बताओ। ऐसे तो मैं अपने ही सवालों में उलझ कर पागल हो जाऊंगा। डोंट डू दिस विद मी प्लीज।’  

बहुत मिन्नतों के बाद नुकीली यादों की उस बंद कोठरी के किवाड़ मालती ने पहली बार खोले थे किसी के लिए। सात साल की उम्र में सड़क दुर्घटना में मां-बाप गंवा देने वाली बच्ची को उसके चाचा हिसार से अपने साथ पानीपत के एक गांवनुमा कस्बे में ले आए और चाची की झोली में डाल दिया था। चाची ने कोई दुश्मनी नहीं निभाई तो ख़ास दोस्ती भी नहीं रखी।

दिन अपनी रफ्तार से गुजरने लगे। मालती रातों को नींद से जागकर रोने लगती। चाचा का अनुभव कुछ इस रूप में काम आया कि अनाथ को मां-बाप की याद सताती होगी शायद। मालती एक गोले में खोई रहती जिसके बाहर-भीतर कुछ भी नहीं था। वह गोला कहीं भी उसकी आंखों के सामने आ जाता। स्कूल में, घर में, खाना खाते समय, सोते समय। चाची का सामान्य ज्ञान कुछ झाड़ फूंक के रूप में सामने आया था और रिश्तेदारों का मनोरोगी के ठप्पे के साथ।

पीड़ा के साल बढ़ते गए और मालती का संघर्ष भी। छटपटाहट ने हाथ में कुछ रंग थमा दिए थे। एक दिन एक चित्र बनाया और उस पर खूब आंसू बरसाए। फिर चित्र किताबों में से कहीं गायब हो गया था। अचानक चाची के चांटे, ‘बेशर्म। दस बरस की हुई नहीं और यह सब। कहां देखा यह सब, बोल। निकल जा घर से। मेरी भी बेटियां हैं। उन्हें बिगाड़ना नहीं है मुझे। अरे, देखो जी क्या गुल खिला रही है तुम्हारी ये भोली लाडो। ब्याहता औरत के कान काटे ये तो। छी...छी...छी...।’

चाचा जब कभी मालती के सिर पर हाथ रखते, उसकी आंखों की दहशत देखकर हैरान रह जाते। उस दिन कुछ उबला था मालती के मन में जो कागज पर उतर आया था। वह चाचा की सामाजिक समझ थी या खून की पुकार या फिर दो बेटियों का बाप होने की संवेदनशीलता। चाचा ने तुरंत बिखरे हुए सूत्र जोड़ लिए थे। चित्र से चिपकी हुई आंसुओं की सूखी बूंदें। मालती का रातों में कांपते हुए जाग जाना। सबसे दूर-दूर रहना और हर समय चेहरे पर एक दहशत लिए फिरना। चाचा ने तुरंत उसकी मोटी सी डायरी पढ़ी जिसमें वह अपने अधकचरे भाव दर्ज करती रहती थी। इसके बाद चाचा की बची हुई शंका भी उड़न छू हो गई। दस साल की बच्ची ने पैंसिल से औरत-मर्द के रिश्ते को कागज पर उतारा था। कैसे और क्यों?

पता चला कि समय ने चुपके से मालती के साथ एक और मजाक कर दिया था। उस अनाथ बच्ची को चाची का जवान भाई गुड़िया देकर शरीर का विज्ञान समझाना शुरु कर चुका था। वह मालती को न जाने कब से समझा रहा था, ‘चाचा, मामा, अंकल, मौसा...सब आदमी ही हैं और सब यही करते हैं। बस बताते नहीं। अगर तुमने किसी से कुछ कहा तो तुम्हारी जीजी घर से निकाल देंगी। सड़क पर रहना पड़ेगा और हर कोई यही करेगा। अच्छे बच्चे चुपचाप अंकल की बात मानते हैं और किसी से कुछ नहीं कहते।’

चाचा ने अपनी सरकारी नौकरी और उस छोटे से कस्बे में अपनी बड़ी सी इज्जत की खातिर पुलिस केस नहीं बनने दिया था। अपना घर भी बचाना था, सो चाची के सामने कुछ नहीं बोला। उस दिन के बाद चाची की मेहरबानी से मोहल्ले की औरतें हर किसी को बता रही थीं।

‘अरी जिज्जी, या इत्ती सी छोरी किसी के साथ। हाय बेसरम।’

‘अरी सुन, किसी आदमी का इस छोरी के साथ… हे हे हे।’

‘अरी पता न किस-किस से हिली है। लो जी और सुणो।’

चाची का भाई तो रफूचक्कर हो चुका था पर मालती अब मनोरंजन का साधन थी। उसकी पीड़ा हर गली नुक्कड़ पर पहुंच गई थी। घर से स्कूल आते-जाते उसके शरीर की आंखों से ही मेडिकल जांच कर लेते लोग। बहुत से मनचले मालती से पूछने लगे थे।’

‘क्या-क्या जाणे है री तू?’

‘अरी सुण, बहुत मन करे है क्या तेरा?’

‘मेरी गैल चलेगी के?’

चाचा ने हर परेशानी का एक हल निकालते हुए उसे रिश्ते की एक मौसी के घर भेज उसकी पढ़ाई का सारा खर्च उठाने का भी वादा किया था। यह भी समझाया था कि जो हुआ उसे भूल जाए। आने वाले कल पर गुजरे कल का बोझ न पड़ने पाए। यही उसके लिए अच्छा है।

उस मौसी ने मालती को सहेजा। कोमल कच्चे घड़े को फिर से नया आकार दिया। तराशा। जवान विधवा मौसी ने अपने हक की लड़ाई खुद लड़ी थी तो मालती को नई चुनौती के रूप में पूरे दिल से स्वीकार किया और भरपूर प्यार दिया। बारहवीं करने तक स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न मुद्दों पर लेख, कविताएं और कहानियां लिखकर मालती ने जिंगल नाम से एक छोटा सा शब्द संसार रच डाला था। बिन मां-बाप की बच्ची ने दुनिया का भयंकर रूप बचपन में ही देख लिया था तो उसके कसैले स्वाद ने एकांतप्रिय बना दिया था। कुछ बातें रात भर उसकी नींदें कड़वा कर जाती थीं। रेंगते हाथ बड़ी मालती को भी नहीं छोड़ते थे और सपनों में आकर उसे दबोच लेते थे। बारहवीं के बाद हरियाणा से दिल्ली आकर बी.ए. करने का मौका मिला तो मौसी ने तुरंत हामी भर दी और कहा कि अपने आकाश के कोने खोल दो। जाओ पंख पसारो।

सुहास ने मालती के मुंह से जब उसका बचपन सुना तो एक पल को लगा जैसे किसी ने उसके शरीर को भरे बाजार उघाड़ दिया हो। पहली बार उसकी मिट्ठू की पीड़ा और उसकी खामोशी पनीली हो सुहास के सामने बही थी। तब उसे समझ आया था कि क्यों मालती के मन में किसी की छुअन की चाह नहीं थी और क्यों उसने उन दोनों के प्यार को एक रुहानी अंदाज दिया हुआ था। यही उनकी आखरी मुलाकात थी। उसके बाद सुहास की बहुत कोशिशों के बाद भी मालती ने मिलना नहीं चाहा और सुहास को लगा कि जबरदस्ती से बात और बिगड़ जाएगी। उनके बीच गुजरे हुए दिन अपना अधिकार मजबूत करते रहे और आज तीन साल बाद दोनों आमने-सामने थे।   

मोबाइल की घंटी ने दोनों को पिछली मुलाकात से बाहर निकाल फिर उसी रेस्त्रां में ला पटका।

‘मुझे जाना है।’

‘मैं दिल्ली आ सकता हूं तुमसे मिलने?’

‘नई-नई पोस्टिंग है यहां तुम्हारी। काम पर ध्यान दो। ऑफिसर ही नदारद रहेगा तो स्टाफ क्या काम करेगा। जाने से पहले एक बार साफ-साफ कहना चाहती थी कि मेरा इंतजार करना बंद करो और आगे बढ़ो।’

पर सुहास के लिए आगे बढ़ने का मतलब अकेले बढ़ना नहीं था शायद।

‘तुम कब अपनी घुटन से बाहर निकलोगी।’

‘मुझे कोई बात नहीं करनी इस बारे में।’

‘पर मुझे तो करनी है। प्लीज यार। तुम दोहरा जीवन जी रही हो। अपने आस-पास यूं दीवारें खड़ी मत करो। भूल जाओ न वह सब। लोग तुम्हें बहुत मजबूत लड़की मानते हैं और तुम हो भी। अब यूनीसेफ ने चुना है तुम्हें जर्मनी में अपने नए प्रोजेक्ट के लिए।’

‘जाना है मुझे। मालती के शब्द फिर सख्त हो गए।

मैं अपनी बातों से तुम्हें दुख नहीं पहुंचाना चाहता मालती, पर यह भी सच है कि मैं तुम्हें खोना भी नहीं चाहता।’ सुहास की आवाज भीग गई अचानक।

कार की स्पीड के साथ मालती सुहास से दूर जा रही थी। उनके बीच का रास्ता लंबा होता जा रहा था। मालती के सामने फिर से एक गोला आ गया था। सुहास समझ नहीं पा रहा था कि जिस बच्ची ने बचपन जिया ही नहीं उसे वह भविष्य के सुनहरे सपने कैसे दिखाए। क्या मालती कमजोर है या दोगली या फिर असंतुलित? नहीं शायद उसके लिए कोई शब्द नहीं है सुहास के पास क्योंकि उसकी पीड़ा और परिस्थितियां सुहास ने नहीं जी हैं।

समय ठहर सा गया था और उसी एक बड़े से गोले में समाता जा रहा था जिसका ओर-छोर न मालती के पास था न सुहास के पास। वह तड़पकर रह गया। मालती कितने लोगों की लड़ाई लड़ती है, कोई क्यों नहीं सोचता कि इन सबमें उसे क्या मिलता है। `मन की आवाज` शो की हर स्टोरी में किसी का दर्द उजागर करना और दोषी को सामने लाना, यही करती है न वह। पर उसके दोषी को चुपचाप बचा लिया गया था। कोई नहीं लड़ा था उसकी तरफ से और शायद यही है वह नासूर जो उसे चैन से नहीं सोने देता। किसी की करतूत को मालती ने पता नहीं किस-किस रूप में भोगा है। मजाक वह बनी, उंगलियां उस पर उठाई गईं, दवाइयों का सहारा उसे लेना पड़ा, कोई भी शिक़ायत करने से पहले दूसरे के अहसानों के बारे में सोचना पड़ा और वह आदमी जिसने उसके बचपन पर डाका डाला, वह तो कहीं नीति कथाएं सुना रहा होगा दूसरों को। भूल जाओ वह सब कह देने से शायद वह दर्द और भी नया हो जाता है मालती के लिए। उसका गुस्सा अंदर ही अंदर उसे खाने लगता है। नहीं मालती का मन कुछ भी भूलने को तैयार नहीं है। पर इस तरह तो वह खुद को सजा दे रही है।

सुहास के मन में अचानक कुछ कौंधा। सजा? हां सजा यही एक रास्ता है शायद। कुछ दर्द ऐसे होते हैं जो कभी पुराने नहीं होते तो फिर कोई अपराध कैसे पुराना हो सकता है? सुहास ने खूब सोचा। यह सिर्फ उस आदमी से लड़ाई नहीं है बल्कि उस सोच के प्रति भी लड़ाई है जहां एक ही दिलासा है कि भूल जाओ सब। उस आदमी को पर्दे से बाहर तो लाना ही होगा जिसने मालती को इतनी जटिल बना दिया है कि आज भी वह अपनी दुनिया में किसी पुरुष की उपस्थिति नहीं चाहती। सुहास ने तय किया कि मालती अपने साथ जर्मनी तक कोई बोझ लेकर नहीं जाएगी। अगले महीने ‘मन की आवाज’ शो का आखिरी एपिसोड है। इस अंतिम एपिसोड में जिंगल की अपनी कहानी होगी और वह सब लोग उसके साथ होंगे जिनकी लड़ाई जिंगल प्रधान ने लड़ी है। सजा और अपराध से अलग यह सबसे पहले उसके बचपन का सम्मान होगा।

सुहास चाहता था कि जिंगल मीठी नींद सोए, एक दम बेखबर और बिना किसी दहशत के। वह जिंगल का इंतजार करता रहा है,  हारा नहीं है,  आगे भी करेगा। ऑफिस पहुंचते ही जिंगल का दर्द साझा करने की कोशिश में एक बड़ा फैसला करके सुहास ई-मेल लिखने लगा, जिंगल के चैनल हैड के नाम। 

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