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मम्मा की डायरी के बहाने

इंडिया हैबिटेट सेंटर का केसोरिना हॉल। जब हम पहुंचे तो हॉल में गिनती के लोग। देखते ही देखते हॉल में बच्चों की शैतानियां शुरू हो गईं। मम्मियों की आंखें लाल होने लगीं और इस सबके बीच सज गया मंच, ‘मम्मा की डायरी’ पर बातों के लिए। नताशा ने संचालन का जिम्मा उठाया और लेखिका अनु सिंह चौधरी ने बातों की भूमिका बांधी। एक सवाल के साथ, ‘मैं मां न होती तो न जाने क्या होती?’ औपचारिक शुरुआत दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों की बनाई फिल्म, ‘आओगी न मां’ से हुई। संवाद के तौर-तरीके चिट्ठी-पत्री से बदल कर ईमेल तक पहुंचे।
मम्मा की डायरी के बहाने

नताशा ने सार्वजनिक मंच पर निजी लेखन के चलन का जिक्र किया, उसके तमाम खतरों के साथ। इस सवाल के साथ कि कहीं ऐसे लेखन के जरिये माता-पिता के साथ डिसकनेक्ट को 'हील' करने की कोशिश तो नहीं। पत्रकार मंजीत ठाकुर ने मां की 'कड़ियल' छवि की अंतर्कथा शेयर की। विनीता ने अपनी मां और उनकी सास के रिश्तों से सबक लेते हुए अपनी बेटी के लिए एक प्रण का किस्सा साझा किया। उन्होंने कहा कि बेटी पर कभी हाथ न उठाने का संकल्प तो ले लिया लेकिन इसके लिए उन्हें कई बार बड़ी कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ा।

वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी ने इस चुटकी के साथ बात शुरू की कि पत्रकारों को अब पढ़ने-लिखने की फुरसत कहां? उन्होंने कहा, ‘मां एकतरफा प्रेम करती है। यही एकतरफा प्रेम तमाम रिश्तों के सुधरने, बनने की नींव होता है।’ इंद्र कुमार गुजराल से बातचीत का हवाला देते हुए कहा कि पाकिस्तान के साथ बातचीत में भी ऐसे एकतरफा प्रेम की अहमियत है। उन्होंने मां को मेडिटेशन गुरु बताया, जिनका मंत्र था, जाहे विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए।


मनीषा पांडेय ने स्त्री के जन्म देने की प्राकृतिक ताकत पर स्त्री के अधिकार की वकालत के साथ अपनी बात शुरू की। उन्होंने कहा कि महिलाओं को मां होने के लिए शादी करने की शर्त से निजात मिलनी चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने एक कविता भी सुनाई, जिसके जरिये अजन्मे बच्चों की मां की टीस हॉल में पसर गई। तूलिका ने अपने पुराने दिनों की वे यादें साझा की, जो उनके लड़की होने से जुड़ीं थीं- कैसे दिल्ली आने के लिए सैकड़ों सवालों के जवाब देने पड़े, कैसे भाई न होने की वजह से रिश्ता ठुकरा दिया गया। आदि-आदि।

नीलम ने कहा कि वह अनु की किताब पढ़ने के बाद एक दिन तक 'साइलेंट मोड' में चली गईं थीं। फिल्म देखने पर 'गिल्ट' का एहसास 'मम्मा की डायरी' पढ़ते हुए ताजा हो गया। प्रियंका अपनी मां के साथ कार्यक्रम में पहुंचीं थीं। उन्होंने किताब की आख़िरी लाइनों का जिक्र किया, जो है बस यही पल है, जिंदगी डूबते-डूबते बच जाती है। बच्चों की वजह से।

रमा ने अपनी 'नालायकी' के इजहार के साथ बात शुरू की। बच्चों और पति की मौजूदगी में उन सारी बातों का जिक्र किया जो वह बाकायदा नोट बना कर ले आईं थीं। उन्होंने कहा कि शादी से पहले आप चाह कर भी बच्चे नहीं ले सकतीं और शादी के बाद आप चाह कर भी बच्चे न लेने का फैसला नहीं कर सकतीं। गृहस्थी में बच्चा प्रेम को अपडेट कर देता है। पति संजय की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि पहले बच्चे को तीन-तीन घंटों तक गोद में खिलाने वाले पिता भी दूसरे बच्चे के वक्त थोड़े बदल जाते हैं। उन्होंने कहा कि बच्चों की जिम्मेदारी को लेकर पलायनवादी रवैया पुरुष या स्त्री किसी का नहीं होना चाहिए।

नताशा ने इस टिप्पणी के साथ चर्चा को आगे बढ़ाया कि 'नाइस-नाइस' खेलने का वक्त नहीं है। प्रीति ने कहा कि सत्तर के दशक के बच्चों के लिए मां त्याग की मूर्ति हुआ करती थी, वह दीवार जैसी फिल्मों का दौर था, जहां सारे ऐशो-आराम एक तरफ और मां दूसरी तरफ। उन्होंने कहा कि जब पहली बार उन्होंने स्लीवलेस महिलाओं को सुट्टा मारते देखा तो हिंदी फिल्मों की 'वैम्प' का खयाल ही जहन में आया। चार साल की शादी के बाद तमाम तानों के दबाव में बच्चा लिया, लेकिन सच कहूं तो मैंने 'मदरहुड' इंज्वॉय नहीं किया। लेड़ी श्रीराम कॉलेज की मनोविज्ञान की छात्रा रहीं प्रीति की स्वीकारोक्ति, कार्यक्रम का चरम ही कहा जाएगा।


अंत में अपनी मर्जी से मां नहीं बनने का विकल्प चुनने वालीं अमृता ने अपनी बातें रखीं। उन्होंने कहा कि इससे उनका मातृत्व कमतर नहीं हो गया। रिश्तेदारों के तमाम बच्चे उनसे वह सब कुछ साझा कर लेते हैं, जो वह शायद अपने मम्मी-पापा से भी न करते हों। इक्का -दुक्का कुछ और टिप्पणियां हुईं और कार्यक्रम शोभा की इस गुजारिश के साथ संपन्न हुआ कि हम कुछ और ईमानदार हो जाएं, खुद को बेहतर होने की खिड़की पर खड़ा पाएं।


इस परिचर्चा ने 'मम्मा की डायरी' की खिड़कियां खोलीं, मैं, मेरी पत्नी उनकी बहन के मन में इस घर में दाखिल होने की तमन्ना जगी। किताब का ऑर्डर किया था, जो यह टिप्पणी लिखते-लिखते दरवाजे से घर में दाखिल हो चुकी है। लेकिन बिना पढ़े भी एक पत्रकार ने (विजय त्रिवेदी के मुताबिक पढ़ने से वास्ता रखना थोड़ा मुश्किल तो है ही ) जो कुछ मन में सहेजा-समेटा वह साझा कर दिया।

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