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हनीफ मदार की कहानी 'जश्न -ए-आजादी'

‘हंस’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘परिकथा’, ‘उद्भावना’, ‘वागर्थ, ‘समरलोक, अभिव्यक्ति, सुखनवर, लोकगंगा, युगतेवर, लोक संवाद और दैनिक जागरण में कहानी प्रकाशित। कहानी संग्रह - ‘बंद कमरे की रोशनी।’ अनेक लेखकों की महत्वपूर्ण कृतियों की दर्जनों समीक्षाओं के अलावा नाट्य समीक्षाएं। नाटक एवं नाट्य रुपांतरण। प्रेमचंद, मंटो, ज्ञानप्रकाश विवेक आदि की कई कहानियों का नाट्य रुपांतरण ‘संकेत रंग टोली द्वारा मंचित। ‘जन सिनेमा द्वारा निर्मित एवं ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी ‘कैद’ पर बनी हिंदी फिल्म के लिए पटकथा एवं संवाद लेखन।
हनीफ मदार की कहानी 'जश्न -ए-आजादी'

उसका घर इन नवधनाड्य और विकसित, अविकसित कॉलोनियों से दूर बंजर जमीन पर बसे उस मुहल्ले में था जो अभी तक किसी ग्राम पंचायत या टाउन में शामिल नहीं हो पाया था। उसकी बस्ती का कोई नामकरण भले ही न हो पाया था लेकिन शहर में आने-जाने वालों को वह दूर से ही नजर आती थी। एक-दूसरे से सटी हुई प्लास्टिक के तिरपाल से बनी सैकड़ों झोपड़ियों को मानो आसमान ने तरस खाकर अपने एक टुकड़े से छत बना कर ढक लिया हो। उस बस्ती से रोज सुबह, फटी बेवाइयों के साथ कंधे पर खाली प्लास्टिक की बड़ी सी बोरी लटकाए कई जोड़ी पैर बाहर जाते और शहर भर के कचरे को अपनी पीठ पर लादे शाम तक वापस आते। बस्ती के बाहर-भीतर लगे उसी कूड़े के ढेर से ही निकलता था उसका खाना और नाश्ता। रात के गहराते अंधेरे में वही कूड़े का ढेर उसके मुलायम बिस्तर में तब्दील हो जाता।

वहां से निकलते हुए लोग अकसर उस बस्ती पर चर्चा करते, 'अब देखो, यह भी तो भारतीय जन हैं। देश को कितने साल हो गए आजाद हुए लेकिन इनके जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हो सका। यह हमारे देश के विकसित और डिजिटल होने पर कितना बड़ा प्रश्न चिन्ह है।’ उनके रहन-सहन को नाक-मुंह सिकोड़ कर देखते और निकलते रहते। सिकंदर ने उसी कूड़े के ढेर पर अपनी आंखें खोलीं थीं। मां का सूखा आंचल खींचते और सभ्य घरों से फेंके हुए ब्रेड और टोस्ट के टुकड़ों को खाते कब नौ साल का हो गया वह खुद नहीं जान पाया। न जाने क्यों सिकंदर को बस्ती के अन्य बच्चों के साथ ताश पीटने या दूसरे उठा-पटक के खेलों में आनंद नहीं आता था। वह सूरज की पहली किरण के साथ बस्ती से बाहर की सड़क पर, नींद से बोझिल आंखों को मलता आ बैठता। दूर से उड़ कर आती फिल्मी गानों की आवाज के साथ आवाज मिलाकर गाने गुनगुनाता। सड़क से होकर गुजरते स्कूली बच्चों को, स्कूल जाते हुए कौतूहल और निरीहता से देखता फिर शांत हो जाता जैसे खुद से सवाल-जवाब कर रहा हो।

एक दिन वह अंडरवियर के ऊपर ढीली-ढमली शर्ट पहने स्कूल जाते बच्चों के पीछे-पीछे उनके स्कूल तक जा पहुंचा। यह सभ्य कही जाने वाली कॉलोनी का प्राइवेट स्कूल था, जिसमें कोई भी यूं ही प्रवेश नहीं कर सकता था। फिर सिकंदर तो उनके लिए किसी पागल से कम नहीं था। सिकंदर बिना कुछ बोले स्कूल के पीछे दीवार से सटकर जा खड़ा हुआ। वह कभी स्कूल की दीवार से अपना कान सटाता तो कभी दीवार के इस कोने से उस कोने तक जाता। छुट्टी होने तक वह स्कूल के भीतर से आती बच्चों की किलकारियों के साथ उनके हंसने-ठठाने, अ-आ, इ-ई, ए-बी-सी-डी की आवाजों को सुनने की सफल-असफल कोशिश करता रहा। वह बच्चों की हंसने की आवाज के साथ कभी हंसता और कभी खुशी में जोर-जोर से गाने लगता।

अब सिकंदर की यही दिनचर्या बन गई थी। मानो उसे भी कोई काम मिल गया हो। वह सड़क पर लगे हैंडपंप पर अपना मुंह धोता और बेसब्री से बच्चों के आने का इंतजार करता। बच्चों को आता देख खुश होता और बच्चों के साथ स्कूल तक जाता। बच्चे अंदर चले जाते और वह स्कूल के चारों ओर घूमता या फिर बंद फाटक की झिरियों से झांकता और खुश होता। थक जाता तो वहीं बैठ जाता। मानो उसका शरीर स्कूल के बाहर हो और वह भीतर बच्चों के साथ पढ़, खेल और हंस रहा हो। अब वह सुबह प्रार्थना और राष्ट्रगान भी स्कूली बच्चों के साथ बाहर रहकर गाने और गुनगुनाने लगा था। 

बच्चे भी उसे पहचानने लगे थे। वे रास्ते में उसे कभी-कभी छेड़ते, गाने को कहते। सिकंदर शरमा जाता लेकिन कुछ कह नहीं पाता। स्कूल के बाहर खड़े हुए कभी किसी ने उस से पूछा भी 'पढ़ेगा स्कूल में?’ वह नजरें झुका लेता और खुद को देखता फिर वहां से हट कर स्कूल के दूसरे कोने पर जा खड़ा होता। कई बार स्कूल के कर्मचारी उसे डांट-डपट कर गेट से दूर भगा देते। लेकिन छुट्टी के समय वह बच्चों को दरवाजे पर ही खड़ा मिलता। घर जाने के लिए बैचेन बच्चों की भीड़ में शामिल होकर, खुद में हंसता-मुस्कराता वह वापस चला जाता। 

एक दिन स्कूल की प्रार्थना और राष्ट्रगान के बाद भी उसे स्कूल से बच्चों की रोज की तरह आवाज नहीं आईं। इस अजीब शांति से बाहर खड़ा सिकंदर बैचेन सा हो उठा। वह कुछ और सोचता उससे पहले अंदर से किसी आदमी के बोलने की आवाज आई। सिकंदर समझ गया यह सर जी की आवाज है। बच्चों के साथ आते-जाते सिकंदर को कुछ शब्द, रट गए थे। पर आज वह शब्द नदारद थे। अंदर से कुछ नई बातें ही सुनाई दे रही थीं। सिकंदर फाटक की झिरी से कान लगा कर सर जी की बातें सुनने लगा। 'बच्चो, गोरे अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होने के बाद 26 जनवरी को भारत ने गणतंत्र की स्थापना की। यानी हमारे देश में हमारा अपना संविधान लागू हुआ। अपनी सरकार बनी और हम अपने घर में कहीं भी बिना रोक-टोक, आने-जाने, खाने-पीने, पढ़ने-लिखने, हंसने-गाने को आजाद हुए।’ हालांकि सर जी देर तक न जाने क्या-क्या बोलते रहे। यह सब सिकंदर के लिए और दिनों की अपेक्षा थोड़ा नया और अजीब था। उसकी समझ से दूर भी।

दूसरे दिन उसने देखा स्कूल के बाहर चूना डाला जा रहा है। तेज आवाज में गाने बज रहे हैं। बच्चे भी बाकी दिनों के मुकाबले  ज्यादा चमक रहे हैं। कुछ हाथों में झंडे लेकर आ रहे हैं। यह सब देखकर सिकंदर के भीतर अनजानी उथल-पुथल मची थी। वह जानना चाहता था कि यह सब क्या हो रहा है। लेकिन, वह किसी से भी कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। कुछ देर में उसने एक बड़ा झंडा स्कूल की छत पर हवा में लहराते हुए देखा। भारत माता की जय के नारे के साथ बच्चों का गाने-बजाने शुरू हो गया। सिकंदर का मन, जोरों से मचलने लगा। वह बाहर सड़क पर जोर-जोर से गाता हुआ घूमने लगा। मानो खुद से कोई जंग लड़ रहा हो। 

छुट्टी के समय बच्चों के हाथों में मिठाइयां और टॉफी देखकर उसका मन भी ललचाने लगा। किसी बच्चे ने उसे एक टॉफी दे दी तो वह खुश होते हुए पूछ ही बैठा, 'आज का पांत भई?’ उसकी बात सुनकर बच्चे ठठाकर हंस पड़े। सिकंदर तनिक सहम गया। बच्चे उसकी अज्ञानता की खिल्ली उड़ाते हुए बताने लगे, 'आज छब्बीस जनवरी है। यानी गणतंत्र दिवस। आज स्कूल में झंडा लगता है फिर लड्डू और टॉफी मिलती हैं। सर जी कहते हैं, इस दिन पर, हम भारतवासियों को गर्व करना चाहिए।’ सिकंदर बीच में ही बोल पड़ा, 'मोय भी?’ सुनकर बच्चे सकते में आ गए। फिर एक बच्चा बोल पड़ा, 'हां तो। तू भी तो भारत में रहता है। भारतीय है।’ सिकंदर की चाल कुछ मद्धम हो गई। बच्चे जैसे उसका आशय समझ गए। 'हां पर, तेरा नाम तो स्कूल में लिखा ही नहीं?’ इतने पर दूसरा बच्चा बोल पड़ा, 'तू अपने घर पर झंडा लगा लिया कर इस निसार की तरह। इसके यहां तो हर बार झंडा लगता है और मिठाई भी मिलती है।’ 

सिकंदर को जैसे सब समझ में आ गया था। उसे समझ आ गया था कि मिठाई पाने के लिए झंडा लगाना होगा। पर वह झंडा लाए कहां से। तभी वह पूछ बैठा, 'झंडा कहां मिलैगो?’ एक बच्चे ने अपने हाथ में लिया हुआ कागज का झंडा उसे थमा हुए कहा, 'यह ले झंडा।’ सिकंदर उसे ले कर तेजी से घर की तरफ दौड़ गया। हड़बड़ी में ठोकर खाकर वह गिर गया जिससे हाथ में पकड़ा हुआ झंडा थोड़ा फट गया। कागज के टुकड़े में दिखाई देते झंडे के रंगों को लेकर वह अपनी बस्ती में पहुंचा। उसने साथ के बच्चों से जो कुछ सीखा-समझा था वह सब बता दिया। आजादी और आजादी की मिठाई की बात सुनकर जैसे सबके चेहरे खिले फिर मुरझा गए। सवाल था, झंडा कहां है? अचानक एक युक्ति सूझी और तमाम झोपड़ियों में उसकी तलाश होने लगी। कुछ ही देर में तीन रंगों के कपड़ों के टुकड़े खोज निकाले गए। कागज के टुकड़े में रंगों का क्रम देखकर उन्हें गांठ लगाकर जोड़ा गया।

अगले ही पल बस्ती में भी तिरंगा उड़ रहा था। बच्चे खुशी से चिल्ला रहे थे। अब यहां भी अपने तरह से आजाद गणतंत्र का जश्न था। सिकंदर स्कूल में सुने हुए नारे लगा रहा था, 'भारत माता की जय, देश के अमर शहीदों की जय, भारत माता की जय।’ नारे लग रहे थे। लेकिन नारे लगाते बच्चे, आंखों ही आंखों में एक-दूसरे से पूछ रहे थे, 'कब पहुंचेगी यहां आजाद गणतंत्र की मिठाई?

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