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हिंदी साहित्य के इंजीनियर

गणित के कठिन सवालों के बीच गोदान का होरी भी जिंदगी के जवाब खोजता है। रसायन के सूत्र भले भूल जाएं मगर चंदर का सुधा भूल जाना अखरता है। प्रकाश के परावर्तन का नीरस सिद्धांत सुनील के केस को सुलझाते ही सरस लगने लगता है। ब्लैक बोर्ड पर अल्फा, बीटा, गामा के बीच निर्मला, चोखेरबाली और राग दरबारी भी धमाचौकड़ी मचाते हैं। अमूमन घरों में होशियार बच्चे विज्ञान पढ़ते हैं। विज्ञान में भी लड़के गणित और लड़कियां जीव विज्ञान पढ़ती हैं। जब कोर्स की किताबें ही साल में खत्म करना मुश्किल हो तो कहानी-कविताएं, उपन्यास पढ़ने के लिए किसके पास वक्त है। गणित लेने के बाद अर्जुन की आंख की तरह बस एक ही लक्ष्य है, आईआईटी। विज्ञान पढ़ रहे बच्चों के माता-पिता को भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान से कम कुछ भी गवारा नहीं है। मोटी-मोटी किताबों, सुबह से शाम तक चलने वाली कोचिंग क्लासों के बीच इंजीनियर बनने का सपना पलता है। ऐसे में साहित्य की कौन सोचे। पढ़ाई के दौरान साहित्य पढऩा समय की बर्बादी है और लिखना... इसके बारे में तो सोचना भी मत।
हिंदी साहित्य के इंजीनियर

इंजीनियरों के बारे में पहले सोचा जाता था कि उन्हें चुटकुले भी समझाने पड़ते हैं, क्योंकि उनका मशीनों के सिवा किसी से वास्ता नहीं हो पाता। लेकिन कुछ सालों में साहित्य की दुनिया बदल गई। इंजीयिरिंग के छात्र साहित्य की भी दिशा बदलने में जुट गए। नई पौध ने जो कॉमिक्स, किताबें पढ़ीं, साहित्य को जिस नजरिये से देखा उसे अपने अनुभव के ताने-बाने में पिरोया और थोड़ा अतीतानुराग, थोड़ी मस्ती, थोड़ी विविधता डाल कर साहित्य रच दिया। नई उम्र के ये साहित्यकार चार साल देश के प्रतिष्ठित प्रौद्योगिकी संस्थानों में पढ़े, सीजीपीए (तकनीकी संस्थानों में सेमिस्टर का ग्रेडिंग सिस्टम) से जूझे, प्रोफेसरों के लंबे-लंबे लेक्चर सुने और जब नि‌िश्‍ंचतता के पल मिले तब कागज पर मन की कलम से अपनी भावनाएं उकेर दीं।

 

टर्म्स एंड कंडीशन अप्लाय, मसाला चाय के लेखक दिव्य प्रकाश दुबेरुड़की कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से कंप्यूटर साइंस में बीटेक की डिग्री लेने वाले दिव्य प्रकाश दुबे को अपने कोर्स के तीसरे साल में ही पता चल गया था कि वह सॉफ्टवेयर के कोड नहीं लिख पाएंगे। लेखन की असीम संभावनाएं लिए इस लेखक के पास कोड की कमी थी, शब्दों की नहीं। वह कहते हैं, 'बीटेक के बाद नौकरी नहीं लगी तो मैं पुणे सिंबॉएसिस चला गया। एमबीए करने। ऐसा नहीं है कि मुझे तकनीकी बातें पढ़ने में मजा नहीं आता था। लेकिन साहित्य पढ़ने में उससे भी ज्यादा मजा आता था। फिर मैंने सोचा खराब इंजीनियर बनने के बजाय अच्छा लेखक बनूं। हालांकि बीटेक में पहले सेमीस्टर में मेरे 59 प्रतिशत थे जो आखिरी सेमेस्टर तक बढ़ते हुए 89 प्रतिशत तक पहुंच गए थे।’ दिव्य प्रकाश नए जमाने की कहानियां लिखते हैं। जिस बचपन को उन्होंने जिया या जिस परिवेश में वह रहे उसकी स्पष्ट झलक उनकी कहानियों में मिलती है।

 

होने में मैं प्रज्ञा मोदी का पहला संग्रहतकनीकी पढ़ाई ज्यादातर अंग्रेजी में होती है। हाईस्कूल तक जो भी हिंदी पढ़ी वह धीरे-धीरे धुंधला जाती है। अच्छा लेखक बनने के लिए जरूरी है कि पहले वह अच्छा पाठक बने। तकनीकी पढ़ाई करने वाले साहित्य के पाठक रह नहीं पाते। अपना ब्लॉग लिखने के दौरान प्रज्ञा मोदी ने जाना कि हिंदी भी लोग पढ़ना चाहते हैं। अहमदाबाद में वैसे भी हिंदी साहित्य का माहौल वैसे नहीं था। मगर उनके मां-पिता दोनों ही साहित्य के रसिक थे। बचपन से पढ़ने का संस्कार उन्हें ब्लॉग की ओर ले गया और ब्लॉग लिखते-लिखते वह सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लिखने लगीं और फिर भावनाएं कविता में बह निकलीं। दोस्तों ने थोड़ा हौसला दिया और एक मुकम्मल कविता संग्रह बन गया।

 

लफ्ज के फासले पर जिंदगी, रजनीश सचानहिंदी में लिखने वाले ज्यादातर लेखक कहीं न कहीं साहित्य की पढ़ाई करके आए हैं। या फिर वे लिखने-पढ़ने के ही काम से कहीं न कहीं जुड़े हुए हैं। ये पीढ़ी हिंदी साहित्य को अलग ढंग से पल्लवित कर रही है। इनकी रचनाओं में गांव-जवार की झलक अभी भी मिलती है। जबकि तकनीकी पढ़ाई के बाद हिंदी साहित्य की दुनिया में कदम रखने वालों के विषय बिलकुल अलग हैं। कस्बों और शहरी जीवन की झलक के साथ इन लोगों के पास आस-पड़ोस की कहानियां और कविताएं हैं। इन लोगों के पास अच्छे पैकेज की बढ़िया नौकरियां हैं। बस एक शौक है जो इन्हें साहित्यकार बनाए हुए है। इन लोगों के पास विकल्प था कि ये अंग्रेजी में लिखते। अंग्रेजी के पाठकों तक पहुंच बनाना भी आसान था। लेकिन हिंदी में लिखना ही इन्हें मंजूर था क्योंकि बचपन से हिंदी ही पढ़ी थी और बस इसी बहाने हिंदी का कर्ज उतारना है।

 

विश्व दीपक का कविता संग्रह खैर छोड़ो सराहा गयाअंग्रेजी में चेतन भगत और अमीश त्रिपाठी एक ब्रांड बन गए हैं। फिर भी निखिल सचान को लगता है, हिंदी को भी पॉपुलर लिटरेचर यानी हलके-फुलके साहित्य की जरूरत है। वह इससे परेशान नहीं होते कि चेतन भगत ब्रांड हो गए हैं और वह भी आईआईटी के प्रोडक्ट हैं। निखिल कहते हैं, 'एक ब्रांड बनने में सालों लग जाते हैं। कौन कहता है हिंदी में ब्रांड नहीं है। यह बोलने से पहले हम प्रेमचंद को नहीं भूल सकते।’ वह कहते हैं कि पाठकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि चेतन का लिखा पढ़ रहे हैं या किसी और का। जो अच्छा लिखेगा, उनके मन को भाएगा वह उसी को पढ़ेगा। हर भाषा खुद को लगातार बदलती है, हर भाषा में पॉपुलर फिक्‍शन की जरूरत है और हिंदी में भी यह होना चाहिए।

 

पंकज कुमार शादाब की पहली किताब गांठेंविज्ञान की पढ़ाई शुरुआत में बहुत परेशान करती है। दिल लग जाए तब भी, न लगे तब भी। लेकिन तकनीकी शिक्षा के लिए बने उच्च शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को चौतरफा विकास के मौके देते हैं। शायद यही वजह है कि आईआईटी से स्नातक की डिग्री लेने का ख्वाब पालने वाले छात्र भी वहां जाकर नाटक, संगीत, चित्रकारी में रुचि लेने लगते हैं। ड्रामा सोसायटी उन्हें नए प्रयोगों के लिए तैयार करती है। फिर यदि ऐसे में कोई छात्र हिंदी भाषी प्रदेश से है तो स्वाभाविक रूप से वह वहां जाकर अच्छा 'डायलॉग राइटर’ बन जाता है। विश्वदीपक जब खड़गपुर गए तो उन पर, आईआईटी में प्रवेश मिल गया है, यह दबाव कम था। यहां कुछ छात्र इसी दबाव में आते हैं कि अब पास हो कर ही निकलना है। विश्वदीपक कहते हैं, 'आईआईटी दरिया है। जितना आप डूबते हैं, उतना सीखते हैं। मेरे कॉलेज का माहौल ही ऐसा था कि हर दिन नया लगता था। जब मैं ड्रामा टीम में आया तो सीनियर्स ने कहा कि मुझे लिखना चाहिए। तुकबंदी जैसा कुछ तो मैं स्कूल के जमाने से ही करता था, मगर खड़गपुर में इतना सीखने का मौका मिला जिसकी कोई सीमा नहीं थी। यहां हर क्षेत्र में आगे बढऩे का मौका होता है। करना चाहें तो आईआईटी कैंपस से बेहतर कोई जगह नहीं होती।’ आईआईटी अपने छात्रों को सिर्फ नीरस, दुनिया से कटा हुआ इंजीनियर ही बनाना नहीं चाहती। आईआईटी, कानपुर में पढ़े पंकज कुमार 'शादाब’ भी यही मानते हैं। कानपुर में आईआईटी में रहते हुए उन्होंने अपनी नींव बनाई और नौकरी करते हुए उस पर मुकम्मल मकान तैयार हो गया। 

माता-पिता से पढ़ने का संस्कार और तुकबंदी की इस आदत को कई लोग शौकिया डायरी में उतारते हैं और फिर भूल जाते हैं। अभी भी हमारे समाज में लिखना 'शौक’ ही है। पेशा बनने के लिए इसे लंबा रास्ता तय करना है। धनंजय सिंह अपने दफ्तर से बाहर राकिम हो जाते हैं और जैसे ही वह राकिम के शरीर में प्रवेश करते हैं, उम्दा शायर हो जाते हैं। गजलें लिखते हैं और चाहते हैं कि आत्मा को पोषण बराबर मिलता रहे। कुछ दिनों से उन्होंने कहानी में भी हाथ आजमाना शुरू किया है। राकिम के पिताजी को भले ही आज भी लगता हो कि यदि वह लिखने के 'फेर’ में नहीं पड़ते तो कहीं अधिकारी होते। वह मानते हैं कि अच्छा लिखा जाएगा तो जरूर पढ़ा जाएगा। बस समस्या यह है कि हमारे यहां या तो परीक्षा पास करने के लिए पढ़ा जाता है या फिर कथा, पूजा-पाठ की धार्मिक किताबें पढ़ी जाती हैं। अभी वक्त लगेगा कि पढ़ने की ललक के लिए लोग किताबें पढ़ने के लिए दौड़ेंगे। 

कुछ नए साहित्यकार यह भी मानते हैं कि हिंदी पॉपुलर और गंभीर साहित्य के बीच फंस कर रह गई है और इसलिए भी साहित्य का नुकसान हो रहा है। जब क्या पढ़ना है यह पता नहीं चलता तो क्या कैसे लिखना है यह पता करना तो और भी मुश्किल होता है। रजनीश सचान कानपुर देहात के मकरंद गांव से आते हैं। उनकी साहित्य पढ़ने में रुचि थी मगर घर का दबाव इतना था कि इंजीनियर बनना है। विज्ञान पढ़ने से वैसे भी इज्जत थोड़ी बढ़ जाती है। उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय से तकनीकी शिक्षा हासिल की। वह कहते हैं, 'कानपुर विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में साहित्य की शायद ही ऐसी किताब हो जो मेरे नाम पर इशू न हुई हो। वह जाकर मैंने खूब पढ़ा। इतना साहित्य उससे पहले मैंने कभी नहीं पढ़ा था। पिता किसान हैं और मां गृहिणी। इसलिए गजल की बारीकी और गलती बनाते वाला कोई नहीं था। फिर भी पढ़ा और सीखा। कभी भी किताब छपवाने के बारे में नहीं सोचा था। पर दोस्तों ने दबाव बनाया और मेरी किताब मेरे हाथ में आ गई।’ 

इन सभी लोगों के लिए लिखना आसान था मगर छपना नहीं। ये लोग आम बोलचाल की हिंदी में आसपड़ोस की कहानियां लिखते हैं। इनके अनुभवों में उस संस्थान की झलक भी है जहां इन लोगों ने चार-साढ़े चार साल गुजारे हैं। इससे पहले चेतन भगत ने फाइव पॉइंट सम वन नाम से किताब लिख कर आम लोगों को आईआईटी के सपने और हकीकत से रूबरू करा दिया था। फिर एक और आईआईटिन प्रचंड प्रवीर ने अल्पाहारी गृहत्यागी लिख कर आईआईटी जाने की बाधाओं पर रोशनी डाली थी। प्रचंड प्रवीर ने आईआईटी के दाखिले की लालसा लिए एक लडक़े की कहानी को बहुत ही सहज-सरल भाषा में लिखा था। जाहिर सी बात है उनके पास इस तरह के अनुभव का खजाना होगा। उसके बाद तो आईआईटिनों और दूसरे संस्थानों से इंजीनियरिंग की पढ़ाई किए लोगों की लाइन लग गई। 

लेखक होने के इस 'कीड़े’ को घर बनाने की जगह सोशल नेटवर्किंग साइट्स से मिली। फेसबुक ने कई लेखक पैदा किए। पारंपरिक रूप से अखबारों, पत्रिकाओं की दरकार इन लोगों को नहीं थी। दो पैराग्राफ लिख कर भी आसानी से 'लेखक’ बना जा सकता था। किसी संपादक की अनुमति की यहां जरूरत नहीं थी। और जो सबसे महत्वपूर्ण बात थी, इन लोगों में लिखने का जज्बा था। अब भी ये लोग नौकरी की अपनी तकनीकी दुनिया से बाहर आते ही साहित्य के बारे में सोचते हैं। दफ्तर में कोड़ लिखते हैं और घर आकर कहानी। कॉरपोरेट जगत में प्रेजेंटेशन देते हैं और वहीं कविता की लय और छंद तय करते हैं। दो दुनिया के बीच का यह संतुलन ये आसानी से बना रहे हैं क्योंकि साहित्य में संतुलन की दरकार है।

 

 

 

 

 

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